1. सांख्यदर्शनम् ( षष्टितन्त्र ) प्रथम विषय निरूपण अध्याय परमर्षि कपिल मुनि
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4. इस प्रकार सांसारिक साधनों के द्वारा न तो हमारे दुःख अधिक समय के लिये छूट पाते हैं ; और , न उतने काल में दुःख निवृत्ति के नैरंतर्य की स्थिति आ पाती है। क्योंकि , जितने समय के लिये कोई कष्ट दूर होता है , उसके अंतराल में ही अन्य कष्ट आ उपस्थित होते हैं। अतएव इन अवस्थाओं को अत्यन्त ( परम ) पुरुषार्थ , मोक्ष या अपवर्ग नहीं कहा जा सकता।
5. मोक्ष की अवस्था वही है , जहाँ तीनों प्रकार के दुःखों की अधिकाधिक समय के लिये नितांत निवृत्ति हो जाय और उसमें नैरन्तर्य की अवस्था बनी रहे। अभिप्राय यह है कि मोक्ष अथवा अपवर्ग अवस्था में उतने समय के लिये किसी प्रकार के दुःख का अस्तित्व न रहना चाहिये।
10. इन तीनों प्रकार के दुःखों की अत्यंत - निवृत्ति अथवा आत्मा का इन दुःखों से अत्यंत मुक्त हो जाना , अत्यंतपुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष अथवा अपवर्ग कहा जाता है ।
13. अविवेक हेयहेतु है , सांख्यशास्त्र में आत्मा के दुःख का कारण अविवेक बताया गया है। जबतक प्रकृति - पुरुष के भेद का साक्षात्कार ज्ञान प्राप्त कर अविवेक दूर नहीं हो जाता , तब तक आत्मा दुःख भोगा करता है।
14. दुःख की अत्यंत निवृत्ति हान है , इसप्रकार मोक्ष का दूसरा नाम हान होता है।
15. विवेकख्याति , अर्थात् प्रकृति - पुरुष के भेद का साक्षात्कार ज्ञान इसका उपाय ( हानोपाय ) है।
16. इन चार व्यूह - समूह , चरण अथवा आधारभूत स्तम्भों पर शास्त्र के भव्य भवन का निर्माण किया जाता है।
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20. दृष्ट उपाय जैसे धनार्जन आदि से दुःख की अत्यंत निवृत्ति नहीं देखी जाती ; क्योंकि , धन , वनिता , भव्य - भवन , दास , दासी तथा अन्य विविध साज - सज्जा रहते हुए भी , किसी एक दुःख का अभाव भले ही हो जाय , अन्य अनेक प्रकार के दुःखों का सिलसिला बना ही रहता है।
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23. इसी प्रकार लोक में धनादि अर्जन हमारी अनेक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं ; पर , यह आवश्यकता की खाई कभी पूरी नहीं हो पाती।
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26. रोग होने पर प्रत्येक देश , काल या अवस्था में चिकित्सक या दवाई का प्राप्त हो जाना , भूख लगने पर उपयुक्त अन्न आदि का मिल जाना , इसी प्रकार की अन्य आवश्यकताओं के होने पर उनकी पूर्त्ति या प्रतीकार के लिये आवश्यक उपायों का प्राप्त हो जाना - निश्चित नहीं। इसलिये इन उपायों की निस्सारता स्पष्ट है। यदि ये उपाय किसी प्रकार सम्भव हो सकें , तो भी इनसे अत्यन्त दुःख निवृत्ति का होना सम्भव नहीं । कभी - कभी तो ये उपाय साधारण दुःख निवृत्ति में भी असमर्थ रहते हैं।
27. कपिल प्रत्येक अवस्था में संसार को हेय नहीं कहता। जो व्यक्ति प्रवृत्ति मार्ग में रत हैं , उनके लिये समस्त लौकिक - वैदिक कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करना उनकी दृष्टि में आवश्यक है। कपिल ने तो इसे भी पुरुषार्थ की कोटि में रक्खा है। वह प्रत्येक व्यक्ति को घर - बार छोड़ कर जंगल में चले जाने का उपदेश नहीं करता।
28. प्रमाण पद का अर्थ तत्त्वज्ञान का साधन शास्त्र है। जो व्यक्ति अध्यात्मशास्त्र में कुशल हैं , जिन्होंने प्रवृत्ति मार्ग की अस्थिरता को समझकर , उधर से विरत हो , अध्यात्म मार्ग को अपना लिया है , उन्हें प्रमाणकुशल व्यक्ति कहा गया है। ऐसे प्रमाणकुशल व्यक्ति अत्यंत विरल होते हैं ; पर , इस मार्ग पर जाने का अधिकार सबको समान है , और सबके लिये यहाँ स्वागत है। इसलिये प्रमाणकुशल व्यक्तियों के द्वारा त्रिविध दुःखों की अत्यंतनिवृत्ति - रूप प्रयोजन के लिये दृष्ट उपायों का अवलम्बन सर्वथा हेय है , परित्याज्य है॥ 4 ॥
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30. मानव के लिये सबसे ऊँचा लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है; इसलिये उत्कर्ष रूप कारण से भी मोक्ष की प्राप्ति के लिये यत्न करना आवश्यक है। वह यत्न, बिना उन उपायों के जाने हो नहीं सकता, अतः उन उपायों के प्रतिपादन के लिये यह शास्त्र आवश्यक है ।
31. वेद में अमृत पद से आत्मा की मोक्ष अवस्था का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद [7/59/12] में जीवात्मा प्रार्थना करता है--' मैं मृत्यु से छुटकारा पा जाऊँ , अमृत से नहीं ' ।
32. वेदों में समस्त पुरुषसूक्तों [ ऋ.10/90, यजु. 31 आदि] में अमृत पद से मोक्ष का वर्णन है। अथर्वेद [ 19/6/3], यजुर्वेद [ 3/60] और ऋग्वेद [3/34/2, 4/2/9 आदि] के अनेक स्थलों में अविनाशी सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिये विभिन्न प्रार्थनाओं का उल्लेख है। आत्मा की यह अवस्था सर्वोत्कृष्ट बताई गई है ॥5॥
33. यह ठीक है कि त्रिविध दुःख की अत्यंत निवृत्ति लौकिक उपाय से नहीं हो सकती, पर वेदप्रतिपाद्य यज्ञ याग आदि के अनुष्ठान से हो जायेगी। वेद में कहा भी गया है- 'अपाम सोमममृता अभूम' [ ऋ.8/48/3], हम सोम का पान करते हैं, अमर हो जाते हैं। सोमपान यज्ञ यागादि अनुष्ठान का संकेत करता है, ऐसी स्थिति में मोक्ष के अन्य उपायों का प्रतिपादन करने के लिये प्रस्तुत शास्त्र के प्रारम्भ की क्या आवश्यकता है? सूत्रकार इस सम्बन्ध में अगले सूत्र में बताता है।
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35. जैसे लौकिक धन आदि साधनों से दुःख की निवृत्ति नहीं हो सकती , इसी प्रकार केवल यज्ञ याग आदि के अनुष्ठान से भी नहीं हो सकती। यज्ञादि का अनुष्ठान अंतःकरण की शुद्धि द्वारा विवेकज्ञान में उपकारक या सहायक अवश्य है , पर वह मोक्ष का साक्षात् उपाय नहीं। सांख्यसूत्रों [3/23-25] में इसका स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है।
36. मोक्ष का साक्षात् उपाय प्रकृति - पुरुष अथवा चेतन - अचेतन अनुभूतिरूप विवेकज्ञान है। मोक्ष - प्राप्ति में साधन रूप से उपस्थित विवेकज्ञान के साथ अन्य किसी के समुच्चय या विकल्प का अवसर नहीं। परंतु विवेक - ज्ञान होने तक शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते रहना आवश्यक है। फलतः विवेकज्ञान के किये शास्त्रारम्भ अपेक्षित है , जिससे तत्त्वों के वास्तविक विवेचन में सहयोग प्राप्त हो सके।
37. यह एक स्थिर विचार है कि वैदिक काम्य कर्म केवल भोग के साधन होते हैं , अपवर्ग के नहीं। निष्काम कर्म अंतःकरण की शुद्धि में सहायक होते हैं। शुद्धांतःकरण मुमुक्षु अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है ; तथा . समाधि आदि के द्वारा आत्मज्ञान अथवा आत्मसाक्षात्कार होने पर अपवर्ग को प्राप्त करता है।
38. इस प्रकार निष्काम कर्म भी आत्मज्ञान अथवा विवेकज्ञान में उपकारक मात्र होते हैं। यही स्थिति उनकी अपवर्ग के प्रति कही जा सकती है।
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40. वैदिक कर्म अपवर्ग के साधन नहीं हैं, इसका यह अभिप्राय कदापि न समझना चाहिये कि आत्मज्ञान अथवा विवेकज्ञान मोक्षसाधनरूप में वैदिक या वेदप्रतिपाद्य नहीं हैं।
46. कारण यह है कि किसी भी वस्तु के स्वभाव को हटाया नहीं जा सकता। वस्तु का स्वभाव उसका अपना रूप है, आत्मा है। स्वभाव के हटने से वस्तु के स्वरूप का ही अस्तित्व न रहेगा। उष्णता अग्नि का स्वभाव है: यदि उष्णता न रहे, तो व्यवहार में अग्नि का अस्तित्व नहीं रहता।
47. ऐसी स्थिति में यदि बन्धन आत्मा का स्वभाव है तो उसे हटाया नहीं जा सकता। तब उसके लिये जो उपदेश होगा, वह अप्रमाणिक होगा; क्योंकि, उसका अनुष्ठान करना सर्वथा व्यर्थ होगा। वह उपदेश केवल कथन रहेगा, उसे प्रयोग अथवा व्यवहार में नहीं लाया जा सकता- उसका कोई भी फल होना सम्भव नहीं ॥8॥
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50. यदि आत्मा के बन्ध को स्वाभाविक माना जाय, तो कुछ समय के लिये उसका तिरोभाव हो सकता है, सर्वथा अपाय नहीं। ऐसी स्थिति में आत्मा के त्रिविधदुःख की अत्यंत निवृत्ति का उपदेश संगत न रहेगा।
51. पर वस्तुतः यह वेदोपदेश अशक्य नहीं, अर्थात् किसी न हो सकने वाले अर्थ का उपदेश नहीं है; क्योंकि, सर्वज्ञकल्प वेद ऐसी विधि का उपदेश नहीं कर सकता, जिसका व्यवहार या उपयोग में लाना अशक्य हो। इसलिये आत्मा के बन्ध को स्वाभाविक नहीं माना जा सकता॥ 11 ॥
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54. यद्यपि सांख्यमत के अनुसार तत्त्वांतर रूप में काल का कोई अस्तित्व नहीं; और, जो कुछ अस्तित्व है, वह सर्ग अवस्था में कल्पना किया जाता है। पर आत्मा का अस्तित्व सर्ग से अतिरिक्त अवस्था में भी उसी तरह बना रहता है। ऐसी स्थिति में आत्मा के बन्ध का निमित्त काल को नहीं माना जा सकता। अन्यथा जीवन्मुक्त अथवा देहपात के अनन्तर मुक्त अवस्था की प्राप्ति आत्मा को न होनी चाहिये; क्योंकि, आत्मा का काल के साथ योग तो उस समय भी रहता है॥12॥
55. इस सूत्र में व्यापी पद का अर्थ- विभु अर्थात् सर्वत्र विद्यमान कोई एक तत्त्व - ऐसा नहीं है। सांख्य का अभिमत आत्मा को परिच्छिन्न मानने में पर्यवसित होता है। अतएव यहाँ व्यापी पद का अर्थ गतिशील है: विशेष रूप से विविध स्थलों में जिसके पहुँचने का स्वभाव हो। विभिन्न लोकांतर, योन्यंतर, देहांतर आदि में आत्मा की गति- आगति उसके इस स्वभाव को स्पष्ट करती है। यहाँ व्यापी पद आत्मा के स्वरूप को प्रदर्शित करने के लिये हुआ है। इसी प्रसंग में अगले सूत्र में आत्मा के बन्ध के प्रति देशयोग की निमित्तता का प्रतिषेध किया गया है।
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57. अभिप्राय यह है कि आत्मा गतिशील तथा सर्वत्र आने-जाने का सामर्थ्य रखने वाला है; इसलिये, वह एक देश विशेष में बंधा हुआ रहता हो, ऐसा नहीं है। वह सर्वत्र आता जाता रहता है।
58. उसकी निरंतर गति-आगति का वर्णन शास्त्रों में उपलब्ध है [प्रश्नो. 4/3; कौषी.1/2, 3/4; बृहा. 4/4/6 ]। इसी सार्वत्रिक गति-आगति आदि की भावना से आत्मा को व्यापी कहा गया है।
59. वस्तुतः परिच्छिन्न भी आत्मा के बन्धन का कारण देशयोग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, वह किसी एक नियत देश में आवृत्त नहीं है। देश जनित बन्धन का यही स्वरूप सम्भावना किया जासकता है ; और, वह आत्मा में घटित नहीं होता।
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62. मूल रूप में अवस्था पद का अभिप्राय परिणाम भी है। जब मूल प्रकृति परिणत होकर अवयवसंघात आदि विकारों को प्रकट करती है, तब बन्ध के कारण सन्मुख आते अथवा स्पष्ट हो पाते हैं। बाल्य, युवा आदि अवस्थाओं के प्रादुर्भाव में आने से पहले ही आत्मा तो बन्धन में पड़ा रहता है, तब इसको बन्धन का निमित्त माना नहीं जा सकता।
63. सर्गारम्भ में परिणामरूप अवस्था आत्मा के बन्ध का कारण माना जाना चाहिये। पर, इसे भी बन्ध का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, यह परिणतिरूप अवस्था देह अर्थात् अचेतन का धर्म है। परिणाम की सम्भावना अचेतन में हो सकती है, आत्मा में नहीं; क्योंकि, वह चेतनस्वरूप है।
64. यदि अन्य के धर्म से अन्य का बन्ध माना जाय, तो मुक्त आत्मा मुक्तावस्था में ही बन्ध में आ जाने चाहियॆ, फिर परमात्मा भी बन्धन में आ सकता है। पर यह शक्य नहीं। ऐसा प्रतिपादन सर्वथा अप्रामाणिक है। फलतः अचेतन धर्मपरिणामरूप अवस्था, चेतन आत्मा के बन्ध का निमित्त सम्भव नहीं ॥14॥
65. यदि परिणाम धर्म आत्मा का भी मान लिया जाय, तो क्या दोष है? सूत्रकार कहता है--
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67. सांख्यशास्त्र में पुरुष पद का प्रयोग चेतन मात्र के लिये होता है, उसमें परमात्मा और जीवात्मा - सबका समावेश हो जाता है।
68. यहाँ बन्धकारणों का प्रसंग होने से पुरुष पद जीवात्मा के लिये प्रयुक्त हुआ समझना चाहिये।
69. प्रत्येक परिणामी अर्थ, संगरूप, अर्थात् संघात के रूप में अवस्थित रहता है, उसका कोई और रूप नहीं।
70. परंतु चेतन आत्मा सर्वथा इससे भिन्न है; इसलिये, परिणाम आत्मा का धर्म नहीं माना जा सकता।
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72. इस सम्बन्ध में सूत्रकार अगले सूत्र में कहता है- असङ्गो अयं पुरुष इति ॥ 1/15 ॥ संग रहित है यह जीवात्मा स्वरूप से ॥ 15 ॥
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74. शुभ-अशुभ कर्मों को यहाँ देह का धर्म केवल इस आधार पर कहा गया है कि देह के प्राप्त होने पर ही इनका होना सम्भव होता है अन्यथा नहीं, और देह में आत्मा का प्राप्त हो जाना एक प्रकार से बन्धन का स्पष्ट स्वरूप है। कर्म तो अब देह में आने के बाद हो सकेंगे, इसलिये इन्हें आत्मा के बन्ध का कारण नहीं माना जा सकता।
75. तात्पर्य यह है कि कर्मों के अस्तित्व में आने से पहले ही आत्मा तो बन्धन में पड़ जाता है, फिर कर्म को बन्धन का कारण कैसे माना जाय? यदि ऐसा मान लिया जाय तो अतिप्रसक्ति दोष होगा।
76. अभिप्राय यह है कि जिनको बन्ध में नहीं आना चाहिये; जैसे मुक्तात्मा या परमात्मा, उनके भी बद्ध होने की सम्भावना हो जायेगी। क्योंकि, जब अन्य के धर्म से अन्य बद्ध हो सकता है, तो बन्ध की व्यवस्था कुछ न रहेगी। तथा अवाञ्छित तत्त्वों पर भी बन्ध की आपत्ति हो जायेगी।
77. यह समाधान एकदेशी होने से कपिल का अभिमत नहीं। यह अगले सूत्र से स्पष्ट हो जाता है ॥16॥
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79. सुख-दुःख आदि भोगों को अन्य के अर्थात् अंतःकरण के धर्म मान लेने पर, जगत में जो प्रत्येक व्यक्ति को विविध भोगों की अनुभूति होती हुई देखी जाती है, वह सर्वथा असंगत होगी। परंतु लोकानुभूति को एकाएक असंगत नहीं कहा जा सकता ।
80. अभिप्राय यह है कि सुख-दुःख आदि की अनुभूति रूप भोग आत्मा में ही उपपन्न माना जा सकता है; क्योंकि, समस्त अचेतन जगत् चेतन आत्मा के भोगापवर्ग को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि कर्म अंतःकरण के धर्म हैं, तो उन्हें आत्मा के बन्ध का निमित्त नहीं कहा जा सकता।
81. फलतः कर्म आत्मा का धर्म है, क्योंकि आत्मप्रेरणा से ही उसका होना सम्भव है, तब उसे आत्मबन्ध का निमित्त मान लेना चाहिये। पर आचार्य को यह अभिमत नहीं।
82. कारण यह है कि आत्मा देह अंतःकरण के साथ सम्बन्ध होने के अनंतर कर्मानुष्ठान के प्रति प्रवृत्त होता है; और, वह सम्बन्ध ही बन्ध का रूप है, तब अनंतर होने वाला कर्म अपने से पहले विद्यमान बन्ध का निमित्त कैसे हो जायेगा? इसलिये आत्मधर्म होने पर भी कर्म बन्ध का कारण नहीं ॥17॥
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84. प्रकृतिरूप निमित्त से आत्मा का बन्ध होता है- यह भी कहना ठीक नहीं; क्यों कि, प्रकृति स्वयं परतंत्र है। वह अपने प्रेरयिता चेतन अधिष्ठाता की प्रेरणा के बिना प्रवृत्त नहीं हो सकती।
85. यदि प्रकृति की स्वतः प्रवृत्ति मानी जाय और आत्मा के बन्ध में उसे निमित्त मान लिया जाय, तो प्रलय अवस्था में भी प्रवृत्ति होनी चहिये, अर्थात्, प्रलय का अस्तित्व ही न रहना चाहिये।
86. नियंता की प्रेरणा से अचेतन में जो प्रवृत्ति होती है, वही सतत चलती रहती है, जबतक प्रेरयिता स्वयं उसे बदल न दे। इस प्रकार प्रकृति के सर्ग- प्रलय नियंता की प्रेरणा से हो पाते हैं।
87. अतः प्रकृति चेतन अधिष्ठाता के अधीन है, उसकी प्रेरणा से सर्ग और प्रलय होते रहते हैं। अतएव प्रकृति स्वतः आत्मा के बन्ध का कारण नहीं कही जा सकती ॥18॥
88. सातवें सूत्र से यहाँ तक आत्मा के बन्ध के विभिन्न सम्भावित निमित्तों पर प्रकाश डाला गया। यह सब तत्त्व की विवेचना के लिये सूत्रकार ने ऊहा करके प्रस्तुत किया है।
89. अब अगले सूत्र में आत्म-बन्ध के वास्तविक निमित्त का सिद्धांतरूप में निर्देश सूत्रकार ने किया है।
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91. आत्मा शुद्धस्वभाव है, अपरिणामी स्वभाव। उसमें कभी किसी प्रकार का परिणाम अर्थात् बदलाव नहीं होता। प्रकृति नित्य होती हुई भी परिणामिनी है, लगातार अपने रूप बदलती रहती है। आत्मा की एक अन्य विशेषता अगले पद में बतायी है-
92. आत्मा बुद्धस्वभाव है, वह चेतनस्वरूप है। अर्थात उसमें ज्ञान ग्रहण करने का स्वभाव है। आशंका हो सकती है, कदाचित् चेतन भी प्रकृति का कोई अंश हो, इसलिये अगला विशेषण प्रस्तुत किया गया-
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95. प्रकृतियोग भी आत्मा का, अविवेक के कारण होता है, इसलिये अन्य पूर्वनिर्दिष्ट सम्भावित निमित्तों के साथ इसकी समानता नहीं कही जा सकती।
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97. जब तक अविवेक है तब तक प्रकृतियोग ; और , जब तक प्रकृतियोग है तब तक बन्ध बना रहेगा। इसलिये अविवेक के नाश का उपाय होना चाहिये। सूत्रकार कहता है --
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100. देह , इन्द्रिय आदि में कोई विकार उत्पन्न हो जाने से, अथवा पुत्र या कलत्र आदि के दुःख से आत्मा का दुःखी होना आदि जो अवस्था हैं -ये सब प्रकृतिपुरुष के अविवेक से ही हो पाती हैं। यदि यह अविवेक न हो तो इनका अस्तित्व नहीं रहता।
101. इसलिये प्रकृतिपुरुष के अविवेक के रहने पर देहाद्यभिमान होता है; और उस अविवेक के न रहने पर इसका भी नाश हो जाता है।
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104. जब आत्मा अपने स्वरूप का समाधि आदि में अवृत्तिक साक्षात्कार करता है, उस अवस्था में प्रकृतिपुरुष के भेद का जो साक्षात्कार होता है, उसी के द्वारा अविवेक का नाश होकर मोक्ष प्राप्ति सम्भव है।
105. इसलिये साधारण रूप में जो हम प्रत्यक्षवृत्ति से पुरुष और प्रकृति के भेद को जाने रहते हैं, ऐसा विवेकज्ञान कथनमात्र होने से मोक्ष का उपाय नहीं ॥23॥
106. यदि साधारण प्रत्यक्षवृत्तिजन्य भेदज्ञान मोक्ष का उपाय नहीं, तो युक्ति अथवा शास्त्रश्रवण या गुरूपदेशमात्र से जो हम प्रकृति और पुरुष के भेद को जान लेते है, वही भेदज्ञान मोक्ष का उपाय मान लेना चाहिये। यह सूत्रकार अगले चौबीसवें सूत्र में बताता है--
107. युक्ति-अनुमान अथवा शब्दश्रवणमात्र से जो हमें पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान हो जाता है, ऐसा ज्ञान वस्तुभूत न होने के कारण अविवेक की बाधा नहीं कर सकता।
108. जिस व्यक्ति को दिशा-भ्रम हो जाता है, उसे युक्ति या शब्द द्वारा कितना ही समझाइये, उसके मस्तिष्क से दिशा-भूल का भूत हट नहीं पाता। वह उस समय तक बराबर बना रहता है, जब तक कि उसे स्वयं उस स्थिति का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान न हो जाय ।
109. इसी प्रकार प्रकृति-पुरुष के अविवेक का नाश, समाधिजन्य आत्मसाक्षात्कारजनित विवेकज्ञान करता है; और, उसी अवस्था में मोक्षप्राप्ति की सम्भावना हो सकती है॥24॥
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112. एक समय हम अग्नि को चक्षु इन्द्रिय से देखते हैं और यह जान लेते हैं कि धूम आदि का उससे सहयोग है। जब अग्नि हम को नहीं भी दीखती , तब धूम अथवा आलोक आदि के अस्तित्व से अग्नि के अस्तित्व का अनुमान कर लिया जाता है।
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115. समस्त वैषम्य अथवा द्वन्द्व विकृत अवस्था में सम्भव हो सकते हैं , इसलिये प्रकृति स्वरूप को साम्य अवस्था कह कर स्पष्ट किया गया है। इसप्रकार मूल तत्त्व तीन वर्ग में विभक्त है , और वह संख्या में अनंत है।
116. जब चेतन की प्रेरणा से उसमें क्षोभ होता है , तब वे मूल तत्त्व कार्योन्मुख हो जाते हैं ; अर्थात् , कार्य रूप में परिणत होने के लिये तत्पर हो जाते हैं। तब उनकी अवस्था साम्य न रहकर वैषम्य की ओर अग्रसर होती है।
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118. फिर अहंकार से पाँच तन्मात्र और दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ बनती हैं ।
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122. इसप्रकार चौबीस अचेतन और पच्चीसवाँ पुरुष चेतन है। चेतन वर्ग भी दो वर्गों में विभक्त है , एक परमात्मा दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है और जीवात्मा अनेक , संख्या में अनन्त॥ 26 ॥
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124. बाह्य एवं आभ्यंतर इन्द्रियों द्वारा तथा उन तन्मात्रों के द्वारा अहंकार का अनुमान हो जाता है। पांच ज्ञानेन्द्रिय एवं पांच कर्मेन्द्रिय मिलकर- दस बाह्य इन्द्रियां; और मन- एक आन्तर इन्द्रिय, ये सब अहंकार के कार्य हैं। य्रे सब कार्य अपने अस्तित्व से अपने उपादान कारण के अस्तित्व का अनुमान करा देते हैं॥28॥
125. पञ्चविंशतिर्गणः पच्चीस तत्त्वों का गण ( समुदाय ) ये हैं वे समस्त तत्त्व जिनके वास्तविक स्वरूप को पहचान कर चेतन तथा अचेतन के भेद का साक्षात्कार करना है। इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं। ये चौबीस अचेतन जगत् है। इसके अतिरिक्त पुरुष अर्थात् चेतन तत्त्व है। इस प्रकर चौबीस अचेतन और पच्चीसवां पुरुष चेतन है। तालिका में , उत्पन्न तत्त्वों में सत - रज - तम का अनुपात ( अनुमानित ) भी दर्शाया गया है॥ 26 ॥
126. CLUSTER 25: Group of Twenty five Elements The Group contains twenty four elements made of Non- conscientious (Achetan) matter in the Universe. In addition to this, there exists Conscientious (Chetan) element called- 'Purush'. There are two categories of Conscientious element: Supreme Conscientious -GOD-'Paramaatmaa' and Body Conscientious -'Jeevaatmaa'. ॥ Saankhy. 1/26 ॥
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128. उस अहंकाररूप कार्य द्वारा उसके उपादान कारण अन्तःकरण का अनुमान होता है। इस सूत्र में अन्तःकरण पद बुद्धि के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिसका दूसरा नाम महत् है।
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130. बुद्धि भी मूल तत्त्व नहीं, वह भी किसी का कार्य है। वह जिसका कार्य है , उसका अनुमान बुद्धि द्वारा होगा। अतएव सूत्रकार ने कहा--
131. उस अन्तःकरण अर्थात् महत् से प्रकृति का अनुमान होता है। प्रकृति महत्तत्त्व का कारण है। पीछे छब्बीसवें तथा आगे छत्तीसवें सूत्र में इस अर्थ का प्रतिपादन किया गया है।
132. प्रत्येक कार्य अपने उपादान कारण का अनुमापक होता है, अतएव बुद्धितत्त्व भी अपने मूलकारण प्रकृति का अनुमान कराता है। प्रकृति कार्यमात्र का उपादान है, पर उसका अन्य कोई उपादान नहीं। उपादान मूलक कार्यकारणभाव की यहाँ समाप्ति हो जाती है। अतएव प्रकृति के द्वारा किसी अन्य उपादान का अनुमान नहीं हो सकता॥30॥
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134. प्रकृति और प्रकृति समस्त परिणाम संहत हैं। संहत का अर्थ है-- संघात रूप में अवस्थित होना। इसका अभिप्राय यह होता है कि प्रत्येक संघात परिणामी है, परिणत होते रहना उसका स्वभाव है।
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137. इसलिये परिणामी तत्त्वों से विलक्षण एक अपरिणामी चेतन तत्त्व है, जिसके प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये समस्त परिणामी तत्त्वों का अस्तित्व है।
138. इसप्रकार समस्त संघात, परार्थ अर्थात् पर-प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये हैं; इस कारण इनसे पर अर्थात् विलक्षण पुरुष-चेतन का अनुमान होता है।
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140. भोक्ता चेतन का प्रयोजन है-- भोग और अपवर्ग। इसी की सिद्धि के लिये समस्त सृष्टि की रचना है-- </