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सांख्यदर्शनर्शनम् ( षष्टितनष्टितन्त्र )
आख्याितनयका अध्यायः चतुर्थःर्शः
परमिषष्ट कितनपल मुर्ितनन
अथः चतुर्थःर्शः अध्यायः
प्रथःम तीन अध्यायों में
शनास्त्रीय अथःों का
ितननरूपण िकया गया ।
*
अब चतुर्थःर्श अध्याय में
उसी के अनुर्सार
शनास्त्र तथःा लोकप्रितनसद्ध
आख्याितनयकाओं द्वारा
ितनविविेक-ज्ञान-साधनों को
प्रस्तुर्त िकया जाता है ।
* * *
राजपुर्त्रवित् तत्त्विोपदर्ेशनात् ॥4/1॥
तत्त्वि के उपदर्ेशन से ( ितनविविेकज्ञान होता है ) राजपुर्त्र के समान ॥4/1॥
●
तत्त्वि के उपदर्ेशन से ितनविविेक होजाता है, राजपुर्त्र के समान । जब िकसी अज्ञानी को यथःाथःर्श-तत्त्वि का
उपदर्ेशन िकया जाता है तो विह उसकी विास्तितनविकता को जान लेता है और उसके अज्ञान की ितननविृत्तितनत्ति
होजाती है । इस सम्बन्ध में एक राजपुर्त्र का कथःानक इसप्रकार है--
– एक विार कोई राजपुर्त्र अपने पिरविार से स्तनन्धय आयुर् में ही ितनबछुर्ड़ गया और जंगल में िकसी
शनबरजातीय व्यक्तितनक्ति को विह ितनमल गया । बालक सुर्न्दर्र वि स्विस्थः थःा, शनबर ने उसे पालपोस कर
बड़ा िकया । अब अज्ञान से विह यही समझता रहा िक विह शनबर का पुर्त्र है।
– राजा के मंत्री को िकसी प्रकार ज्ञात हुआ िक राजपुर्त्र जीितनवित है और अमुर्क जंगलविासी िकसी व्यक्तितनक्ति
के पास सुर्रितनक्षित है । मंत्री विहाँ जाता है और उसे समझ।ता है -- ' तुर्म शनबर या शनबर के पुर्त्र नहीं
हो, तुर्म तो अमुर्क राजा के पुर्त्र हो। एक विार आकितनस्मक दर्ुर्घटर्शटना में िकसी तरह तुर्म पिरविार से
अत्यल्प आयुर् में ितनबछुर्ड़ गये थःे' । विह बालक मन्त्री के इस कथःन के अनन्तर अपने आप को शनबर
समझने की ितनमथ्या भाविना से मुर्क्ति होजाता है, और यथःाथःर्शरूप से राजपुर्त्र समझने लगता है ।
●
इसी प्रकार आत्मज्ञानी तत्त्विोपदर्ेष्टिा के आत्मितनविषष्टयक उपदर्ेशन के अनन्तर, अितनधकारी ितनजज्ञासुर्
आत्मितनविषष्टयक अज्ञान के ितननविृत्तत्ति होने पर, ितनविविेक अथःार्शत् प्रकृत्तितनत-पुर्रुषष्ट के भेदर् का साक्षिात्कार कर लेता है;
और, विह चेतन, प्रकृत्तितनत के बन्धन से छूट कर मुर्क्ति अविस्थःा को प्राप्त कर लेता है ॥ 4/1॥
ितनपशनाचविदर्न्याथःोपदर्ेशने अितनप ॥4/2॥
ितनपशनाच के समान अन्य के ितनलए अथःर्श ( विस्तुर्तत्त्वि ) का उपदर्ेशन होने पर भी
( दर्ूसरे को ितनविविेकज्ञान का लाभ होजाता है ) ॥4/2॥
●
कभी एक को उपदर्ेशन दर्ेने पर प्रसंगविशन दर्ूसरा भी लाभ उठा लेता है, इस आशनय से सूत्रकार ने कहा िक
िकसी अन्य को उपदर्ेशन दर्ेने के प्रसंग में यिदर् कोई दर्ूसरा व्यक्तितनक्ति भी उसे सुर्न ले, तो विह भी उस उपदर्ेशन
का लाभ उठाकर विास्तितनविक तथ्य को जान लेता है, ितनपशनाच के समान ।
●
इस ितनविषष्टय में एक आख्याितनयका इस प्रकार कही जाती है--
– एक अत्मज्ञानी गुर्रु अपने ितनशनष्य को उपदर्ेशन दर्ेने के ितनलए, सुर्ितनविधा की दर्ृत्तितनष्टि से, एकान्त जंगल में ले
गया; और, विहीं ितननविासकर, उसे आत्मज्ञान का उपदर्ेशन दर्ेता रहा। उस उपदर्ेशन को एक ितनपशनाच
ितनछपकर बराबर सुर्नता रहता थःा । उसके अनुर्सार आचरण करता हुआ, विह भी कालान्तर में
आत्मज्ञानी होगया ।
●
सन्मागर्श का उपदर्ेशन कहीं से, िकसी भी तरह प्राप्त हो जाय, उसके अनुर्सार आचरण करने से तत्त्विज्ञान
अविश्य होजाता है ॥4/2॥
आविृत्तितनत्तिरसकृत्तदर्ुर्पदर्ेशनात् ॥4/3॥
उपदर्ेशन से बार-बार दर्ुर्हराना ( ज्ञान का साधन है ) ॥4/3॥
●
यिदर् एक विार उपदर्ेशन से ज्ञान न हो तो ितननरन्तर उसकी आविृत्तितनत्ति करते रहना चाितनहए । इसी आशनय से
सूत्रकार ने कहा िक उपदर्ेशन के अनन्तर उसकी बार-बार आविृत्तितनत्ति करना तत्त्विज्ञान का साधन है । इससे
ओङ्कार एविं गायत्री आिदर् के ितननरन्तर जप करने की भाविना स्पष्टि होती है। िकसी विस्तुर् के ितननरन्तर
स्मरण करते रहने का अविश्य एक मनोविैज्ञाितननक प्रभावि होता है।
●
यिदर् कोई व्यक्तितनक्ति शनाितनब्दर्क रूप में प्रथःम आत्म-स्विरूप को समझकर ितननरन्तर उसका ितनचन्तन करता है;
तो, कालान्तर में, एक ऐसी ितनस्थःितनत की ितननितनश्चित सम्भाविना की जासकती है जब उस व्यक्तितनक्ति को आत्म-
स्विरूप का साक्षिात्कार हो जाए । योग में अभ्यास से तत्त्विज्ञान की प्राितनप्त का यही स्विरूप है ।
●
उपदर्ेशन की ितननरन्तर आविृत्तितनत्ति तत्त्विज्ञान की उद्भाविक होती है । जो व्यक्तितनक्ति तीव्र विैराग्य, शनम-दर्म आिदर्
साधनसम्पितनत्ति और ितनविलक्षिण प्रितनतभा से सम्पन्न होते है, उनको एक विार उपदर्ेशन से ही तत्त्विज्ञान होजाने
की सम्भाविना रहती है; पर, जो मन्दर्मितनत है, विैराग्य आिदर् साधनों से सम्पन्न नहीं है, उनके ितनलए
उपदर्ेशन की ितननरन्तर आविृत्तितनत्ति तत्त्विज्ञान को प्रकट कर दर्ेती है । छान्दर्ोग्य [अ. 6] आिदर् उपितननषष्टदर्ों में
आरुितनण-श्वेतकेतुर् के सम्विादर् से यह अथःर्श स्पष्टि होता है ।
●
लोक में प्रत्येक गुर्रु इस बात को जानता है िक जब बालक अक्षिराभ्यास आरम्भ करता है, तो उसको
विही बात बार-बार बताई वि ितनसखाई जाती है; और, इस प्रकार ितननरन्तर उपदर्ेशन से, कालान्तर में, विह
यथःाथःर्श तत्त्वि को जान लेता है । यही बात अध्यात्मिदर्शना में चलने विाले ितनजज्ञासुर् के ितनलए लागू होती
है ॥4/3॥
ितनपतापुर्त्रविदर्ुर्भयोदर्ृत्तर्शष्टित्विात् ॥4/4॥
दर्ोनों के दर्ेखे जाने से ितनपता और पुर्त्र के समान ॥4/4॥
●
तत्त्विज्ञान के उपदर्ेशन के ितनलए उपदर्ेष्टिा गुर्रु का ही होना आविश्यक नहीं, विह सुर्हृदर्् आिदर् के द्वारा भी प्राप्त
िकया जासकता है । इसी अितनभप्राय से सूत्रकार कहता है िक उपदर्ेष्टिा और उपदर्ेश्य दर्ोनों के ितनविषष्टय में
कभी यह दर्ेखा जाता है िक उनमें व्यक्तविितनस्थःत वि ितननयितनमत गुर्रु-ितनशनष्य भावि नहीं होता; िफिर भी, उनमें
यथःाथःर्श तत्त्वि का आदर्ान-प्रदर्ान होता है, ितनजससे आविश्यक फिल की प्राितनप्त होती है, ितनपता-पुर्त्र के समान ।
●
इस ितनविषष्टय में यह आख्याितनयका ितननम्नलितनलितनखत रूप में विणर्शन की जाती है --
– िकसी समय एक अत्यन्त ितननधर्शन ब्राह्मण अपनी पत्नी को गभर्शविती जानकर धनसंग्रह के ितनलए
परदर्ेशन को चला गया । बहुत िदर्नों बादर् जब विापस हुआ तो अपने ग्राम में पहुंचने से पहले ही,
राितनत्र आजाने के कारण, िकसी नगर की धमर्शशनाला में उसे राितनत्र व्यक्ततीत करने के ितनलए ठहरना
पड़ा ।
– धमर्शशनाला में उसके साथः के कमरे में ही अपनी माता के साथः एक रोगी िकशनोर बालक ठहरा हुआ
थःा जो रोग के कारण रातभर रोता-ितनचल्लाता रहा । उसके क्रन्दर्न से पितनथःक ब्राह्मण को बार-बार
क्रोध आता रहा और विह उसे बुर्रा-भला कहता रहा िक 'यह कहाँ से दर्ुर्ष्टि आ मरा, यात्रा से श्रान्त
मुर्झको शनाितनन्त से सोने भी नहीं दर्ेता' । दर्ो-चार बार उसने अपने स्थःान से ही धमकाया-सुर्नाया
भी । बालक ने भी यह सुर्नकर अपनी माता से कहा िक ' यह बेकार क्यों िकड़-िकड़ कर रहा है ।
हमें तो कष्टि में है, यह क्यों नहीं िकसी और जगह चला जाता' ।
ितनपतापुर्त्रवित् ... ( जारी - 1 )॥ 4/4॥
– जैसे-तैसे रात बीती और प्रभात हुआ । प्रातःकाल प्रकाशन में बालक की माता ने अपने भतार्श पितनथःक
ब्राह्मण को पितनहचाना और उसे बुर्ला कर कहा िक ' यह जो रात भर रोता-ितनचल्लाता रहा है,
आपका पुर्त्र है' । और पुर्त्र से कहा िक ' रात तुर्म ितनजनके ितनलए चले जाने की भाविना कर रहे थःे, विे
तुर्म्हारे ितनपता है' ।
– उसके उपदर्ेशन से ितनपता-पुर्त्र दर्ोनों ने विास्तितनविक ितनस्थःितनत को समझा । उनके एक-दर्ूसरे के प्रितनत
अन्यथःा भावि नष्टि हो गए; और, विास्तितनविक अनुर्कूल भाविना जागृत्तत हो गई ।
●
अध्यात्म ितनविषष्टय में भी इसीप्रकार कभी गुर्रु के ितनविना अन्य सुर्हृदर्् आिदर् के कथःनमात्र से तत्त्विज्ञान
होजाता है ।
●
लोक में ऐसे अनेक उदर्ाहरण दर्ेखे जासकते है । प्रत्येक काल में इसप्रकार की घटटना सामने आती रहती
है । सूत्रकार के सामने इसप्रकार के कौन से उदर्ाहरण होंगे--यह जानने के ितनलए आज हमारे पास कोई
स्पष्टि संकेत नहीं है । पर अनन्तर काल की अनेक घटटनाओं को हम जानते है ।
ितनपतापुर्त्रवित् ... ( जारी - 2 )॥ 4/4॥
●
पाितनणितनन, काितनलदर्ास और तुर्लसीदर्ास के दर्ृत्तष्टिान्त हमारे सामने है ।
– कहा जाता है िक पाितनणितनन पहले बहुत जड़मितनत थःे । एक विार दर्याद्र्शितनचत्ति होकर माता ने उन्हें
समझाया; तब, घटोर तपस्या में लीन होकर उन्होंने शनब्दर् तत्त्वि का साक्षिात्कार कर ितनलया ।
– काितनलदर्ास अपनी पत्नी से ितननरादर्ृत्तत होकर ितननकले और उस भाविना से प्रेिरत होकर अितनद्वतीय कितनवि
बनकर घटर आये ।
– तुर्लसीदर्ास अपनी पत्नी के गम्भीर यथःाथःर्श विाक्यों को सुर्नकर, तीव्र विैराग्य से ओत-प्रोत हो,
भगविान की भितनक्ति में लीन होगए |
●
इस सूत्र का व्यक्ताख्यान ितननम्नलितनलितनखत रूप में भी िकया जाता है--
– ितनपता पुर्त्र को अपने सामने उत्पन्न होते हुए दर्ेखता है; और, पुर्त्र ितनपता को अपने सामने मरते हुए
दर्ेखता है । ितनपता और पुर्त्र के समान जन्म और मरण-- दर्ोनों के दर्ेखे जाने से, द्ष्टिा को संसार के
प्रितनत विैराग्य की भाविना जागृत्तत होती है । विैराग्य से ितनविविेक होजाता है ।
●
इसप्रकार ितनपता-पुर्त्र के मृत्तत्युर्-जन्म, द्ष्टिा में विैराग्य आिदर् को जागृत्तत करके तत्त्विज्ञान के प्रादर्ुर्भार्शवि में
सहायक होते है ॥4/4॥
श्येनवित्सुर्खदर्ुर्ःखी त्यागितनवियोगाभ्याम् ॥4/5॥
त्याग और ितनवियोग से सुर्खी और दर्ुर्ःखी होता है, श्येन के समान ॥4/5॥
●
ज्ञान की ितननष्पितनत्ति में त्याग की भाविना अत्यन्त आविश्यक है । विैराग्य होजाने पर भी त्याग-भाविना को
दर्ृत्तढ़ बनाना चाितनहए । इसी आशनय को लेकर सूत्रकार अगले तीन सूत्रों से ज्ञान-सम्पादर्न में त्याग की
आविश्यकता को स्पष्टि करता है--
●
अनाविश्यक विस्तुर्ओं का संग्रह सदर्ा दर्ुर्खदर् होता है । इसितनलए आत्मितनजज्ञासुर् को पिरग्रह से सदर्ा बचना
चाितनहए । विस्तुर् को स्वियं त्याग दर्ेना सुर्ख की ितनस्थःितनत को उत्पन्न करता है । इसके ितनविपरीत, यिदर् िकसी का
बलात् विस्तुर् से ितनवियोग करा िदर्या जाए तो उसके ितनलए विह दर्ुर्ःखदर्ायी होजाता है । अपनी ितनस्थःितनत को
अनुर्कूल बनाए रखने के ितनलए अध्यात्ममागी के ितनलए यह आविश्यक है िक विह अपनी त्यागभाविना को
सदर्ा जागृत्तत रक्खे ।
●
त्याग और ितनवियोग में यथःाक्रम सुर्ख और दर्ुर्ःख की ितनस्थःितनत को समझाने के ितनलए श्येंन का दर्ृत्तष्टिान्त िदर्या
जाता है । श्येन एक पक्षिी है ितनजसे लोकभाषष्टा में बाज़ कहते है । इस ितनविषष्टय की आख्याितनयका
ितननम्नलितनलितनखत रूप में कही जाती है --
– एक व्यक्तितनक्ति कभी मृत्तगया ( ितनशनकार ) के ितनलए जंगल में गया । विहाँ उसे एक श्येनशनाविक ( बाज़ का
बच्चा ) असहाय अविस्थःा में पड़ा िदर्खा । दर्याद्र्शितनचत्ति होकर उसने विह उठा ितनलया और घटर ले
आया । दर्ाना-पानी दर्ेकर उसे पाला-पोसा । जब विह समथःर्श हो गया, तो उस व्यक्तितनक्ति ने यह
सोचकर िक 'मै इसे अब बन्धन में क्यों रखूँ' , उसे जंगल में ले जाकर छोड़ िदर्या । विह श्येन अब
बन्धन से छूट जाने के कारण सुर्खी है; पर, पालक-पोषष्टक व्यक्तितनक्ति के साथः ितनवियोग होजाने के कारन
दर्ुर्ःखी है ।
श्येनवित् ... ( जारी - 1 ) ॥4/5॥
●
संसार में सुर्ख सदर्ा दर्ुर्ःख से ितनमितनश्रत रहता है; इसितनलए, दर्ुर्ःख के समान सुर्ख को भी हेय पक्षि में डालना
चाितनहए । अभी तक संसार में िकसी ऐसे साधन का ितननमार्शण नहीं हो पाया; और अतीत को दर्ेखते हुए
भितनविष्यत् में भी ऐसे ितननमार्शण की सम्भाविना नहीं है, ितनजससे केविल सुर्ख का आदर्ान कर ितनलया जाय और
दर्ुर्ःख को छांट कर अलग फिें क िदर्या जाय । दर्ुर्ःख को ितननतान्त दर्ूर करने का एकमात्र साधन यही है िक,
सुर्ख वि दर्ुर्ःख-- दर्ोनों का ही त्याग कर िदर्या जाय । ऐसे त्याग में विास्तितनविक शनाितनन्त का लाभ ितननितनहत है,
जो आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त होजाती है ।
●
इस दर्ृत्तष्टिान्त की व्यक्ताख्या एक अन्य प्रकार से भी की जाती है--
– श्येन के पास चोंच में दर्बा जब कोई खाद्य पदर्ाथःर्श रहता है, तो दर्ूसरे बलविान पक्षिी, ितनजनके पास
विह खाद्य नहीं है, उसपर टूट पड़ते है; और, बलपूविर्शक उससे छीन लेते है। इसप्रकार खाद्य ितनछन
जाने से श्येन दर्ुर्ःखी होता है; और, संघटषष्टर्श में जो चोट खाता है विह और भी दर्ुर्ःख का कारण बनती
है । यिदर् विह अपनी इच्छा से ही खाद्य पदर्ाथःर्श का त्याग कर दर्ेता तो विह इन सब दर्ुर्ःख कारणों से
बच जाता । खाद्य पदर्ाथःर्श का श्येन की चोंच में पकड़ा हुआ रहना यह प्रकट करता है िक अब उसे
खाद्य के उपभोग की आविश्यकता नहीं है-- विह रजा हुआ है ।
●
यह ितनस्थःितनत विस्तुर् के पिरग्रह की ओर संकेत करती है । इससे यह प्रकट िकया गया है िक लोक में पिरग्रह
दर्ुर्ःख वि अशनाितनन्त का मूल है; इसके ितनविपरीत, अपिरग्रह ( त्याग ) सुर्ख वि शनांितनत का ॥4/5॥
अहिहिनिनिर्ल्वयिनर्ल्वयियिनिर्ीवयिनत् ॥4/6॥
सांप की कैंचुली के समानिर् ॥4/6॥
●
त्यिाग के िलए सूत्रकार निर्े एक अहन्यि उदाहिनरण प्रस्तुत िकयिा हिनै--
– िजिसप्रकार सांप अहपनिर्े ऊपर आवयिनृत पुरानिर्ी त्वयिनचा [ कैंचुली ] को हिनेयि समझकर अहनिर्ायिास छोड़ देता
हिनै और उसमें िफिर आदानिर्बुिद्धि निर्हिनीं करता; इसीप्रकार, मोक्ष की इच्छा रखनिर्ेवयिनाला व्यक्तिक्ति
िचरकाल से भोगी हुई प्रकृित को हिनेयि समझकर त्यिाग देनिर्े की दृढ़ भावयिननिर्ा बनिर्ावयिने, और ज्ञानिर्मागर्ल्वय
को प्रशस्त करे ।
●
इस दृष्टान्त को कितपयि व्यक्ताख्यिाकारों निर्े अहन्यिरूप से प्रस्तुत िकयिा हिनै--
– सांप अहपनिर्ी कैंचुली को िबल के द्वार पर यिा आसपास छोड़ देता हिनै; पर, उसका मोहिन उसमें बनिर्ा
रहिनता हिनै । वयिनहिन उसको मट्टी धूल में पड़े हुए देखकर अहनिर्ुतप्त हिनोता रहिनता हिनै : उसके सामीप्यि को
छोड़निर्ा निर्हिनीं चाहिनता । कैंचुली को देखकर कोई संपेरा सांप की ताक में रहिनता हिनै, और अहवयिनसर
पाकर उसे पकड़ लेता हिनै । सांप बन्धनिर् में पड़ जिाता हिनै ।
●
इसी प्रकार जिो व्यक्तिक्ति ममतावयिनश िवयिनषयिों में स्नेहिन करता हिनै, वयिनहिन बन्धनिर्ों में पड़ अहनिर्थों का पात्र हिनोजिाता
हिनै । अहतएवयिन िवयिनषयिों में वयिनैराग्यि और त्यिाग की भावयिननिर्ा को दृढ़ बनिर्ानिर्ा चािहिनए ॥4/6॥
िछन्नहिनस्तवयिनद्वा ॥4/7॥
अहथवयिना कटे हिनाथवयिनाले के समानिर् ॥4/7॥
●
अहध्यिात्मिदशा में चलनिर्ेवयिनाले व्यक्तिक्ति को कभी कोई अहकायिर्ल्वय निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए । यििद प्रमाद से कुछ
अहकायिर्ल्वय हिनो जिाए, तो उसका तत्काल प्रतीकार यिा प्रायििश्चित्त करनिर्ा चािहिनए । सूत्रकार निर्े इसके िलए
दृष्टान्त िदयिा --
– पुराकाल में शंख और िलिखत निर्ाम के दो भाई अहपनिर्े-अहपनिर्े आश्रमों में िनिर्वयिनास करते थे । एक वयिनार
छोटा भाई अहपनिर्े बड़े भाई शंख के आश्रम में गयिा । पर आश्रम सूनिर्ा था: कायिर्ल्वयवयिनश शंख कहिनीं बाहिनर
गयिे हुए थे । िलिखत निर्े वयिनृक्षों पर पके फिल लगे हुए देखे और गधार्ल्वयवयिनश उन्हिनें खा गयिा । शंख निर्े
वयिनापस आकर भाई से फिलों के िवयिनषयि में पूछा तो उसनिर्े बतायिा िक फिल उसनिर्े खा िलए थे । बड़े
भाई निर्े कहिना, ' यिहिन तुम्हिनारा कायिर्ल्वय चोरी के अहन्तगर्ल्वयत आता हिनै । तुम्हिनें तत्काल इसका प्रतीकार करनिर्ा
चािहिनए, अहन्यिथा तुम्हिनारे तपस्यिा कमर्ल्वय में हिनीनिर्ता आजिाएगी; और, आगे तुम्हिनारा अहिधक पतनिर् हिनोनिर्े
की सम्भावयिननिर्ा हिनो सकती हिनै ।'
– िलिखत निर्े राजिा के पास जिाकर अहपनिर्ा अहपराध कहिना और दण्द देनिर्े के िलए िनिर्वयिनेदनिर् िकयिा । उसे
हिनस्तच्छेद का दण्द िदयिा गयिा ।
●
अहिभप्रायि यिहिन हिनै िक कोई भी अहकायिर्ल्वय करनिर्े से व्यक्तिक्ति सन्मागर्ल्वय से भ्रष्ट हिनोजिाता हिनै। उन्मागर्ल्वय-गामी व्यक्तिक्ति
कभी आत्मज्ञानिर्ी निर्हिनीं हिनोसकता । इसिलए अहध्यिात्ममागर्ल्वय पर चलनिर्े वयिनाले व्यक्तिक्ति को अहकायिर्ल्वय के पिरत्यिाग
में सदा सचेत रहिननिर्ा चािहिनए ।
िछन्नहिनस्तवयिनत् ... ( जिारी - 1 ) ॥4/7॥
●
पञ्चम सूत्र की अहवयिनतरिणका में इस प्रकरण द्वारा त्यिाग के महिनत्त्वयिन का िनिर्देश िकयिा गयिा हिनै । उस दृिष्ट से
प्रस्तुत सूत्र का अहथर्ल्वय यिहिन भी िकयिी जिाता हिनै िक कटे हुए हिनाथ को जिैसे कोई व्यक्तिक्ति िफिर निर्हिनीं लेनिर्ा
चाहिनता; इसीप्रकार, पिरत्यिक्ति िवयिनषयिों की ओर मुमुक्षु को कभी निर्हिनीं मुड़निर्ा चािहिनए ।
●
िवयिनषयिों के पिरत्यिाग में 'िछन्नहिनस्त' दृष्टान्त बड़ा भावयिनपूणर्ल्वय हिनै । महिनाभारत के शंख-िलिखत प्रसंग में आता
हिनै िक िलिखत का हिनाथ पुनिर्ः जिोड़ िदयिा गयिा था । िकयिे गयिे अहकायिर्ल्वय के पिरणामरूप हिनस्तच्छेद का कष्ट
अहनिर्ुभवयिन कराकर, अहन्यि सुकायिों में बाधा निर् हिनो, इसिलए हिनाथ को पुनिर्ः जिोड़ िदयिा गयिा । इससे िवयिनषयिों
में आसिक्ति को छोड़कर आवयिनश्यिक कत्तर्ल्वयव्यक्त कमों के अहनिर्ुष्ठानिर् की प्रवयिनृित्त ध्वयिनिनिर्त हिनोती हिनै । आत्मज्ञानिर्ी को
भी लोकोपकारी कायिों से िवयिनरत निर्हिनीं हिनोनिर्ा चािहिनए । आसिक्ति का पिरत्यिाग हिनी मुख्यिरूप से अहपेिक्षत
हिनै । इसके अहितिरक्ति िछन्नहिनस्त का पुनिर्ः जिोड़ा जिानिर्ा उस समयि की उन्नत शल्यििक्रियिा का स्पष्ट प्रमाण
हिनै ॥4/7॥
अहसाधनिर्ानिर्ुिच न्तनिर्ं बन्धायि भरतवयिनत् ॥4/8॥
अहसाधनिर् का बार-बार िचन्तनिर् बन्धनिर् के िलए हिनोता हिनै,
भरत के समानिर् ॥4/8॥
●
आत्मज्ञानिर् के मागर्ल्वय पर चलनिर्े वयिनाले व्यक्तिक्ति को, ज्ञानिर् के अहन्तरंग साधनिर्ों के अहितरेक्ति, अहन्यि िवयिनषयिों का
िचतनिर् निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए; क्यिोंिक, ऐसा िचन्तनिर् यिोगी की प्रवयिनृित्त को संसार की ओर बढ़ानिर्ेवयिनाला
हिनोजिाता हिनै । सूत्रकार इस अहथर्ल्वय को स्पष्ट करते हुए कहिनता हिनै --
●
आत्मज्ञानिर् के जिो साधनिर् निर्हिनीं हिनैं, उनिर्का पुनिर्ः-पुनिर्ः िचन्तनिर् करनिर्ा िवयिनषयिों की ओर प्रवयिनृित्त का साधनिर् बनिर्
जिाता हिनै । भरत के समानिर्--जिैसे िक यिोगी भरत को दीनिर् अहनिर्ाथ हिनिरण शावयिनक का पोषण-पालनिर् एवयिनं
प्रितक्षण तिद्वषयिक हिनी िचन्तनिर् पुनिर्ः बन्धनिर् में पड़ जिानिर्े का कारण बनिर् गयिा ।
●
पुराणों में कथा इस प्रकार हिनै --
– सतयिुग में भरत निर्ाम का राजििष आत्मज्ञानिर्ी हिनो गयिा था और वयिनहिन जिीवयिनन्मुक्ति था । एक वयिनार जिंगल में
उसनिर्े देखा िक एक हिनिरणी बच्चा जिनिर्निर्े के अहनिर्न्तर मरणासन्न हिनै और इसके साथ वयिनहिन अहनिर्ाथ बच्चा
भी समाप्त हिनो जिाएगा । उसके मिस्तष्क में तीव्र करुणा का भावयिन उत्पन्न हिनो गयिा और वयिनहिन उस बच्चे
का पालनिर्-पोषण करनिर्े लग गयिा ।
– धीरे-धीरे वयिनहिन उसमें इतनिर्ा आसक्ति हिनो गयिा िक वयिनहिन उसी के पीछे-पीछे िफिरता रहिनता, िखलाता,
िपलाता और उसकी इच्छाओं एवयिनं िक्रियिाओं के अहनिर्ुसार अहपनिर्ा व्यक्तवयिनहिनार रखता ।
– मृत्यिु समयि में वयिनहिन उसी का ध्यिानिर् करता हुआ प्राण छोड़ गयिा । मुक्ति निर् हिनोकर तीव्र वयिनासनिर्ाओं से
अहिवयिनभूत हिनो उसनिर्े हिनिरण देहिन में जिन्म िलयिा । इसप्रकार उसे िफिर बन्धनिर् में आनिर्ा पड़ा ।
●
िनिर्ष्कषर्ल्वय यिहिन हिनै िक यिोगमागी को, अहच्छे भी कायिों का-- यििद वयिने यिोगसमािध यिा आत्मज्ञानिर् के साधनिर्भूत
निर्हिनीं हिनैं तो-- िचन्तनिर् निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए ॥4/8॥
बहुिभयिोगे िवयिनरोधो रागािदिभः कुमारीशङ्खवयिनत् ॥4/9॥
बहुतों के साथ सम्पकर्ल्वय में राग द्वेष आिद के द्वारा संघर्षर्ल्वय हिनोजिाता हिनै,
कुमारीशंख के समानिर् ॥4/9॥
●
यिोगी को एकान्त में रहिननिर्ा चािहिनए । अहिधक समुदायि में रहिननिर्े से यिोगिवयिनरोधी भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोती रहिनती
हिनैं जिो यिोगमागर्ल्वय में बाधक हिनोजिाती हिनैं।
●
इसको स्पष्ट करते हुए सूत्रकार निर्े कहिना िक
– बहुत व्यक्तिक्तियिों के साथ संगत में रहिननिर्े से राग-द्वेष, संघर्षर्ल्वय, कलहिन आिद के कारण यिोगिवयिनरोधी िस्थित
अहथवयिना पारस्पिरक िवयिनरोध की भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोजिाती हिनै । यिोगमागर्ल्वय पर चलनिर्े के िलए
रागद्वेषािदरिहिनत परमवयिनैराग्यिपूणर्ल्वय िजिस िस्थित की आवयिनश्यिकता हिनै, वयिनहिन संगत में निर्हिनीं रहिनपाती ।
– अहनिर्ेक िवयिनचार और प्रवयिनृित्तयिों के बीच राग-द्वेषािद की भावयिननिर्ा जिागृत हिनोजिाती हिनै; िफिर, साधारण
संसारी और उसकी िस्थित में कोई अहन्तर निर्हिनीं रहिनता । एकान्तिनिर्वयिनास की अहवयिनस्था में इसप्रकार
की िस्थित उत्पन्न हिनोनिर्े के अहत्यिल्प अहवयिनसर आते हिनैं ।
●
सूत्रकार निर्े इसके िलए कुमारीशंख का दृष्टान्त िदयिा हिनै । शंख का तात्पयिर्ल्वय शख से बनिर्ी चूिड़यिों का हिनै ।
िजिसप्रकार एक कुमारी-बाला के हिनाथ में पहिननिर्ी हुई बहुत सी शंख की चूिड़यिां आपस में खड़खड़ाती यिा
झनिर्झनिर्ाती रहिनती हिनैं; इसीप्रकार, इकट्ठे संगत में रहिनते व्यक्तिक्तियिों का परस्पर संघर्षर्ल्वय रहिननिर्ा स्वयिनाभािवयिनक हिनै।
यिहिन अहवयिनस्था आत्मज्ञानिर् के िलए बाधक हिनोती हिनै, इसिलए आत्म-िजिज्ञासु को संगत से सदा बचनिर्ा
चािहिनए ॥4/9॥
द्वाभ्यिामिप तथैवयिन ॥4/10॥
दो के साथ ( सम्पकर्ल्वय में ) भी उसी प्रकार ( िवयिनरोध की सम्भावयिननिर्ा रहिनती हिनै ) ॥4/10॥
●
अहनिर्ेकों की संगत जिैसे यिोगमागर्ल्वय में बाधक हिनै, इसीप्रकार दो का एकत्र रहिननिर्ा भी बाधक हिनोता हिनै ।
सूत्रकार निर्े बतायिा --
●
अहनिर्ेकों के समानिर् दो के इकट्ठा रहिननिर्े पर भी यिोगिवयिनरोधी भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोनिर्े की सम्भावयिननिर्ा बनिर्ी रहिनती
हिनै । दो के एकसाथ रहिननिर्े में यििद उतनिर्ी अहिधक रागद्वेष, कोलाहिनल आिद उत्पन्न हिनोनिर्े की सम्भावयिननिर्ा निर्
भी रहिने; तो भी, आपसी बातचीत आिद में समयि व्यक्तथर्ल्वय निर्ष्ट हिनोनिर्े का भयि तो रहिनता हिनी हिनै । इसिलए
आत्मिजिज्ञासु के िलए एकान्त सेवयिननिर् आवयिनश्यिक हिनै।
●
सूत्र के तथैवयिन पद का सम्बन्ध पूवयिनर्ल्वयसूत्रोक्ति दृष्टान्त के साथ भी हिनै । जिैसे कुमारी के हिनाथ में अहनिर्ेक अहथवयिना दो
कंकण आपस में टकरानिर्े से झनिर्झनिर्ाते रहिनते हिनैं; इसिलए यििद एक हिनाथ में केवयिनल एक हिनी कंकण पहिननिर्ा हिनो
तो वयिनहिन सदा ध्वयिनिनिर्रिहिनत और शान्त रहिनेगा ।
●
यिोगी को भी एकान्त में शान्तिचत्त रहिननिर्े का यित्न करनिर्ा चािहिनए ॥4/10॥
िनिर्राशः सुखी िपङ्गलावयिनत् ॥4/11॥
आशा रिहिनत सुख पाता हिनै िपङ्गला के समानिर् ॥4/11॥
●
यिोगी आशाओं के जिाल से सदा बचा रहिने: इसके तानिर्े-बानिर्े में फिं सकर िचत्त का शान्त रहिननिर्ा सम्भवयिन
निर्हिनीं । इसीिलए सूत्रकार निर्े कहिना िक िमथ्यिा आशाओं को छोड़कर सन्तोष और धैयिर्ल्वय के साथ रहिननिर्ेवयिनाला
व्यक्तिक्ति सुखी रहिनता हिनै । यिोगी को आशाओं का सदा पिरत्यिाग करनिर्ा चािहिनए । आशाजिाल यिोगमागर्ल्वय का
परम शत्रु हिनै ।
●
यिोगमागर्ल्वय पर चलनिर्े के िलए तीव्र वयिनैराग्यि का हिनोनिर्ा अहत्यिन्त आवयिनश्यिक हिनै । वयिनैराग्यि और कोई बला निर्हिनीं,
केवयिनल इतनिर्ा हिनै- ' सांसािरक झंझटों का सवयिनर्ल्वयथा पिरत्यिाग' ।
●
संसार और यिोग यिा आत्मज्ञानिर्, यिे दोनिर्ों िवयिनरोधी मागर्ल्वय हिनैं । इनिर्में से िकसी एक को चुनिर्निर्ा हिनै ।
– यििद आपनिर्े संसार को चुनिर्ा हिनै तो वयिनहिनाँ आशाओं का जिाल िबछा पड़ा हिनै । उसमें फिं िसए और लगाइए
चक्कर जिन्म-मरण के घर्ेरे में ।
– यििद आप आत्मज्ञानिर् की ओर पग बढ़ा रहिने हिनैं तो छोिड़ए आशाओं का सहिनारा । आशाओं का सवयिनर्ल्वयथा
वयिनैराग्यि हिनी तो उत्कट वयिनैराग्यि हिनै । यििद आप इस अहवयिनस्था में आगए हिनैं तो समझ लीिजिए आपका
यिोगमागर्ल्वय िनिर्ष्कण्टक हिनै । चलते जिाइयिे, अहनिर्न्त सुख आपके सम्मुख हिनै ।
... िपङ्गलावयिनत् ( जिारी - 1) ॥4/ 11॥
●
साधारण संसारी पुरुष भी जिब आशा के कटु घर्ूंट को छोड़ देता हिनै तो वयिनहिन भी सन्तोष वयिन शािन्त के
माधुयिर्ल्वय का अहनिर्ुभवयिन करता हिनै । िफिर आशािपशाची का समूल उच्छेद कर देनिर्े वयिनाले यिोगी का तो कहिननिर्ा
हिनी क्यिा ? सूत्रकार निर्े इस अहथर्ल्वय को स्पष्ट करनिर्े के िलए िपङ्गला का दृष्टान्त िदयिा हिनै --
– िकसी अहित प्राचीनिर् काल में िपङ्गला निर्ाम की एक वयिनेश्यिा थी । वयिनहिन अहपनिर्े प्रणयिी की प्रतीक्षा में
कभी रात-रातभर बैठी रहिनती । वयिनहिन इस आशा में रहिनती िक वयिनहिन अहब आयिा और अहब आयिा और
इसी आशा में उसकी रात आँखों में कट जिाती । प्रणयिी के निर् आनिर्े पर वयिनहिन अहत्यिन्त दुःख का अहनिर्ुभवयिन
करती ।
– जिब कई वयिनार उसके साथ ऐसा हुआ, तो उसके हृदयि में एक खेद की भावयिननिर्ा उदयि हुई । वयिनहिन सोचनिर्े
लगी, 'मैं जिो कुछ करती हूँ, वयिनहिन ठीक निर्हिनीं हिनै । मुझे इस कायिर्ल्वय से िवयिनरत हिनोनिर्ा चािहिनए ।' यिहिन
भावयिननिर्ा उसकी दृढ़ हिनोती चली गई और उस आशा की जिड़ उखड़ गई िजिसके कारण उसकी सारी
रात पलकों में जिाती और, पिरणामतः, भारी दुःख उठाती थी । अहब वयिनहिन शान्तिचत्त हिनोकर
रातभर आराम से सोती हिनै ।
●
यिोगी को आशाओं का पिरत्यिाग कर दृढ़ वयिनैराग्यि के साथ यिोगमागर्ल्वय पर अहिभयिानिर् करनिर्ा चािहिनए ।
आशाओं से भरे हुए सन्तोषिवयिनहिनीनिर् िवयिनकृत िचत्त में ज्ञानिर् का उदयि ऐसे हिनी निर्हिनीं हिनोता जिैसे मिलनिर् आदशर्ल्वय
में मुख का प्रितिबम्ब निर्हिनीं उभरता ॥4/11॥
अहनिर्ारम्भे अहिप परगृहिने सुखी सपर्ल्वयवयिनत् ॥4/12॥
आरम्भ--िनिर्मार्ल्वयण निर् करनिर्े पर भी अहन्यि के घर्र में सुख पाता हिनै,
सपर्ल्वय के समानिर् ॥4/12॥
●
यिोगी को िवयिनिवयिनध प्रवयिनृित्तयिों से सदा बचनिर्ा चािहिनए; क्यिोंिक, भोगों के िलए हिनोनिर्े वयिनाली प्रवयिनृित्तयिाँ
यिोगमागर्ल्वय में बाधक बनिर् जिाती हिनैं । सूत्रकार निर्े इसे दृष्टान्त देकर बतायिा हिनै --
●
आरम्भ यिा प्रवयिनृित्त से अहिभप्रायि हिनै-- संन्यिासी यिा आत्मिजिज्ञासु हिनोकर मकानिर् अहथवयिना मठों के खड़ा करनिर्े
में लग जिानिर्ा । इसप्रकार की प्रवयिनृित्त संन्यिासी को संसारी के स्थानिर् पर ला पटकती हिनै । उस संन्यिासी
और संसारी में कोई अहन्तर निर्हिनीं रहिनता, जिो मकानिर् और मठों के रूप में केवयिनल ईंट-पत्थरों का ढेर करनिर्े में
लगा रहिनता हिनै ।
●
िनिर्वयिनास के िलए स्थानिर् बनिर्ानिर्े का बहिनानिर्ा बहुत लचर हिनै । आत्मिजिज्ञासु के िलए कोई भी एक स्थानिर्
िनिर्वयिनास का िनिर्िश्चित करनिर्ा उसमें मोहिन का उत्पादक बनिर् जिाता हिनै । जिब िनिर्वयिनास-स्थानिर् में मेरा-तेरा हिनोनिर्े
लगा, तब यिहिन मेरा-तेरा आत्मज्ञानिर् पर निर्हिनीं चलनिर्े देगा । यिहिन रास्ता तो साधारण संसारी का हिनै,
संन्यिासी यिा आत्मिजिज्ञासु का निर्हिनीं । आरम्भ यिा इसप्रकार की प्रवयिनृित्तयिों से सदा पृथक् रहिनकर उसे तो
जिहिनाँ स्थानिर् िमले, वयिनहिनीं िनिर्वयिनास कर देनिर्ा चािहिनए । उसमें यिहिनी समझकर िनिर्वयिनास करे िक यिहिन मेरा घर्र
निर्हिनीं हिनै । इसप्रकार एक हिनी स्थानिर् में ममता बुिद्धि को पैदा निर् हिनोनिर्े दे ।
●
जिैसे साँप अहपनिर्े िलए िनिर्वयिनास का कोई स्थानिर् निर्हिनीं बनिर्ाता, घर्ूमता-िफिरता रहिनता हिनै । जिहिनाँ पर अहवयिनसर
पाता हिनै, परिनिर्िमत स्थानिर् में अहपनिर्ा िनिर्यित समयि िनिर्काल लेता हिनै । इस अहथर्ल्वय में सपर्ल्वय के दृष्टान्त का
संकेत महिनाभारत शािन्तपवयिनर्ल्वय में हिनै ॥4/12॥
●
शास्त्रों और गुरुओं से सारभूत अहथर्ल्वय का ग्रहिनण करे । जिो अहनिर्ुपयिोगी हिनो, उसके आदानिर् में व्यक्तथर्ल्वय समयि निर्ष्ट
निर् करे । इस आशयि को सूत्रकार निर्े अहगले सूत्र में कहिना हिनै ।
बहुशास्त्रेगुरूपासनिर्े अहिप सारादानिर्ं षट्पदवयिनत् ॥4/13॥
बहुत शास्त्र और गुरुओं की उपासनिर्ा में भी सार का ग्रहिनण ( ठीक हिनै ) ,
भौंरे के समानिर् ॥4/13॥
●
अहिधक शास्त्र-अहध्यियिनिर् और गुरुओं की सेवयिना में रहिनकर भी सारभूत अहथर्ल्वय का आदानिर् कर लेनिर्ा चािहिनए ।
गुरुओं के समीप जिो शम-दम आिद समािध के िलए सम्पित्त हिनै, उसका ग्रहिनण कर लेनिर्ा चािहिनए । जिो
कभी उनिर्में राग-द्वेष आिद िवयिनकार देखनिर्े में आते हिनैं, आत्म-िजिज्ञासु सदा उनिर्की उपेक्षा करे : उसे गुरु का
आचरण समझकर कभी अहपनिर्े जिीवयिननिर् में अहनिर्ुकरण निर् करे ।
●
अहभ्यिासी आचायिों निर्े बतायिा हिनै --
स्वयिनाध्यिायिाद्योगमासीत यिोगात्स्वयिनाध्यिायिमामनिर्ेत् ।
स्वयिनाध्यिायियिोगसम्पत्यिा परमात्मा प्रकाशते ॥
जिब समािध-अहभ्यिास से समयि बचे, तब अहध्यिात्मिवयिनषयिक शास्त्रों का मनिर्निर् करता रहिने;
और जिब शास्त्र-िवयिनवयिनेचनिर् से श्रान्त हिनो जिावयिने, तब िफिर समािध-अहभ्यिास में लग जिावयिने ।
इसप्रकार स्वयिनाध्यिायि और यिोग के िनिर्रन्तर अहभ्यिास से आत्मज्ञानिर् हिनो जिाता हिनै ।
●
अहिभप्रायि यिहिन हिनै िक अहभ्यिासी को अहध्यिात्मशास्त्रों का उतनिर्ा उपयिोग करनिर्ा चािहिनए जिो समािधलाभ में
सहिनायिक हिनो । संवयिनाद आिद में दूसरे पर िवयिनजियि प्राप्त करनिर्े के िलए शास्त्र का मनिर्निर् निर् केवयिनल आत्मज्ञानिर्ी
के िलए सवयिनर्ल्वयथा व्यक्तथर्ल्वय हिनै, अहिपतु यिोगमागर्ल्वय में बाधक भी हिनै;
●
आत्मज्ञानिर्ी शास्त्र और गुरुओं से सारभूत उपयिोगी अहथर्ल्वय को ग्रहिनण करनिर्े में प्रयित्नशील रहिने; वयिनैसे हिनी जिैसे,
षट्पद अहथार्ल्वयत् भ्रमर फिू लों से सारभूत रस लेलेता हिनै और अहनिर्ुपयिोगी भाग को छोड़ देता हिनै ।
●
जिो व्यक्तिक्ति प्रत्यिेक अहनिर्ुपयिोगी अहथर्ल्वय को भी जिानिर्निर्े के पीछे पड़ा रहिनता हिनै, और हिनड़बड़ायिा-सा हिनरएक वयिनस्तु
को ग्रहिनण करनिर्े का यित्न करता हिनै, वयिनहिन अहनिर्न्तकाल तक भी आत्मज्ञानिर् का लाभ निर्हिनीं कर सकता ॥4/13॥
इषुकारवन्नैकिचित्तस्य समािधिहािनि ॥4/14॥
बाण के िनिमार्माता अथवा सन्धिाता के समानि एकाग्रचिचित्त पुरुष की
समािधि की हािनि निहीं ॥4/14॥
●
एकाग्रचिचित्त व्यक्तिक्ति की समािधि में कोई बाधिा निहीं होती, इषुकार के समानि । इषु बाण या शर को कहते
हैं । वस्तुतः सूत्र में यह पद दत्तिचित्त होकर बनिाये जानिे वाले िकसी भी अस-शस या िनिमार्माण का
बोधिक है । कोई िशल्पी अथवा कायर्माकतार्मा जब ध्यानिपूवर्माक अपनिे िनिमार्माण या अपेिक्षित कायर्मा में संलग्न
रहता है, तो उसे समीप में होनिे वाली अन्य प्रवृत्तित्तयों अथवा िक्रियाओं का पता निहीं लगता । इसी
प्रकार जो आत्मिजज्ञासु एकाग्रचिचित्त होकर अभ्यास में लगा रहता है, उसके सामनिे कोई बाधिा निहीं
आती ।
●
इषुकार का अथर्मा इषुसन्धिाता भी िकया जाता है । सन्धिानि लक्ष्य पर िनिशानिा लगानिे को कहते हैं ।
िजसप्रकार अस या शस से लक्ष्य को भेदनिे वाला व्यक्तिक्ति लक्ष्य के अितिरक्ति और िकसी वस्तु को निहीं
देखता, तभी वह लक्ष्य को भेद पाता है; इसीप्रकार, जो आत्मिजज्ञासु आत्मारूप लक्ष्य के अितिरक्ति
अन्य िकसी वस्तु की ओर ध्यानि निहीं देता, वह अपनिे लक्ष्य को पालेता है । मुण्डक उपिनिषद [2/2/4] में
कहा है--
प्रणवो धिनिुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्चते ।
अप्रमत्तेनि वेद्धव्यक्तं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
●
यहाँ प्रणव (ओउम् ) को धिनिुष और आत्मा को शर अथार्मात् इषु बताया है, और ब्रह्म लक्ष्य है । इसका
तात्पयर्मा है-- आत्मा को प्रणव जप द्वारा ब्रह्म तक पहुँचिाया जा सकता है । सांख्ययोग में इसका स्पष्ट
प्रितपादनि िकया गया है िक प्रणव ईश्वर का वाचिक पद है: उसका जप और उसके अथर्मा की भावनिा से
समािधि का लाभ होता है ॥4/14॥
कृत्ततिनियमलङ्घनिादानिथर्माक्यं लोकवत् ॥4/15॥
िनििश्चित अथवा अङ्गीकृत्तत िनियमों के उल्लंघनि से असफलता ( िमलती है) ,
लोक में जैसे ॥4/15॥
●
आत्म-िजज्ञासु को अपनिे स्वीकृत्तत व्रत, िनियम आिद का कभी उल्लंघनि निहीं करनिा चिािहए। इसे सूत्रकार
लोक-दृत्तष्टान्त द्वारा समझाता है--
●
अपनिे अङ्गीकृत्तत अथवा प्रितज्ञात व्रत-िनियम आिद का उल्लंघनि कर देनिे से आत्म-िजज्ञासु के
ज्ञानिसम्पादनि के िलए िकए गए सब प्रयत्न िनिष्फल होजाते हैं ।
तिद्वस्मरणे अिप भेकीवत् ॥4/16॥
िनियम के भूल जानिे पर भी ( असफलता है ) भेकी के समानि ॥4/16॥
●
तत्त्वज्ञानि सम्बन्धिी िनियमों के िवस्मृत्तत होजानिे पर भी लक्ष्य प्रािप्ति के सब प्रयत्न िनिष्फल होजाते हैं । यह
सूत्रकार दृत्तष्टान्त द्वारा बताता है--
●
तत्त्वज्ञानि के िलए अपेिक्षित
निोपदेशश्रवणे अिप कृत्ततकृत्तत्यता परामशार्मादृत्तते िवरोचिनिवत् ॥4/17॥
उपदेश सुनिनिे पेर भी मनिनि िकए िवनिा सफलता निहीं,
िवरोचिनि के समानि ॥4/17॥
●
आत्मसाक्षिात्कार के उपाय श्रवण, मनिनि, िनििधिध्यासनि बताए गए हैं । केवल उपदेश सुनिनिे से पूणर्मा
सफलता प्राप्ति निहीं होती । सूत्रकार निे यह अथर्मा दृत्तष्टान्तपूवर्माक बताया--
●
उपदेश के सुनिनिे पर भी उसका मनिनि और िनििधिध्यासनि िकए िवनिा कृत्ततकृत्तत्यता-पूणर्मासफलता प्राप्ति निहीं
होती, िवरोचिनि के समानि ।
दृत्तष्टस्तयोिरन्द्रस्य ॥4/18॥
उनिदोनिों ( इन्द्र और िवरोचिनि ) में इन्द्र का देखा गया है
( आत्मज्ञानि होजानिा ) ॥4/18॥
●
उनि दोनिों --िवरोचिनि और इन्द्र--में
प्रणितब्रह्मचियोपसपर्माणािनि कृत्तत्वा िसिद्धबर्माहुकालात् तद्वत् ॥4/19॥
प्रणाम, ब्रह्मचियर्मा और गुरु के समीप िनिवास करके बहुत समय से
सफलता होती है, इन्द्र के समानि ॥4/19॥
●
श्रवण, मनि आिद का अनिुष्ठानि करनिे पर आत्मज्ञानि तत्काल होजाता है--ऐसा निहीं है। प्रत्युत इसके िलए
पयार्माप्ति समय लगानिा पड़ता है । सूत्रकार निे इसके िलए बताया--
नि कालिनियमो वामदेववत् ॥4/20॥
काल का िनियम ( िनियत सीमा ) निहीं ( आत्म-ज्ञानि में )
वामदेव के समानि ॥4/20॥
●
आत्म- ज्ञानि के िलए काल का कोई िनियम निहीं है--यह हम उस समय कहते हैं जब जन्म के काल की
गणनिा करते हैं । वैसे जन्म-जन्मान्तरों का प्रयत्न आत्मग्यानि की िसिद्ध में सहायक रहता है । सूत्रकार निे
इसी िलए बताया--
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SAANKHYA-4.odp

  • 1. सांख्यदर्शनर्शनम् ( षष्टितनष्टितन्त्र ) आख्याितनयका अध्यायः चतुर्थःर्शः परमिषष्ट कितनपल मुर्ितनन
  • 2. अथः चतुर्थःर्शः अध्यायः प्रथःम तीन अध्यायों में शनास्त्रीय अथःों का ितननरूपण िकया गया । * अब चतुर्थःर्श अध्याय में उसी के अनुर्सार शनास्त्र तथःा लोकप्रितनसद्ध आख्याितनयकाओं द्वारा ितनविविेक-ज्ञान-साधनों को प्रस्तुर्त िकया जाता है । * * *
  • 3. राजपुर्त्रवित् तत्त्विोपदर्ेशनात् ॥4/1॥ तत्त्वि के उपदर्ेशन से ( ितनविविेकज्ञान होता है ) राजपुर्त्र के समान ॥4/1॥ ● तत्त्वि के उपदर्ेशन से ितनविविेक होजाता है, राजपुर्त्र के समान । जब िकसी अज्ञानी को यथःाथःर्श-तत्त्वि का उपदर्ेशन िकया जाता है तो विह उसकी विास्तितनविकता को जान लेता है और उसके अज्ञान की ितननविृत्तितनत्ति होजाती है । इस सम्बन्ध में एक राजपुर्त्र का कथःानक इसप्रकार है-- – एक विार कोई राजपुर्त्र अपने पिरविार से स्तनन्धय आयुर् में ही ितनबछुर्ड़ गया और जंगल में िकसी शनबरजातीय व्यक्तितनक्ति को विह ितनमल गया । बालक सुर्न्दर्र वि स्विस्थः थःा, शनबर ने उसे पालपोस कर बड़ा िकया । अब अज्ञान से विह यही समझता रहा िक विह शनबर का पुर्त्र है। – राजा के मंत्री को िकसी प्रकार ज्ञात हुआ िक राजपुर्त्र जीितनवित है और अमुर्क जंगलविासी िकसी व्यक्तितनक्ति के पास सुर्रितनक्षित है । मंत्री विहाँ जाता है और उसे समझ।ता है -- ' तुर्म शनबर या शनबर के पुर्त्र नहीं हो, तुर्म तो अमुर्क राजा के पुर्त्र हो। एक विार आकितनस्मक दर्ुर्घटर्शटना में िकसी तरह तुर्म पिरविार से अत्यल्प आयुर् में ितनबछुर्ड़ गये थःे' । विह बालक मन्त्री के इस कथःन के अनन्तर अपने आप को शनबर समझने की ितनमथ्या भाविना से मुर्क्ति होजाता है, और यथःाथःर्शरूप से राजपुर्त्र समझने लगता है । ● इसी प्रकार आत्मज्ञानी तत्त्विोपदर्ेष्टिा के आत्मितनविषष्टयक उपदर्ेशन के अनन्तर, अितनधकारी ितनजज्ञासुर् आत्मितनविषष्टयक अज्ञान के ितननविृत्तत्ति होने पर, ितनविविेक अथःार्शत् प्रकृत्तितनत-पुर्रुषष्ट के भेदर् का साक्षिात्कार कर लेता है; और, विह चेतन, प्रकृत्तितनत के बन्धन से छूट कर मुर्क्ति अविस्थःा को प्राप्त कर लेता है ॥ 4/1॥
  • 4. ितनपशनाचविदर्न्याथःोपदर्ेशने अितनप ॥4/2॥ ितनपशनाच के समान अन्य के ितनलए अथःर्श ( विस्तुर्तत्त्वि ) का उपदर्ेशन होने पर भी ( दर्ूसरे को ितनविविेकज्ञान का लाभ होजाता है ) ॥4/2॥ ● कभी एक को उपदर्ेशन दर्ेने पर प्रसंगविशन दर्ूसरा भी लाभ उठा लेता है, इस आशनय से सूत्रकार ने कहा िक िकसी अन्य को उपदर्ेशन दर्ेने के प्रसंग में यिदर् कोई दर्ूसरा व्यक्तितनक्ति भी उसे सुर्न ले, तो विह भी उस उपदर्ेशन का लाभ उठाकर विास्तितनविक तथ्य को जान लेता है, ितनपशनाच के समान । ● इस ितनविषष्टय में एक आख्याितनयका इस प्रकार कही जाती है-- – एक अत्मज्ञानी गुर्रु अपने ितनशनष्य को उपदर्ेशन दर्ेने के ितनलए, सुर्ितनविधा की दर्ृत्तितनष्टि से, एकान्त जंगल में ले गया; और, विहीं ितननविासकर, उसे आत्मज्ञान का उपदर्ेशन दर्ेता रहा। उस उपदर्ेशन को एक ितनपशनाच ितनछपकर बराबर सुर्नता रहता थःा । उसके अनुर्सार आचरण करता हुआ, विह भी कालान्तर में आत्मज्ञानी होगया । ● सन्मागर्श का उपदर्ेशन कहीं से, िकसी भी तरह प्राप्त हो जाय, उसके अनुर्सार आचरण करने से तत्त्विज्ञान अविश्य होजाता है ॥4/2॥
  • 5. आविृत्तितनत्तिरसकृत्तदर्ुर्पदर्ेशनात् ॥4/3॥ उपदर्ेशन से बार-बार दर्ुर्हराना ( ज्ञान का साधन है ) ॥4/3॥ ● यिदर् एक विार उपदर्ेशन से ज्ञान न हो तो ितननरन्तर उसकी आविृत्तितनत्ति करते रहना चाितनहए । इसी आशनय से सूत्रकार ने कहा िक उपदर्ेशन के अनन्तर उसकी बार-बार आविृत्तितनत्ति करना तत्त्विज्ञान का साधन है । इससे ओङ्कार एविं गायत्री आिदर् के ितननरन्तर जप करने की भाविना स्पष्टि होती है। िकसी विस्तुर् के ितननरन्तर स्मरण करते रहने का अविश्य एक मनोविैज्ञाितननक प्रभावि होता है। ● यिदर् कोई व्यक्तितनक्ति शनाितनब्दर्क रूप में प्रथःम आत्म-स्विरूप को समझकर ितननरन्तर उसका ितनचन्तन करता है; तो, कालान्तर में, एक ऐसी ितनस्थःितनत की ितननितनश्चित सम्भाविना की जासकती है जब उस व्यक्तितनक्ति को आत्म- स्विरूप का साक्षिात्कार हो जाए । योग में अभ्यास से तत्त्विज्ञान की प्राितनप्त का यही स्विरूप है । ● उपदर्ेशन की ितननरन्तर आविृत्तितनत्ति तत्त्विज्ञान की उद्भाविक होती है । जो व्यक्तितनक्ति तीव्र विैराग्य, शनम-दर्म आिदर् साधनसम्पितनत्ति और ितनविलक्षिण प्रितनतभा से सम्पन्न होते है, उनको एक विार उपदर्ेशन से ही तत्त्विज्ञान होजाने की सम्भाविना रहती है; पर, जो मन्दर्मितनत है, विैराग्य आिदर् साधनों से सम्पन्न नहीं है, उनके ितनलए उपदर्ेशन की ितननरन्तर आविृत्तितनत्ति तत्त्विज्ञान को प्रकट कर दर्ेती है । छान्दर्ोग्य [अ. 6] आिदर् उपितननषष्टदर्ों में आरुितनण-श्वेतकेतुर् के सम्विादर् से यह अथःर्श स्पष्टि होता है । ● लोक में प्रत्येक गुर्रु इस बात को जानता है िक जब बालक अक्षिराभ्यास आरम्भ करता है, तो उसको विही बात बार-बार बताई वि ितनसखाई जाती है; और, इस प्रकार ितननरन्तर उपदर्ेशन से, कालान्तर में, विह यथःाथःर्श तत्त्वि को जान लेता है । यही बात अध्यात्मिदर्शना में चलने विाले ितनजज्ञासुर् के ितनलए लागू होती है ॥4/3॥
  • 6. ितनपतापुर्त्रविदर्ुर्भयोदर्ृत्तर्शष्टित्विात् ॥4/4॥ दर्ोनों के दर्ेखे जाने से ितनपता और पुर्त्र के समान ॥4/4॥ ● तत्त्विज्ञान के उपदर्ेशन के ितनलए उपदर्ेष्टिा गुर्रु का ही होना आविश्यक नहीं, विह सुर्हृदर्् आिदर् के द्वारा भी प्राप्त िकया जासकता है । इसी अितनभप्राय से सूत्रकार कहता है िक उपदर्ेष्टिा और उपदर्ेश्य दर्ोनों के ितनविषष्टय में कभी यह दर्ेखा जाता है िक उनमें व्यक्तविितनस्थःत वि ितननयितनमत गुर्रु-ितनशनष्य भावि नहीं होता; िफिर भी, उनमें यथःाथःर्श तत्त्वि का आदर्ान-प्रदर्ान होता है, ितनजससे आविश्यक फिल की प्राितनप्त होती है, ितनपता-पुर्त्र के समान । ● इस ितनविषष्टय में यह आख्याितनयका ितननम्नलितनलितनखत रूप में विणर्शन की जाती है -- – िकसी समय एक अत्यन्त ितननधर्शन ब्राह्मण अपनी पत्नी को गभर्शविती जानकर धनसंग्रह के ितनलए परदर्ेशन को चला गया । बहुत िदर्नों बादर् जब विापस हुआ तो अपने ग्राम में पहुंचने से पहले ही, राितनत्र आजाने के कारण, िकसी नगर की धमर्शशनाला में उसे राितनत्र व्यक्ततीत करने के ितनलए ठहरना पड़ा । – धमर्शशनाला में उसके साथः के कमरे में ही अपनी माता के साथः एक रोगी िकशनोर बालक ठहरा हुआ थःा जो रोग के कारण रातभर रोता-ितनचल्लाता रहा । उसके क्रन्दर्न से पितनथःक ब्राह्मण को बार-बार क्रोध आता रहा और विह उसे बुर्रा-भला कहता रहा िक 'यह कहाँ से दर्ुर्ष्टि आ मरा, यात्रा से श्रान्त मुर्झको शनाितनन्त से सोने भी नहीं दर्ेता' । दर्ो-चार बार उसने अपने स्थःान से ही धमकाया-सुर्नाया भी । बालक ने भी यह सुर्नकर अपनी माता से कहा िक ' यह बेकार क्यों िकड़-िकड़ कर रहा है । हमें तो कष्टि में है, यह क्यों नहीं िकसी और जगह चला जाता' ।
  • 7. ितनपतापुर्त्रवित् ... ( जारी - 1 )॥ 4/4॥ – जैसे-तैसे रात बीती और प्रभात हुआ । प्रातःकाल प्रकाशन में बालक की माता ने अपने भतार्श पितनथःक ब्राह्मण को पितनहचाना और उसे बुर्ला कर कहा िक ' यह जो रात भर रोता-ितनचल्लाता रहा है, आपका पुर्त्र है' । और पुर्त्र से कहा िक ' रात तुर्म ितनजनके ितनलए चले जाने की भाविना कर रहे थःे, विे तुर्म्हारे ितनपता है' । – उसके उपदर्ेशन से ितनपता-पुर्त्र दर्ोनों ने विास्तितनविक ितनस्थःितनत को समझा । उनके एक-दर्ूसरे के प्रितनत अन्यथःा भावि नष्टि हो गए; और, विास्तितनविक अनुर्कूल भाविना जागृत्तत हो गई । ● अध्यात्म ितनविषष्टय में भी इसीप्रकार कभी गुर्रु के ितनविना अन्य सुर्हृदर्् आिदर् के कथःनमात्र से तत्त्विज्ञान होजाता है । ● लोक में ऐसे अनेक उदर्ाहरण दर्ेखे जासकते है । प्रत्येक काल में इसप्रकार की घटटना सामने आती रहती है । सूत्रकार के सामने इसप्रकार के कौन से उदर्ाहरण होंगे--यह जानने के ितनलए आज हमारे पास कोई स्पष्टि संकेत नहीं है । पर अनन्तर काल की अनेक घटटनाओं को हम जानते है ।
  • 8. ितनपतापुर्त्रवित् ... ( जारी - 2 )॥ 4/4॥ ● पाितनणितनन, काितनलदर्ास और तुर्लसीदर्ास के दर्ृत्तष्टिान्त हमारे सामने है । – कहा जाता है िक पाितनणितनन पहले बहुत जड़मितनत थःे । एक विार दर्याद्र्शितनचत्ति होकर माता ने उन्हें समझाया; तब, घटोर तपस्या में लीन होकर उन्होंने शनब्दर् तत्त्वि का साक्षिात्कार कर ितनलया । – काितनलदर्ास अपनी पत्नी से ितननरादर्ृत्तत होकर ितननकले और उस भाविना से प्रेिरत होकर अितनद्वतीय कितनवि बनकर घटर आये । – तुर्लसीदर्ास अपनी पत्नी के गम्भीर यथःाथःर्श विाक्यों को सुर्नकर, तीव्र विैराग्य से ओत-प्रोत हो, भगविान की भितनक्ति में लीन होगए | ● इस सूत्र का व्यक्ताख्यान ितननम्नलितनलितनखत रूप में भी िकया जाता है-- – ितनपता पुर्त्र को अपने सामने उत्पन्न होते हुए दर्ेखता है; और, पुर्त्र ितनपता को अपने सामने मरते हुए दर्ेखता है । ितनपता और पुर्त्र के समान जन्म और मरण-- दर्ोनों के दर्ेखे जाने से, द्ष्टिा को संसार के प्रितनत विैराग्य की भाविना जागृत्तत होती है । विैराग्य से ितनविविेक होजाता है । ● इसप्रकार ितनपता-पुर्त्र के मृत्तत्युर्-जन्म, द्ष्टिा में विैराग्य आिदर् को जागृत्तत करके तत्त्विज्ञान के प्रादर्ुर्भार्शवि में सहायक होते है ॥4/4॥
  • 9. श्येनवित्सुर्खदर्ुर्ःखी त्यागितनवियोगाभ्याम् ॥4/5॥ त्याग और ितनवियोग से सुर्खी और दर्ुर्ःखी होता है, श्येन के समान ॥4/5॥ ● ज्ञान की ितननष्पितनत्ति में त्याग की भाविना अत्यन्त आविश्यक है । विैराग्य होजाने पर भी त्याग-भाविना को दर्ृत्तढ़ बनाना चाितनहए । इसी आशनय को लेकर सूत्रकार अगले तीन सूत्रों से ज्ञान-सम्पादर्न में त्याग की आविश्यकता को स्पष्टि करता है-- ● अनाविश्यक विस्तुर्ओं का संग्रह सदर्ा दर्ुर्खदर् होता है । इसितनलए आत्मितनजज्ञासुर् को पिरग्रह से सदर्ा बचना चाितनहए । विस्तुर् को स्वियं त्याग दर्ेना सुर्ख की ितनस्थःितनत को उत्पन्न करता है । इसके ितनविपरीत, यिदर् िकसी का बलात् विस्तुर् से ितनवियोग करा िदर्या जाए तो उसके ितनलए विह दर्ुर्ःखदर्ायी होजाता है । अपनी ितनस्थःितनत को अनुर्कूल बनाए रखने के ितनलए अध्यात्ममागी के ितनलए यह आविश्यक है िक विह अपनी त्यागभाविना को सदर्ा जागृत्तत रक्खे । ● त्याग और ितनवियोग में यथःाक्रम सुर्ख और दर्ुर्ःख की ितनस्थःितनत को समझाने के ितनलए श्येंन का दर्ृत्तष्टिान्त िदर्या जाता है । श्येन एक पक्षिी है ितनजसे लोकभाषष्टा में बाज़ कहते है । इस ितनविषष्टय की आख्याितनयका ितननम्नलितनलितनखत रूप में कही जाती है -- – एक व्यक्तितनक्ति कभी मृत्तगया ( ितनशनकार ) के ितनलए जंगल में गया । विहाँ उसे एक श्येनशनाविक ( बाज़ का बच्चा ) असहाय अविस्थःा में पड़ा िदर्खा । दर्याद्र्शितनचत्ति होकर उसने विह उठा ितनलया और घटर ले आया । दर्ाना-पानी दर्ेकर उसे पाला-पोसा । जब विह समथःर्श हो गया, तो उस व्यक्तितनक्ति ने यह सोचकर िक 'मै इसे अब बन्धन में क्यों रखूँ' , उसे जंगल में ले जाकर छोड़ िदर्या । विह श्येन अब बन्धन से छूट जाने के कारण सुर्खी है; पर, पालक-पोषष्टक व्यक्तितनक्ति के साथः ितनवियोग होजाने के कारन दर्ुर्ःखी है ।
  • 10. श्येनवित् ... ( जारी - 1 ) ॥4/5॥ ● संसार में सुर्ख सदर्ा दर्ुर्ःख से ितनमितनश्रत रहता है; इसितनलए, दर्ुर्ःख के समान सुर्ख को भी हेय पक्षि में डालना चाितनहए । अभी तक संसार में िकसी ऐसे साधन का ितननमार्शण नहीं हो पाया; और अतीत को दर्ेखते हुए भितनविष्यत् में भी ऐसे ितननमार्शण की सम्भाविना नहीं है, ितनजससे केविल सुर्ख का आदर्ान कर ितनलया जाय और दर्ुर्ःख को छांट कर अलग फिें क िदर्या जाय । दर्ुर्ःख को ितननतान्त दर्ूर करने का एकमात्र साधन यही है िक, सुर्ख वि दर्ुर्ःख-- दर्ोनों का ही त्याग कर िदर्या जाय । ऐसे त्याग में विास्तितनविक शनाितनन्त का लाभ ितननितनहत है, जो आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त होजाती है । ● इस दर्ृत्तष्टिान्त की व्यक्ताख्या एक अन्य प्रकार से भी की जाती है-- – श्येन के पास चोंच में दर्बा जब कोई खाद्य पदर्ाथःर्श रहता है, तो दर्ूसरे बलविान पक्षिी, ितनजनके पास विह खाद्य नहीं है, उसपर टूट पड़ते है; और, बलपूविर्शक उससे छीन लेते है। इसप्रकार खाद्य ितनछन जाने से श्येन दर्ुर्ःखी होता है; और, संघटषष्टर्श में जो चोट खाता है विह और भी दर्ुर्ःख का कारण बनती है । यिदर् विह अपनी इच्छा से ही खाद्य पदर्ाथःर्श का त्याग कर दर्ेता तो विह इन सब दर्ुर्ःख कारणों से बच जाता । खाद्य पदर्ाथःर्श का श्येन की चोंच में पकड़ा हुआ रहना यह प्रकट करता है िक अब उसे खाद्य के उपभोग की आविश्यकता नहीं है-- विह रजा हुआ है । ● यह ितनस्थःितनत विस्तुर् के पिरग्रह की ओर संकेत करती है । इससे यह प्रकट िकया गया है िक लोक में पिरग्रह दर्ुर्ःख वि अशनाितनन्त का मूल है; इसके ितनविपरीत, अपिरग्रह ( त्याग ) सुर्ख वि शनांितनत का ॥4/5॥
  • 11. अहिहिनिनिर्ल्वयिनर्ल्वयियिनिर्ीवयिनत् ॥4/6॥ सांप की कैंचुली के समानिर् ॥4/6॥ ● त्यिाग के िलए सूत्रकार निर्े एक अहन्यि उदाहिनरण प्रस्तुत िकयिा हिनै-- – िजिसप्रकार सांप अहपनिर्े ऊपर आवयिनृत पुरानिर्ी त्वयिनचा [ कैंचुली ] को हिनेयि समझकर अहनिर्ायिास छोड़ देता हिनै और उसमें िफिर आदानिर्बुिद्धि निर्हिनीं करता; इसीप्रकार, मोक्ष की इच्छा रखनिर्ेवयिनाला व्यक्तिक्ति िचरकाल से भोगी हुई प्रकृित को हिनेयि समझकर त्यिाग देनिर्े की दृढ़ भावयिननिर्ा बनिर्ावयिने, और ज्ञानिर्मागर्ल्वय को प्रशस्त करे । ● इस दृष्टान्त को कितपयि व्यक्ताख्यिाकारों निर्े अहन्यिरूप से प्रस्तुत िकयिा हिनै-- – सांप अहपनिर्ी कैंचुली को िबल के द्वार पर यिा आसपास छोड़ देता हिनै; पर, उसका मोहिन उसमें बनिर्ा रहिनता हिनै । वयिनहिन उसको मट्टी धूल में पड़े हुए देखकर अहनिर्ुतप्त हिनोता रहिनता हिनै : उसके सामीप्यि को छोड़निर्ा निर्हिनीं चाहिनता । कैंचुली को देखकर कोई संपेरा सांप की ताक में रहिनता हिनै, और अहवयिनसर पाकर उसे पकड़ लेता हिनै । सांप बन्धनिर् में पड़ जिाता हिनै । ● इसी प्रकार जिो व्यक्तिक्ति ममतावयिनश िवयिनषयिों में स्नेहिन करता हिनै, वयिनहिन बन्धनिर्ों में पड़ अहनिर्थों का पात्र हिनोजिाता हिनै । अहतएवयिन िवयिनषयिों में वयिनैराग्यि और त्यिाग की भावयिननिर्ा को दृढ़ बनिर्ानिर्ा चािहिनए ॥4/6॥
  • 12. िछन्नहिनस्तवयिनद्वा ॥4/7॥ अहथवयिना कटे हिनाथवयिनाले के समानिर् ॥4/7॥ ● अहध्यिात्मिदशा में चलनिर्ेवयिनाले व्यक्तिक्ति को कभी कोई अहकायिर्ल्वय निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए । यििद प्रमाद से कुछ अहकायिर्ल्वय हिनो जिाए, तो उसका तत्काल प्रतीकार यिा प्रायििश्चित्त करनिर्ा चािहिनए । सूत्रकार निर्े इसके िलए दृष्टान्त िदयिा -- – पुराकाल में शंख और िलिखत निर्ाम के दो भाई अहपनिर्े-अहपनिर्े आश्रमों में िनिर्वयिनास करते थे । एक वयिनार छोटा भाई अहपनिर्े बड़े भाई शंख के आश्रम में गयिा । पर आश्रम सूनिर्ा था: कायिर्ल्वयवयिनश शंख कहिनीं बाहिनर गयिे हुए थे । िलिखत निर्े वयिनृक्षों पर पके फिल लगे हुए देखे और गधार्ल्वयवयिनश उन्हिनें खा गयिा । शंख निर्े वयिनापस आकर भाई से फिलों के िवयिनषयि में पूछा तो उसनिर्े बतायिा िक फिल उसनिर्े खा िलए थे । बड़े भाई निर्े कहिना, ' यिहिन तुम्हिनारा कायिर्ल्वय चोरी के अहन्तगर्ल्वयत आता हिनै । तुम्हिनें तत्काल इसका प्रतीकार करनिर्ा चािहिनए, अहन्यिथा तुम्हिनारे तपस्यिा कमर्ल्वय में हिनीनिर्ता आजिाएगी; और, आगे तुम्हिनारा अहिधक पतनिर् हिनोनिर्े की सम्भावयिननिर्ा हिनो सकती हिनै ।' – िलिखत निर्े राजिा के पास जिाकर अहपनिर्ा अहपराध कहिना और दण्द देनिर्े के िलए िनिर्वयिनेदनिर् िकयिा । उसे हिनस्तच्छेद का दण्द िदयिा गयिा । ● अहिभप्रायि यिहिन हिनै िक कोई भी अहकायिर्ल्वय करनिर्े से व्यक्तिक्ति सन्मागर्ल्वय से भ्रष्ट हिनोजिाता हिनै। उन्मागर्ल्वय-गामी व्यक्तिक्ति कभी आत्मज्ञानिर्ी निर्हिनीं हिनोसकता । इसिलए अहध्यिात्ममागर्ल्वय पर चलनिर्े वयिनाले व्यक्तिक्ति को अहकायिर्ल्वय के पिरत्यिाग में सदा सचेत रहिननिर्ा चािहिनए ।
  • 13. िछन्नहिनस्तवयिनत् ... ( जिारी - 1 ) ॥4/7॥ ● पञ्चम सूत्र की अहवयिनतरिणका में इस प्रकरण द्वारा त्यिाग के महिनत्त्वयिन का िनिर्देश िकयिा गयिा हिनै । उस दृिष्ट से प्रस्तुत सूत्र का अहथर्ल्वय यिहिन भी िकयिी जिाता हिनै िक कटे हुए हिनाथ को जिैसे कोई व्यक्तिक्ति िफिर निर्हिनीं लेनिर्ा चाहिनता; इसीप्रकार, पिरत्यिक्ति िवयिनषयिों की ओर मुमुक्षु को कभी निर्हिनीं मुड़निर्ा चािहिनए । ● िवयिनषयिों के पिरत्यिाग में 'िछन्नहिनस्त' दृष्टान्त बड़ा भावयिनपूणर्ल्वय हिनै । महिनाभारत के शंख-िलिखत प्रसंग में आता हिनै िक िलिखत का हिनाथ पुनिर्ः जिोड़ िदयिा गयिा था । िकयिे गयिे अहकायिर्ल्वय के पिरणामरूप हिनस्तच्छेद का कष्ट अहनिर्ुभवयिन कराकर, अहन्यि सुकायिों में बाधा निर् हिनो, इसिलए हिनाथ को पुनिर्ः जिोड़ िदयिा गयिा । इससे िवयिनषयिों में आसिक्ति को छोड़कर आवयिनश्यिक कत्तर्ल्वयव्यक्त कमों के अहनिर्ुष्ठानिर् की प्रवयिनृित्त ध्वयिनिनिर्त हिनोती हिनै । आत्मज्ञानिर्ी को भी लोकोपकारी कायिों से िवयिनरत निर्हिनीं हिनोनिर्ा चािहिनए । आसिक्ति का पिरत्यिाग हिनी मुख्यिरूप से अहपेिक्षत हिनै । इसके अहितिरक्ति िछन्नहिनस्त का पुनिर्ः जिोड़ा जिानिर्ा उस समयि की उन्नत शल्यििक्रियिा का स्पष्ट प्रमाण हिनै ॥4/7॥
  • 14. अहसाधनिर्ानिर्ुिच न्तनिर्ं बन्धायि भरतवयिनत् ॥4/8॥ अहसाधनिर् का बार-बार िचन्तनिर् बन्धनिर् के िलए हिनोता हिनै, भरत के समानिर् ॥4/8॥ ● आत्मज्ञानिर् के मागर्ल्वय पर चलनिर्े वयिनाले व्यक्तिक्ति को, ज्ञानिर् के अहन्तरंग साधनिर्ों के अहितरेक्ति, अहन्यि िवयिनषयिों का िचतनिर् निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए; क्यिोंिक, ऐसा िचन्तनिर् यिोगी की प्रवयिनृित्त को संसार की ओर बढ़ानिर्ेवयिनाला हिनोजिाता हिनै । सूत्रकार इस अहथर्ल्वय को स्पष्ट करते हुए कहिनता हिनै -- ● आत्मज्ञानिर् के जिो साधनिर् निर्हिनीं हिनैं, उनिर्का पुनिर्ः-पुनिर्ः िचन्तनिर् करनिर्ा िवयिनषयिों की ओर प्रवयिनृित्त का साधनिर् बनिर् जिाता हिनै । भरत के समानिर्--जिैसे िक यिोगी भरत को दीनिर् अहनिर्ाथ हिनिरण शावयिनक का पोषण-पालनिर् एवयिनं प्रितक्षण तिद्वषयिक हिनी िचन्तनिर् पुनिर्ः बन्धनिर् में पड़ जिानिर्े का कारण बनिर् गयिा । ● पुराणों में कथा इस प्रकार हिनै -- – सतयिुग में भरत निर्ाम का राजििष आत्मज्ञानिर्ी हिनो गयिा था और वयिनहिन जिीवयिनन्मुक्ति था । एक वयिनार जिंगल में उसनिर्े देखा िक एक हिनिरणी बच्चा जिनिर्निर्े के अहनिर्न्तर मरणासन्न हिनै और इसके साथ वयिनहिन अहनिर्ाथ बच्चा भी समाप्त हिनो जिाएगा । उसके मिस्तष्क में तीव्र करुणा का भावयिन उत्पन्न हिनो गयिा और वयिनहिन उस बच्चे का पालनिर्-पोषण करनिर्े लग गयिा । – धीरे-धीरे वयिनहिन उसमें इतनिर्ा आसक्ति हिनो गयिा िक वयिनहिन उसी के पीछे-पीछे िफिरता रहिनता, िखलाता, िपलाता और उसकी इच्छाओं एवयिनं िक्रियिाओं के अहनिर्ुसार अहपनिर्ा व्यक्तवयिनहिनार रखता । – मृत्यिु समयि में वयिनहिन उसी का ध्यिानिर् करता हुआ प्राण छोड़ गयिा । मुक्ति निर् हिनोकर तीव्र वयिनासनिर्ाओं से अहिवयिनभूत हिनो उसनिर्े हिनिरण देहिन में जिन्म िलयिा । इसप्रकार उसे िफिर बन्धनिर् में आनिर्ा पड़ा । ● िनिर्ष्कषर्ल्वय यिहिन हिनै िक यिोगमागी को, अहच्छे भी कायिों का-- यििद वयिने यिोगसमािध यिा आत्मज्ञानिर् के साधनिर्भूत निर्हिनीं हिनैं तो-- िचन्तनिर् निर्हिनीं करनिर्ा चािहिनए ॥4/8॥
  • 15. बहुिभयिोगे िवयिनरोधो रागािदिभः कुमारीशङ्खवयिनत् ॥4/9॥ बहुतों के साथ सम्पकर्ल्वय में राग द्वेष आिद के द्वारा संघर्षर्ल्वय हिनोजिाता हिनै, कुमारीशंख के समानिर् ॥4/9॥ ● यिोगी को एकान्त में रहिननिर्ा चािहिनए । अहिधक समुदायि में रहिननिर्े से यिोगिवयिनरोधी भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोती रहिनती हिनैं जिो यिोगमागर्ल्वय में बाधक हिनोजिाती हिनैं। ● इसको स्पष्ट करते हुए सूत्रकार निर्े कहिना िक – बहुत व्यक्तिक्तियिों के साथ संगत में रहिननिर्े से राग-द्वेष, संघर्षर्ल्वय, कलहिन आिद के कारण यिोगिवयिनरोधी िस्थित अहथवयिना पारस्पिरक िवयिनरोध की भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोजिाती हिनै । यिोगमागर्ल्वय पर चलनिर्े के िलए रागद्वेषािदरिहिनत परमवयिनैराग्यिपूणर्ल्वय िजिस िस्थित की आवयिनश्यिकता हिनै, वयिनहिन संगत में निर्हिनीं रहिनपाती । – अहनिर्ेक िवयिनचार और प्रवयिनृित्तयिों के बीच राग-द्वेषािद की भावयिननिर्ा जिागृत हिनोजिाती हिनै; िफिर, साधारण संसारी और उसकी िस्थित में कोई अहन्तर निर्हिनीं रहिनता । एकान्तिनिर्वयिनास की अहवयिनस्था में इसप्रकार की िस्थित उत्पन्न हिनोनिर्े के अहत्यिल्प अहवयिनसर आते हिनैं । ● सूत्रकार निर्े इसके िलए कुमारीशंख का दृष्टान्त िदयिा हिनै । शंख का तात्पयिर्ल्वय शख से बनिर्ी चूिड़यिों का हिनै । िजिसप्रकार एक कुमारी-बाला के हिनाथ में पहिननिर्ी हुई बहुत सी शंख की चूिड़यिां आपस में खड़खड़ाती यिा झनिर्झनिर्ाती रहिनती हिनैं; इसीप्रकार, इकट्ठे संगत में रहिनते व्यक्तिक्तियिों का परस्पर संघर्षर्ल्वय रहिननिर्ा स्वयिनाभािवयिनक हिनै। यिहिन अहवयिनस्था आत्मज्ञानिर् के िलए बाधक हिनोती हिनै, इसिलए आत्म-िजिज्ञासु को संगत से सदा बचनिर्ा चािहिनए ॥4/9॥
  • 16. द्वाभ्यिामिप तथैवयिन ॥4/10॥ दो के साथ ( सम्पकर्ल्वय में ) भी उसी प्रकार ( िवयिनरोध की सम्भावयिननिर्ा रहिनती हिनै ) ॥4/10॥ ● अहनिर्ेकों की संगत जिैसे यिोगमागर्ल्वय में बाधक हिनै, इसीप्रकार दो का एकत्र रहिननिर्ा भी बाधक हिनोता हिनै । सूत्रकार निर्े बतायिा -- ● अहनिर्ेकों के समानिर् दो के इकट्ठा रहिननिर्े पर भी यिोगिवयिनरोधी भावयिननिर्ा उत्पन्न हिनोनिर्े की सम्भावयिननिर्ा बनिर्ी रहिनती हिनै । दो के एकसाथ रहिननिर्े में यििद उतनिर्ी अहिधक रागद्वेष, कोलाहिनल आिद उत्पन्न हिनोनिर्े की सम्भावयिननिर्ा निर् भी रहिने; तो भी, आपसी बातचीत आिद में समयि व्यक्तथर्ल्वय निर्ष्ट हिनोनिर्े का भयि तो रहिनता हिनी हिनै । इसिलए आत्मिजिज्ञासु के िलए एकान्त सेवयिननिर् आवयिनश्यिक हिनै। ● सूत्र के तथैवयिन पद का सम्बन्ध पूवयिनर्ल्वयसूत्रोक्ति दृष्टान्त के साथ भी हिनै । जिैसे कुमारी के हिनाथ में अहनिर्ेक अहथवयिना दो कंकण आपस में टकरानिर्े से झनिर्झनिर्ाते रहिनते हिनैं; इसिलए यििद एक हिनाथ में केवयिनल एक हिनी कंकण पहिननिर्ा हिनो तो वयिनहिन सदा ध्वयिनिनिर्रिहिनत और शान्त रहिनेगा । ● यिोगी को भी एकान्त में शान्तिचत्त रहिननिर्े का यित्न करनिर्ा चािहिनए ॥4/10॥
  • 17. िनिर्राशः सुखी िपङ्गलावयिनत् ॥4/11॥ आशा रिहिनत सुख पाता हिनै िपङ्गला के समानिर् ॥4/11॥ ● यिोगी आशाओं के जिाल से सदा बचा रहिने: इसके तानिर्े-बानिर्े में फिं सकर िचत्त का शान्त रहिननिर्ा सम्भवयिन निर्हिनीं । इसीिलए सूत्रकार निर्े कहिना िक िमथ्यिा आशाओं को छोड़कर सन्तोष और धैयिर्ल्वय के साथ रहिननिर्ेवयिनाला व्यक्तिक्ति सुखी रहिनता हिनै । यिोगी को आशाओं का सदा पिरत्यिाग करनिर्ा चािहिनए । आशाजिाल यिोगमागर्ल्वय का परम शत्रु हिनै । ● यिोगमागर्ल्वय पर चलनिर्े के िलए तीव्र वयिनैराग्यि का हिनोनिर्ा अहत्यिन्त आवयिनश्यिक हिनै । वयिनैराग्यि और कोई बला निर्हिनीं, केवयिनल इतनिर्ा हिनै- ' सांसािरक झंझटों का सवयिनर्ल्वयथा पिरत्यिाग' । ● संसार और यिोग यिा आत्मज्ञानिर्, यिे दोनिर्ों िवयिनरोधी मागर्ल्वय हिनैं । इनिर्में से िकसी एक को चुनिर्निर्ा हिनै । – यििद आपनिर्े संसार को चुनिर्ा हिनै तो वयिनहिनाँ आशाओं का जिाल िबछा पड़ा हिनै । उसमें फिं िसए और लगाइए चक्कर जिन्म-मरण के घर्ेरे में । – यििद आप आत्मज्ञानिर् की ओर पग बढ़ा रहिने हिनैं तो छोिड़ए आशाओं का सहिनारा । आशाओं का सवयिनर्ल्वयथा वयिनैराग्यि हिनी तो उत्कट वयिनैराग्यि हिनै । यििद आप इस अहवयिनस्था में आगए हिनैं तो समझ लीिजिए आपका यिोगमागर्ल्वय िनिर्ष्कण्टक हिनै । चलते जिाइयिे, अहनिर्न्त सुख आपके सम्मुख हिनै ।
  • 18. ... िपङ्गलावयिनत् ( जिारी - 1) ॥4/ 11॥ ● साधारण संसारी पुरुष भी जिब आशा के कटु घर्ूंट को छोड़ देता हिनै तो वयिनहिन भी सन्तोष वयिन शािन्त के माधुयिर्ल्वय का अहनिर्ुभवयिन करता हिनै । िफिर आशािपशाची का समूल उच्छेद कर देनिर्े वयिनाले यिोगी का तो कहिननिर्ा हिनी क्यिा ? सूत्रकार निर्े इस अहथर्ल्वय को स्पष्ट करनिर्े के िलए िपङ्गला का दृष्टान्त िदयिा हिनै -- – िकसी अहित प्राचीनिर् काल में िपङ्गला निर्ाम की एक वयिनेश्यिा थी । वयिनहिन अहपनिर्े प्रणयिी की प्रतीक्षा में कभी रात-रातभर बैठी रहिनती । वयिनहिन इस आशा में रहिनती िक वयिनहिन अहब आयिा और अहब आयिा और इसी आशा में उसकी रात आँखों में कट जिाती । प्रणयिी के निर् आनिर्े पर वयिनहिन अहत्यिन्त दुःख का अहनिर्ुभवयिन करती । – जिब कई वयिनार उसके साथ ऐसा हुआ, तो उसके हृदयि में एक खेद की भावयिननिर्ा उदयि हुई । वयिनहिन सोचनिर्े लगी, 'मैं जिो कुछ करती हूँ, वयिनहिन ठीक निर्हिनीं हिनै । मुझे इस कायिर्ल्वय से िवयिनरत हिनोनिर्ा चािहिनए ।' यिहिन भावयिननिर्ा उसकी दृढ़ हिनोती चली गई और उस आशा की जिड़ उखड़ गई िजिसके कारण उसकी सारी रात पलकों में जिाती और, पिरणामतः, भारी दुःख उठाती थी । अहब वयिनहिन शान्तिचत्त हिनोकर रातभर आराम से सोती हिनै । ● यिोगी को आशाओं का पिरत्यिाग कर दृढ़ वयिनैराग्यि के साथ यिोगमागर्ल्वय पर अहिभयिानिर् करनिर्ा चािहिनए । आशाओं से भरे हुए सन्तोषिवयिनहिनीनिर् िवयिनकृत िचत्त में ज्ञानिर् का उदयि ऐसे हिनी निर्हिनीं हिनोता जिैसे मिलनिर् आदशर्ल्वय में मुख का प्रितिबम्ब निर्हिनीं उभरता ॥4/11॥
  • 19. अहनिर्ारम्भे अहिप परगृहिने सुखी सपर्ल्वयवयिनत् ॥4/12॥ आरम्भ--िनिर्मार्ल्वयण निर् करनिर्े पर भी अहन्यि के घर्र में सुख पाता हिनै, सपर्ल्वय के समानिर् ॥4/12॥ ● यिोगी को िवयिनिवयिनध प्रवयिनृित्तयिों से सदा बचनिर्ा चािहिनए; क्यिोंिक, भोगों के िलए हिनोनिर्े वयिनाली प्रवयिनृित्तयिाँ यिोगमागर्ल्वय में बाधक बनिर् जिाती हिनैं । सूत्रकार निर्े इसे दृष्टान्त देकर बतायिा हिनै -- ● आरम्भ यिा प्रवयिनृित्त से अहिभप्रायि हिनै-- संन्यिासी यिा आत्मिजिज्ञासु हिनोकर मकानिर् अहथवयिना मठों के खड़ा करनिर्े में लग जिानिर्ा । इसप्रकार की प्रवयिनृित्त संन्यिासी को संसारी के स्थानिर् पर ला पटकती हिनै । उस संन्यिासी और संसारी में कोई अहन्तर निर्हिनीं रहिनता, जिो मकानिर् और मठों के रूप में केवयिनल ईंट-पत्थरों का ढेर करनिर्े में लगा रहिनता हिनै । ● िनिर्वयिनास के िलए स्थानिर् बनिर्ानिर्े का बहिनानिर्ा बहुत लचर हिनै । आत्मिजिज्ञासु के िलए कोई भी एक स्थानिर् िनिर्वयिनास का िनिर्िश्चित करनिर्ा उसमें मोहिन का उत्पादक बनिर् जिाता हिनै । जिब िनिर्वयिनास-स्थानिर् में मेरा-तेरा हिनोनिर्े लगा, तब यिहिन मेरा-तेरा आत्मज्ञानिर् पर निर्हिनीं चलनिर्े देगा । यिहिन रास्ता तो साधारण संसारी का हिनै, संन्यिासी यिा आत्मिजिज्ञासु का निर्हिनीं । आरम्भ यिा इसप्रकार की प्रवयिनृित्तयिों से सदा पृथक् रहिनकर उसे तो जिहिनाँ स्थानिर् िमले, वयिनहिनीं िनिर्वयिनास कर देनिर्ा चािहिनए । उसमें यिहिनी समझकर िनिर्वयिनास करे िक यिहिन मेरा घर्र निर्हिनीं हिनै । इसप्रकार एक हिनी स्थानिर् में ममता बुिद्धि को पैदा निर् हिनोनिर्े दे । ● जिैसे साँप अहपनिर्े िलए िनिर्वयिनास का कोई स्थानिर् निर्हिनीं बनिर्ाता, घर्ूमता-िफिरता रहिनता हिनै । जिहिनाँ पर अहवयिनसर पाता हिनै, परिनिर्िमत स्थानिर् में अहपनिर्ा िनिर्यित समयि िनिर्काल लेता हिनै । इस अहथर्ल्वय में सपर्ल्वय के दृष्टान्त का संकेत महिनाभारत शािन्तपवयिनर्ल्वय में हिनै ॥4/12॥ ● शास्त्रों और गुरुओं से सारभूत अहथर्ल्वय का ग्रहिनण करे । जिो अहनिर्ुपयिोगी हिनो, उसके आदानिर् में व्यक्तथर्ल्वय समयि निर्ष्ट निर् करे । इस आशयि को सूत्रकार निर्े अहगले सूत्र में कहिना हिनै ।
  • 20. बहुशास्त्रेगुरूपासनिर्े अहिप सारादानिर्ं षट्पदवयिनत् ॥4/13॥ बहुत शास्त्र और गुरुओं की उपासनिर्ा में भी सार का ग्रहिनण ( ठीक हिनै ) , भौंरे के समानिर् ॥4/13॥ ● अहिधक शास्त्र-अहध्यियिनिर् और गुरुओं की सेवयिना में रहिनकर भी सारभूत अहथर्ल्वय का आदानिर् कर लेनिर्ा चािहिनए । गुरुओं के समीप जिो शम-दम आिद समािध के िलए सम्पित्त हिनै, उसका ग्रहिनण कर लेनिर्ा चािहिनए । जिो कभी उनिर्में राग-द्वेष आिद िवयिनकार देखनिर्े में आते हिनैं, आत्म-िजिज्ञासु सदा उनिर्की उपेक्षा करे : उसे गुरु का आचरण समझकर कभी अहपनिर्े जिीवयिननिर् में अहनिर्ुकरण निर् करे । ● अहभ्यिासी आचायिों निर्े बतायिा हिनै -- स्वयिनाध्यिायिाद्योगमासीत यिोगात्स्वयिनाध्यिायिमामनिर्ेत् । स्वयिनाध्यिायियिोगसम्पत्यिा परमात्मा प्रकाशते ॥ जिब समािध-अहभ्यिास से समयि बचे, तब अहध्यिात्मिवयिनषयिक शास्त्रों का मनिर्निर् करता रहिने; और जिब शास्त्र-िवयिनवयिनेचनिर् से श्रान्त हिनो जिावयिने, तब िफिर समािध-अहभ्यिास में लग जिावयिने । इसप्रकार स्वयिनाध्यिायि और यिोग के िनिर्रन्तर अहभ्यिास से आत्मज्ञानिर् हिनो जिाता हिनै । ● अहिभप्रायि यिहिन हिनै िक अहभ्यिासी को अहध्यिात्मशास्त्रों का उतनिर्ा उपयिोग करनिर्ा चािहिनए जिो समािधलाभ में सहिनायिक हिनो । संवयिनाद आिद में दूसरे पर िवयिनजियि प्राप्त करनिर्े के िलए शास्त्र का मनिर्निर् निर् केवयिनल आत्मज्ञानिर्ी के िलए सवयिनर्ल्वयथा व्यक्तथर्ल्वय हिनै, अहिपतु यिोगमागर्ल्वय में बाधक भी हिनै; ● आत्मज्ञानिर्ी शास्त्र और गुरुओं से सारभूत उपयिोगी अहथर्ल्वय को ग्रहिनण करनिर्े में प्रयित्नशील रहिने; वयिनैसे हिनी जिैसे, षट्पद अहथार्ल्वयत् भ्रमर फिू लों से सारभूत रस लेलेता हिनै और अहनिर्ुपयिोगी भाग को छोड़ देता हिनै । ● जिो व्यक्तिक्ति प्रत्यिेक अहनिर्ुपयिोगी अहथर्ल्वय को भी जिानिर्निर्े के पीछे पड़ा रहिनता हिनै, और हिनड़बड़ायिा-सा हिनरएक वयिनस्तु को ग्रहिनण करनिर्े का यित्न करता हिनै, वयिनहिन अहनिर्न्तकाल तक भी आत्मज्ञानिर् का लाभ निर्हिनीं कर सकता ॥4/13॥
  • 21. इषुकारवन्नैकिचित्तस्य समािधिहािनि ॥4/14॥ बाण के िनिमार्माता अथवा सन्धिाता के समानि एकाग्रचिचित्त पुरुष की समािधि की हािनि निहीं ॥4/14॥ ● एकाग्रचिचित्त व्यक्तिक्ति की समािधि में कोई बाधिा निहीं होती, इषुकार के समानि । इषु बाण या शर को कहते हैं । वस्तुतः सूत्र में यह पद दत्तिचित्त होकर बनिाये जानिे वाले िकसी भी अस-शस या िनिमार्माण का बोधिक है । कोई िशल्पी अथवा कायर्माकतार्मा जब ध्यानिपूवर्माक अपनिे िनिमार्माण या अपेिक्षित कायर्मा में संलग्न रहता है, तो उसे समीप में होनिे वाली अन्य प्रवृत्तित्तयों अथवा िक्रियाओं का पता निहीं लगता । इसी प्रकार जो आत्मिजज्ञासु एकाग्रचिचित्त होकर अभ्यास में लगा रहता है, उसके सामनिे कोई बाधिा निहीं आती । ● इषुकार का अथर्मा इषुसन्धिाता भी िकया जाता है । सन्धिानि लक्ष्य पर िनिशानिा लगानिे को कहते हैं । िजसप्रकार अस या शस से लक्ष्य को भेदनिे वाला व्यक्तिक्ति लक्ष्य के अितिरक्ति और िकसी वस्तु को निहीं देखता, तभी वह लक्ष्य को भेद पाता है; इसीप्रकार, जो आत्मिजज्ञासु आत्मारूप लक्ष्य के अितिरक्ति अन्य िकसी वस्तु की ओर ध्यानि निहीं देता, वह अपनिे लक्ष्य को पालेता है । मुण्डक उपिनिषद [2/2/4] में कहा है-- प्रणवो धिनिुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्चते । अप्रमत्तेनि वेद्धव्यक्तं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ ● यहाँ प्रणव (ओउम् ) को धिनिुष और आत्मा को शर अथार्मात् इषु बताया है, और ब्रह्म लक्ष्य है । इसका तात्पयर्मा है-- आत्मा को प्रणव जप द्वारा ब्रह्म तक पहुँचिाया जा सकता है । सांख्ययोग में इसका स्पष्ट प्रितपादनि िकया गया है िक प्रणव ईश्वर का वाचिक पद है: उसका जप और उसके अथर्मा की भावनिा से समािधि का लाभ होता है ॥4/14॥
  • 22. कृत्ततिनियमलङ्घनिादानिथर्माक्यं लोकवत् ॥4/15॥ िनििश्चित अथवा अङ्गीकृत्तत िनियमों के उल्लंघनि से असफलता ( िमलती है) , लोक में जैसे ॥4/15॥ ● आत्म-िजज्ञासु को अपनिे स्वीकृत्तत व्रत, िनियम आिद का कभी उल्लंघनि निहीं करनिा चिािहए। इसे सूत्रकार लोक-दृत्तष्टान्त द्वारा समझाता है-- ● अपनिे अङ्गीकृत्तत अथवा प्रितज्ञात व्रत-िनियम आिद का उल्लंघनि कर देनिे से आत्म-िजज्ञासु के ज्ञानिसम्पादनि के िलए िकए गए सब प्रयत्न िनिष्फल होजाते हैं ।
  • 23. तिद्वस्मरणे अिप भेकीवत् ॥4/16॥ िनियम के भूल जानिे पर भी ( असफलता है ) भेकी के समानि ॥4/16॥ ● तत्त्वज्ञानि सम्बन्धिी िनियमों के िवस्मृत्तत होजानिे पर भी लक्ष्य प्रािप्ति के सब प्रयत्न िनिष्फल होजाते हैं । यह सूत्रकार दृत्तष्टान्त द्वारा बताता है-- ● तत्त्वज्ञानि के िलए अपेिक्षित
  • 24. निोपदेशश्रवणे अिप कृत्ततकृत्तत्यता परामशार्मादृत्तते िवरोचिनिवत् ॥4/17॥ उपदेश सुनिनिे पेर भी मनिनि िकए िवनिा सफलता निहीं, िवरोचिनि के समानि ॥4/17॥ ● आत्मसाक्षिात्कार के उपाय श्रवण, मनिनि, िनििधिध्यासनि बताए गए हैं । केवल उपदेश सुनिनिे से पूणर्मा सफलता प्राप्ति निहीं होती । सूत्रकार निे यह अथर्मा दृत्तष्टान्तपूवर्माक बताया-- ● उपदेश के सुनिनिे पर भी उसका मनिनि और िनििधिध्यासनि िकए िवनिा कृत्ततकृत्तत्यता-पूणर्मासफलता प्राप्ति निहीं होती, िवरोचिनि के समानि ।
  • 25. दृत्तष्टस्तयोिरन्द्रस्य ॥4/18॥ उनिदोनिों ( इन्द्र और िवरोचिनि ) में इन्द्र का देखा गया है ( आत्मज्ञानि होजानिा ) ॥4/18॥ ● उनि दोनिों --िवरोचिनि और इन्द्र--में
  • 26. प्रणितब्रह्मचियोपसपर्माणािनि कृत्तत्वा िसिद्धबर्माहुकालात् तद्वत् ॥4/19॥ प्रणाम, ब्रह्मचियर्मा और गुरु के समीप िनिवास करके बहुत समय से सफलता होती है, इन्द्र के समानि ॥4/19॥ ● श्रवण, मनि आिद का अनिुष्ठानि करनिे पर आत्मज्ञानि तत्काल होजाता है--ऐसा निहीं है। प्रत्युत इसके िलए पयार्माप्ति समय लगानिा पड़ता है । सूत्रकार निे इसके िलए बताया--
  • 27. नि कालिनियमो वामदेववत् ॥4/20॥ काल का िनियम ( िनियत सीमा ) निहीं ( आत्म-ज्ञानि में ) वामदेव के समानि ॥4/20॥ ● आत्म- ज्ञानि के िलए काल का कोई िनियम निहीं है--यह हम उस समय कहते हैं जब जन्म के काल की गणनिा करते हैं । वैसे जन्म-जन्मान्तरों का प्रयत्न आत्मग्यानि की िसिद्ध में सहायक रहता है । सूत्रकार निे इसी िलए बताया--