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अनुकर्म


शर्ीमद् भागवत महापुराणांतगर्त
       शर्ी नारायण स्तुित
िनवेदन
'शर्ीमद् भागवत' के नवम स्कन्ध मंे भगवान स्वयं कहते हंै-
                                         साध्वो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
                                    मदन्यत् ते न जानिन्त नाहं तेभ्यो मनागिप।।
अथार्त् मेरे पर्ेमी भक्त तो मेरा हृदय हंै और उन पर्ेमी भक्तों का हृदय स्वयं मंै हँू। वे मेरे अितिरक्त और कुछ नहीं
जानते तथा मंै उनके अितिरक्त और कुछ भी नहीं जानता।
पुराणिशरोमिण 'शर्ीमद् भागवत' बर्ह्माजी, देवताओं, शुकदेवजी, िशवजी, सनकािद मुिनयों, देविषर् नारद, वृतर्ासुर,
दैत्यराज बिल, भीष्म िपतामह, माता कुन्ती, भक्त पर्ह्लाद, धर्ुव, अकर्ूर आिद कई पर्भु पर्ेमी भक्तों द्वारा शर्ी नारायण
भगवान की की गयी स्तुितयों का महान भण्डार है। पर्स्तुत पुस्तक धर्ुव, पर्ह्लाद, अकर्ूर आिद कुछ उत्तम परम
भागवतों की स्तुितयों का संकलन है, िजसके शर्वण, पठन एवं मनन से आप-हम हमारा हृदय पावन करंे, िवषय रस
का नहीं अिपतु भगवद रस का आस्वादन करे, भगवान के िदव्य गुणों को अपने जीवन मंे उतार कर अपना जीवन
उन्नत बनायंे। भगवान की अनुपम मिहमा और परम अनुगर्ह का ध्यान करके इन भक्तों को जो आश्वासन िमला है,
सच्चा माधुयर् एवं सच्ची शांित िमली है, जीवन का सच्चा मागर् िमला है, वह आपको भी िमले इसी सत्पर्ाथर्ना के
साथ इस पुस्तक को करकमलों मंे पर्दान करते हुए सिमित आनंद का अनुभव करती है।
हे साधक बंधुओ ! इस पर्काशन के िवषय मंे आपसे पर्ितिकर्याएँ स्वीकायर् हंै।
                                                                                       शर्ी योग वेदान्त सेवा सिमित,
                                                                                                   अमदावाद आशर्म।


                                             अनुकर्म
व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित।
कुन्ती द्वारा स्तुित।
शुकदेव जी द्वारा स्तुित।
बर्ह्माजी द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा स्तुित।
धर्ुव द्वारा स्तुित।
महाराज पृथु द्वारा स्तुित।
रूदर् द्वारा स्तुित।
पर्ह्लाद द्वारा स्तुित।
गजेन्दर् द्वारा स्तुित।
अकर्ूरजी द्वारा स्तुित।
नारदजी द्वारा स्तुित।
दक्ष पर्जापित द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा गभर्-स्तुित।
वेदों द्वारा स्तुित।
चतुःश्लोकी भागवत।
पर्ाथर्ना का पर्भाव।

                                  व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित
भगवान सवर्ज्ञ, सवर्शिक्तमान एवं सिच्चदानंदस्वरूप हंै। एकमातर् वे ही समस्त पर्ािणयों के हृदय मंे िवराजमान आत्मा
हंै। उनकी लीला अमोघ है। उनकी शिक्त और पराकर्म अनन्न है। महिषर् व्यासजी ने 'शर्ीमद् भागवत' के माहात्म्य
तथा पर्थम स्कंध के पर्थम अध्याय के पर्ारम्भ मंे मंगलाचरण के रुप मंे भगवान शर्ीकृष्ण की स्तुित इस पर्कार से
की हैः
                                      सिच्चदानंदरूपाय िवश्वोत्पत्यािदहेतवे।
                                     तापतर्यिवनाशाय शर्ीकृष्णाय वयं नुमः।।
'सिच्चदानंद भगवान शर्ीकृष्ण को हम नमस्कार करते हंै, जो जगत की उत्पित्त, िस्थित एवं पर्लय के हेतु तथा
आध्याित्मक, आिधदैिवक और आिधभौितक – इन तीनों पर्कार के तापों का नाश करने वाले हंै।'
                                                                                         (शर्ीमद् भागवत मा. 1.1)
                                जन्माद्यस्य यतोऽन्वयािदतरतश्चाथर्ेष्विभज्ञः स्वराट्
                                 तेने बर्ह्म हृदा य आिदकवये मुह्यिन्त यत्सूरयः।
                                  तेजोवािरमृदां यथा िविनमयो यतर् ितर्सगोर्ऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा िनरस्तकुहकं सत्यं परं धीमिह।।
'िजससे इस जगत का सजर्न, पोषण एवं िवसजर्न होता है क्योंिक वह सभी सत् रूप पदाथोर्ं मंे अनुगत है और
असत् पदाथोर्ं से पृथक है; जड़ नहीं, चेतन है; परतंतर् नहीं, स्वयं पर्काश है; जो बर्ह्मा अथवा िहरण्यगभर् नहीं, पर्त्युत
उन्हंे अपने संकल्प से ही िजसने उस वेदज्ञान का दान िकया है; िजसके सम्बन्ध मंे बड़े-बड़े िवद्वान भी मोिहत हो
जाते हंै; जैसे तेजोमय सूयर्रिश्मयों मंे जल का, जल मंे स्थल का और स्थल मंे जल का भर्म होता है, वैसे ही
िजसमंे यह ितर्गुणमयी जागर्त-स्वप्न-सुिषप्तरूपा सृिष्ट िमथ्या होने पर भी अिधष्ठान-सत्ता से सत्यवत् पर्तीत हो रही है,
उस अपनी स्वयं पर्काश ज्योित से सवर्दा और सवर्था माया और मायाकायर् से पूणर्तः मुक्त रहने वाले सत्यरूप
परमात्मा का हम ध्यान करते हंै।'
                                                                                           (शर्ीमद् भागवतः 1.1.1)
                                                       अनुकर्म
                                         ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

                                          कुन्ती द्वारा स्तुित
अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश को नष्ट करने के िलए बर्ह्मास्तर् का पर्योग िकया था। उत्तरा उस अस्तर् को अपनी ओर
आता देख देवािधदेव, जगदीश्वर पर्भु शर्ीकृष्ण से पर्ाथर्ना करने लगी िक 'हे पर्भो ! आप सवर्शिक्तमान हंै। आप ही
िनज शिक्त माया से संसार की सृिष्ट, पालन एवं संहार करते हंै। स्वािमन् ! यह बाण मुझे भले ही जला डाले, परंतु
मेरे गभर् को नष्ट न करे – ऐसी कृपा कीिजये।' भक्तवत्सल भगवान शर्ीकृष्ण ने अपने भक्त की करूण पुकार सुन
पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के िलए उत्तरा के गभर् को अपनी माया के कवच से ढक िदया।
यद्यिप बर्ह्मास्तर् अमोघ है और उसके िनवारण का कोई उपाय भी नहीं है, िफर भी भगवान शर्ीकृष्ण के तेज के सामने
आकर वह शांत हो गया। इस पर्कार अिभमन्यु की पत्नी उत्तरा गे गभर् मंे परीिक्षत की रक्षा कर जब भगवान शर्ीकृष्ण
द्वािरका जाने लगेष तब पाण्डु पत्नी कुन्ती ने अपने पुतर्ों तथा दर्ौपदी के साथ भगवान शर्ी कृष्ण की बड़े मधुर शब्दों
मंे इस पर्कार स्तुित कीः
'हे पर्भो ! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एकरस िस्थत हंै, िफर भी इिन्दर्यों और वृित्तयों से देखे नहीं जाते
क्योंिक आप पर्कृित से परे आिदपुरुष परमेश्वर हंै। मंै आपको बारम्बार नमस्कार करती हँू। इिन्दर्यों से जो कुछ जाना
जाता है, उसकी तह मंे आप ही िवद्यमान रहते हंै और अपनी ही माया के पदर्े से अपने को ढके रहते हंै। मंै अबोध
नारी आप अिवनाशी पुरुषोत्तम को भला, कैसे जान सकती हँू? अनुकर्म

हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण िकये हुए नट को पर्त्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप
िदखते हुए भी नहीं िदखते। आप शुद्ध हृदय वाले, िवचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय मंे अपनी पर्ेममयी भिक्त
का सृजन करने के िलए अवतीणर् हुए हंै। िफर हम अल्पबुिद्ध िस्तर्याँ आपको कैसे पहचान सकती हंै? आप शर्ीकृष्ण,
वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोिवन्द को हमारा बारम्बार पर्णाम है।
िजनकी नािभ से बर्ह्मा का जन्मस्थान कमल पर्कट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हंै, िजनके नेतर्
कमल के समान िवशाल और कोमल हंै, िजनके चरमकमलों मंे कमल का िचह्न है, ऐसे शर्ीकृष्ण को मेरा बार-बार
नमस्कार है। हृिषकेष ! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और िचरकाल से शोकगर्स्त देवकी रक्षा की थी,
वैसे ही आपने मेरी भी पुतर्ों के साथ बार-बार िवपित्तयों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हंै। आप सवर्शिक्तमान
हंै। शर्ीकृष्ण ! कहाँ तक िगनाऊँ? िवष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, िहिडम्ब आिद राक्षसों की दृिष्ट से, दुष्टों की
द्यूत-सभा से, वनवास की िवपित्तयों से और अनेक बार के युद्धों मंे अनेक महारिथयों के शस्तर्ास्तर्ों से और अभी-अभी
इस अश्वत्थामा के बर्ह्मास्तर् से भी आपने ही हमारी रक्षा की है।
                                       िवपदः सन्तु न शश्वत्ततर् ततर् जगद् गुरो।
                                         भवतो दशर्नं यत्स्यादपुनभर्वदशर्नम्।।
हे जगदगुरो ! हमारे जीवन मंे सवर्दा पग-पग पर िवपित्तयाँ आती रहंे, क्योंिक िवपित्तयों मंे ही िनिश्चत रूप से आपके
दशर्न हुआ करते हंै और आपके दशर्न हो जाने पर िफर जन्म-मृत्यु के चक्कर मंे नहीं आना पड़ता। अनुकर्म
                                                                                        (शर्ीमद् भागवतः 1.8.25)
ऊँचे कुल मंे जन्म, ऐश्वयर्, िवद्या और सम्पित्त के कारण िजसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी
नहीं ले सकता, क्योंिक आप तो उन लोगों को दशर्न देते हंै, जो अिकंचन हंै। आप िनधर्नों के परम धन हंै। माया
का पर्पंच आपका स्पशर् भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप मंे ही िवहार करने वाले एवं परम शांतस्वरूप हंै। आप
ही कैवल्य मोक्ष के अिधपित है। मंै आपको अनािद, अनन्त, सवर्व्यापक, सबके िनयन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती
हँू और बारम्बार नमस्कार करती हँू। संसार के समस्त पदाथर् और पर्ाणी आपस टकरा कर िवषमता के कारण
परस्पर िवरूद्ध हो रहे हंै, परंतु आप सबमंे समान रूप से िवचर रहे हंै। भगवन् ! आप जब मनुष्यों जैसी लीला करते
हंै, तब आप क्या करना चाहते हंै यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न िपर्य है और न अिपर्य। आपके
सम्बन्ध मंे लोगों की बुिद्ध ही िवषम हुआ करती है। आप िवश्व के आत्मा हंै, िवश्वरूप हंै। न आप जन्म लेते हंै और
न कमर् करते हंै। िफर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋिष, जलचर आिद मंे आप जन्म लेते हंै और उन योिनयों के अनुरूप
आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को िखजा िदया था और उन्होंने आपको बाँधने के िलए हाथ मंे रस्सी ली
थी, तब आपकी आँखों मंे आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेतर् चंचल हो रहे थे और भय की
भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका िलया था ! आपकी उस दशा का, लीला-छिव का ध्यान करके
मंै मोिहत हो जाती हँू। भला, िजससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा !
आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों िलया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जैसे
मलयाचल की कीितर् का िवस्तार करने के िलए उसमंे चंदन पर्कट होता, वैसे ही अपने िपर्य भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु
की कीितर् का िवस्तार करने के िलए ही आपने उनके वंश मंे अवतार गर्हण िकया है। दूसरे लोग यों कहते हंै िक
वासुदेव और देवकी ने पूवर् जन्म मंे (सुतपा और पृिश्न के रूप मंे) आपसे यही वरदान पर्ाप्त िकया था, इसीिलए आप
अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के िलए उनके पुतर् बने हंै। कुछ और लोग यों कहते हंै
िक यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से समुदर् मंे डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी, पीिड़त हो रही थी, तब
बर्ह्मा की पर्ाथर्ना से उसका भार उतारने के िलए ही आप पर्कट हुए। कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जो लोग इस
संसार मंे अज्ञान, कामना और कमोर्ं के बंधन मंे जकड़े हुए पीिड़त हो रहे हंै, उन लोगों के िलए शर्वण और स्मरण
करने योग्य लीला करने के िवचार से ही आपने अवतार गर्हण िकया है। भक्तजन बार-बार आपके चिरतर् का शर्वण,
गान, कीतर्न एवं स्मरण करके आनंिदत होते रहते हंै, वे ही अिवलम्ब आपके उन चरणकमलों के दशर्न कर पाते हंै,
जो जन्म-मृत्यु के पर्वाह को सदा के िलए रोक देते हंै।
भक्तवांछा हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हं? आप जानते हंै िक आपके चरमकमलों के अितिरक्त हमंे और िकसी
                                                ै
का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही िवरोधी हो गये हंै। जैसे जीव के िबना इिन्दर्याँ शिक्तहीन हो
जाती हंै, वैसे ही आपके दशर्न िबना यदुवंिशयों के और हमारे पुतर् पाण्डवों के नाम तथा रूप का अिस्तत्व ही क्या
रह जाता है। गदाधर ! आपके िवलक्षण चरणिचह्नों से िचिह्नत यह कुरुजांगल देश की भूिम आज जैसी शोभायमान
हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी। आपकी दृिष्ट के पर्भाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-
वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पवर्त, नदी और समुदर् भी आपकी दृिष्ट से ही वृिद्ध को पर्ाप्त हो रहे हंै। आप िवश्व
के स्वामी हंै, िवश्व के आत्मा हंै और िवश्वरूप हंै। यदुवंिशयों और पाण्डवों मंे मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा
करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीिजये। शर्ीकृष्ण ! जैसे गंगा की अखण्ड धारा
समुदर् मंे िगरती रहती है, वैसे ही मेरी बुिद्ध िकसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही िनरंतर पर्ेम करती रहे। अनुकर्म
शर्ीकृष्ण ! अजर्ुन के प्यारे सखा, यदुवंशिशरोमणे ! आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के िलए
अिग्नरूप है। आपकी शिक्त अनन्त है। गोिवन्द ! आपका यह अवतार गौ, बर्ाह्मण और देवताओं का दुःख िमटाने के
िलए ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मंै आपको नमस्कार करती हँू।
                                                                                        (शर्ीमद् भागवतः 1.8.18.43)


                                              ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

                                       शुकदेवजी द्वारा स्तुित
उत्तरानन्दन राजा परीिक्षत ने भगवत्स्वरूप मुिनवर शुकदेवजी से सृिष्टिवषयक पर्श्न पूछा िक अनन्तशिक्त परमात्मा
कैसे सृिष्ट की उत्पित्त, रक्षा एवं संहार करते हंै और वे िकन-िकन शिक्तयों का आशर्य लेकर अपने-आपको ही िखलौने
बनाकर खेलते हंै? इस पर्कार परीिक्षत द्वारा भगवान की लीलाओं को जानने की िजज्ञासा पर्कट करने पर वेद और
बर्ह्मतत्त्व के पूणर् ममर्ज्ञ शुकदेवजी लीलापुरुषोत्तम भगवान शर्ीकृष्ण की मंगलाचरण के रूप मंे इस पर्कार से स्तुित
करते हंै-
'उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों मंे मेरे कोिट-कोिट पर्णाम हंै, जो संसार की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय की
लीला करने के िलए सत्त्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शिक्तयों को स्वीकार कर बर्ह्मा, िवष्णु और शंकर का रूप
धारण करते हंै। जो समस्त चर-अचर पर्ािणयों के हृदय मंे अंतयार्मीरूप से िवराजमान हंै, िजनका स्वरूप और उसकी
उपलिब्ध का मागर् बुिद्ध के िवषय नहीं हंै, जो स्वयं अनन्त हंै तथा िजनकी मिहमा भी अनन्त है, हम पुनः बार-बार
उनके चरणों मंे नमस्कार करते हंै। जो सत्पुरुषों का दुःख िमटाकर उन्हंे अपने पर्ेम का दान करते हंै, दुष्टों की
सांसािरक बढ़ती रोककर उन्हंे मुिक्त देते हंै तथा जो लोग परमहंस आशर्म मंे िस्थत हंै, उन्हंे उनकी भी अभीष्ट वस्तु
का दान करते हंै। क्योंिक चर-अचर समस्त पर्ाणी उन्हीं की मूितर् हंै, इसिलए िकसी से भी उनका पक्षपात नहीं है।
जो बड़े ही भक्तवत्सल हंै और हठपूवर्क भिक्तहीन साधन करने वाले लोग िजनकी छाया भी नहीं छू सकते; िजनके
समान भी िकसी का ऐश्वयर् नहीं है, िफर उससे अिधक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वयर् से युक्त होकर जो
िनरन्तर बर्ह्मस्वरूप अपने धाम मंे िवहार करते रहते हंै, उन भगवान शर्ीकृष्ण को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू।
िजनका कीतर्न, स्मरण, दशर्न, वंदल, शर्वण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीितर्
भगवान शर्ीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है। अनुकर्म
                                  िवचक्षणा यच्चरणोपसादनात् संगं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः।
                                िवन्दिन्त िह बर्ह्मगितं गतक्लमास्तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।।
                                  तपिस्वनो दानपरा यशिस्वनो मनिस्वनो मन्तर्िवदः सुमंगलाः।
                                 क्षेमं न िवन्दिन्त िवना यदपर्णं तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।।
िववेकी पुरुष िजनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसिक्त िनकाल डालते
हंै और िबना िकसी पिरशर्म के ही बर्ह्मपद को पर्ाप्त कर लेते हंै, उन मंगलमय कीितर्वाले भगवान शर्ीकृष्ण को अनेक
बार नमस्कार है। बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मंतर्वेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को
तथा अपने-आपको उनके चरणों मंे समिपर्त नहीं कर देते, तब तक उन्हंे कल्याण की पर्ािप्त नहीं होती। िजनके पर्ित
आत्मसमपर्ण की ऐसी मिहमा है, उन कल्याणमयी कीितर्वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है।
                                                                                         (शर्ीमद् भागवतः 2.4.16.17)
िकरात, हूण, आंधर्, पुिलन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आिद नीच जाितयाँ तथा दूसरे पापी िजनके
शरणागत भक्तों की शरण गर्हण करने से ही पिवतर् हो जाते हंै, उन सवर्शिक्तमान भगवान को बार-बार नमस्कार है।
वे ही भगवान ज्ञािनयों के आत्मा हंै, भक्तों के स्वामी हंै, कमर्कािण्डयों के िलए वेदमूितर् हंै। बर्ह्मा, शंकर आिद बड़े-बड़े
देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का िचंतन करते और आश्चयर्चिकत होकर देखते रहते हंै। वे मुझ पर
अपने अनुगर्ह की, पर्साद की वषार् करंे।
जो समस्त सम्पित्तयों की स्वािमनी लक्ष्मीदेवी के पित हंै, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता है, पर्जा के रक्षक हंै,
सबके अंतयार्मी और समस्त लोकों के पालनकतार् हंै तथा पृथ्वीदेवी के स्वामी हंै, िजन्होंने यदुवंश मंे पर्कट होकर
अंधक, वृिष्ण एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमातर् आशर्य रहे हंै – वे भक्तवत्सल,
संतजनों के सवर्स्व शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न हों। िवद्वान पुरुष िजनके चरणकमलों के िचंतनरूप समािध से शुद्ध हुई
बुिद्ध के द्वारा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हंै तथा उनके दशर्न के अनन्तर अपनी-अपनी मित और रूिच के
अनुसार िजनके स्वरूप का वणर्न करते रहते हंै, वे पर्ेम और मुिक्त को लुटाने वाले भगवान शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न
हों। िजन्होंने सृिष्ट के समय बर्ह्मा के हृदय मंे पूवर्काल की स्मृित जागर्त करने के िलए ज्ञान की अिधष्ठातर्ी देवी को
पर्ेिरत िकया और वे अपने अंगों के सिहत वेद के रूप मंे उनके मुख से पर्कट हुई, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान
मुझ पर कृपा करंे, मेरे हृदय मंे पर्कट हों। भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का िनमार्ण करके इनमंे जीवरूप से
शयन करते हंै और पाँच ज्ञानेिन्दर्यों, पाँच कमर्ेिन्दर्यों, पाँच, पर्ाण और एक मन – इन सोलह कलाओं से युक्त होकर
इनके द्वारा सोलह िवषयों का भोग करते हंै। वे सवर्भूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दंे।
संतपुरुष िजनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हंै, उन वासुदेवावतार
सवर्ज्ञ भगवान व्यास के चरणों मंे मेरा बार-बार नमस्कार है।' अनुकर्म
                                                                                         (शर्ीमद् भागवतः 2.4.12-24)
                                           ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

                                          बर्ह्मा जी द्वारा स्तुित
सृिष्ट से पूवर् यह सम्पूणर् िवश्व जल मंे डूबा हुआ था। उस समय एकमातर् शर्ीनारायण देव शेषशय्या पर लेटे हुए थे।
एक सहसर् चतुयर्ुगपयर्न्त जल मंे शयन करने के अनन्तर उन्हीं के द्वारा िनयुक्त उनकी कालशिक्त ने उन्हंे जीवों के
कमोर्ं की पर्वृित्त के िलए पर्ेिरत िकया। िजस समय भगवान की दृिष्ट अपने मंे िनिहत िलंग शरीरािद सूक्ष्म तत्त्व पर
पड़ी, तब वह सूक्ष्म तत्त्व कालािशर्त रजोगुण से क्षुिभत होकर सृिष्ट-रचना के िनिमत्त कमलकोश के रूप मंे सहसा
ऊपर उठा। कमल पर बर्ह्मा जी िवराजमान थे। वे सोचने लगेः 'इस कमल की किणर्का पर बैठा हुआ मंै कौन हँू? यह
कमल भी िबना िकसी अन्य आधार के जल मंे कहाँ से उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई वस्तु होनी
चािहए, िजसके आधार पर यह िस्थत है।' अपने उत्पित्त-स्थान को खोजते-खोजते बर्ह्माजी को बहुत काल बीत गया।
अन्त मंे पर्ाणवायु को धीरे-धीरे जीतकर िचत्त को िनःसंकल्प िकया और समािध मंे िस्थत हो गये। तब उन्होंने अपने
उस अिधष्ठान को, िजसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अंतःकरण मंे पर्कािशत होते देखा तथा
शर्ीहिर मंे िचत्त लगाकर उन परम पूजनीय पर्भु की स्तुित करने लगेः
'आप सवर्दा अपने स्वरूप के पर्काश से ही पर्ािणयों के भेद भर्मरूप अंधकार का नाश करते रहते हंै तथा ज्ञान के
अिधष्ठान साक्षात् परम पुरुष हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू। संसार की उत्पित्त, िस्थित और संहार के िनिमत्त से
जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है, अतः आप परमेश्वर को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू।
                           यस्यावतारगुणकमर्िवडम्बनािन नामािन येऽसुिवगमे िववशा गृणिन्त।
                             ते नैकजन्मशमलं सहसैव िहत्वा संयान्त्यपावृतमृतं तमजं पर्पद्ये।।
जो लोग पर्ाणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कमोर्ं को सूिचत करने वाले देवकीनन्दन, जनादर्न,
कंसिनकंदन आिद नामों का िववश होकर भी उच्चारण करते हंै, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायािद
आवरणों से रिहत बर्ह्मपद पर्ाप्त करते हंै। आप िनत्य अजन्मा हंै, मंै आपकी शरण लेता हँू। अनुकर्म
                                                                                            (शर्ीमद् भागवतः 3.9.15)
भगवन् ! इस िवश्ववृक्ष के रूप मंे आप ही िवराजमान हंै। आप ही अपनी मूल पर्कृित को स्वीकार करके जगत की
उत्पित्त, िस्थित और पर्लय के िलए मेरे, अपने और महादेवजी के रूप मंे तीन पर्धान शाखाओं मंे िवभक्त हुए हंै और
िफर पर्जापित एवं मनु आिद शाखा-पर्शाखाओं के रूप मंे फैलकर बहुत िवस्तृत हो गये हंै। मंै आपको नमस्कार
करता हँू। भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के िलए कल्याणकारी स्वधमर् बताया है, िकंतु वे इस ओर
से उदासीन रहकर सवर्दा िवपरीत (िनिषद्ध) कमोर्ं मंे लगे रहते हंै। ऐसी पर्माद की अवस्था मंे पड़े हुए इन जीवों की
जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघर्ता से काटता रहता है, वह बलवान काल भी आपका ही रूप है;
मंै उसे नमस्कार करता हँू। यद्यिप मंै सत्यलोक का अिधष्ठाता हँू, जो पराद्धर्पयर्न्त रहने वाला और समस्त लोकों का
वन्दनीय है तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हँू। उससे बचने और आपको पर्ाप्त करने के िलए ही मंैने बहुत
समय तक तपस्या की है। आप ही अिधयज्ञरूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू।
आप पूणर्काम हंै, आपको िकसी िवषयसुख की इच्छा नहीं है तो भी आपने अपनी बनायी हुई धमर्मयार्दा की रक्षा के
िलए पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आिद जीवयोिनयों मंे अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हंै।
ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को मेरा नमस्कार है।
पर्भो ! आप अिवद्या, अिस्मता, राग द्वेष और अिभिनवेश – पाँचों मंे से िकसी के भी अधीन नहीं हंै; तथािप इस
समय जो सारे संसार को अपने उदर मंे लीन कर भयंकर तरंगमालाओं से िवक्षुब्ध पर्लयकालीन जल मंे अनन्तिवगर्ह
की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हंै, वह पूवर्काल की कमर् परम्परा से शर्िमत हुए जीवों को िवशर्ाम देने के िलए
ही है। आपके नािभकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूणर् िवश्व आपके उदर मंे समाया हुआ है। आपकी
कृपा से ही मंै ितर्लोकी की रचना रूप उपकार मंे पर्वृत्त हुआ हँू। इस समय योगिनदर्ा का अंत हो जाने के कारण
आपके नेतर्कमल िवकिसत हो रहे हंै आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूणर् सुहृद और आत्मा हंै तथा शरणागतों पर
कृपा करने वाले हंै। अतः अपने िजस ज्ञान और ऐश्वयर् से आप िवश्व को आनिन्दत करते हंै, उसी से मेरी बुिद्ध को
भी युक्त करंे – िजससे मंै पूवर्कल्प के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकँू। आप भक्तवांछाकल्पतरु हंै।
अपनी शिक्त लक्ष्मीजी के सिहत अनेक गुणावतार लेकर आप जो-जो अदभुत कमर् करंेगे, मेरा यह जगत की रचना
करने का उद्यम भी उन्हीं मंे से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे िचत्त को पर्ेिरत करंे, शिक्त पर्दान करंे,
िजससे मंै सृिष्ट रचनािवषयक अिभमानरूप मल से दूर रह सकँू। पर्भो ! इस पर्लयकालीन जल मंे शयन करते हुए
आप अनन्तशिक्त परमपुरुष के नािभ-कमल से मेरा पर्ादुभार्व हुआ है और मंै हँू भी आपकी ही िवज्ञानशिक्त अतः इस
जगत के िविचतर् रूप का िवस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप
अपार करुणामय पुराणपुरुष हंै। आप परम पर्ेममयी मुस्कान के सिहत अपने नेतर्कमल खोिलये और शेषशय्या से
उठकर िवश्व के उदभव के िलए अपनी सुमधुर वाणी से मेरा िवषाद दूर कीिजए।' अनुकर्म
                                                                                           (शर्ीमद् भागवतः 3.9.14-25)
भगवान की मिहमा असाधारण है। वे स्वयंपर्काश, आनंदस्वरूप और माया से अतीत है। उन्हीं की माया मंे तो सभी
मुग्ध हो रहे हंै परंतु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पशर् नहीं कर सकता। बर्ह्मजी उन्हीं भगवान शर्ीकृष्ण को
ग्वाल-बाल और बछड़ों का अपहरण कर, अपनी माया से मोिहत करने चले थे। िकन्तु उनको मोिहत करना तो दूर
रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोिहत हो गये। बर्ह्माजी समस्त िवद्याओं के अिधपित हंै
तथािप भगवान के िदव्य स्वरूप को वे तिनक भी न समझ सके िक यह क्या है। यहाँ तक िक वे भगवान के
मिहमामय रूपों को देखने मंे भी असमथर् हो गये। उनकी आँखंे मँुद गयीं। भगवान शर्ीकृष्ण ने बर्ह्माजी का मोह और
असमथर्ता को जान कर अपनी माया का पदार् हटा िदया। इससे बर्ह्माजी को बर्ह्मज्ञान हुआ। िफर बर्ह्माजी ने अपने
चारों मुकुटों के अगर्भाग से भगवान के चरणकमलों का स्पशर् करके नमस्कार िकया और आनंद के आँसुओं की धारा
से उन्हंे नहला िदया। बहुत देर तक वे भगवान के चरणों मंे ही पड़े रहे। िफर धीरे-धीरे उठे और अपने नेतर्ों के आँसू
पोंछे। पर्ेम और मुिक्त के एकमातर् उदगम भगवान को देखकर उनका िसर झुक गया। अंजिल बाँधकर बड़ी नमर्ता
और एकागर्ता के साथ गदगद वाणी से वे भगवान की स्तुित करने लगेः
'पर्भो ! एकमातर् आप ही स्तुित करने योग्य हंै। मंै आपके चरणों मंे नमस्कार करता हँू। आपका यह शरीर
वषार्कालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर पीताम्बर िस्थर िबजली के समान िझलिमल-िझलिमल करता हुआ
शोभा पाता है, आपके गले मंे घँुघची की माला, कानों मंे मकराकृित कुण्डल तथा िसर पर मोरपंखों का मुकुट है, इन
सबकी कांित से आपके मुख पर अनोखी छटा िछटक रही है। वक्षः स्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्हीं-सी
हथेली पर दही-भात का कौर, बगल मंे बंेत और िसंगी तथा कमर की फंेट मंे आपकी पहचान बतानेवाली बाँसुरी
शोभा पर रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेष। (मंै और
कुछ नहीं जानता बस, मंै तो इन्हीं चरणों पर न्योछावर हँू।) स्वयंपर्काश परमात्मन् ! आपका यह शर्ीिवगर्ह भक्तजनों
की लालसा-अिभलाषा पूणर् करने वाला है। यह आपकी िचन्मय इच्छा का मूितर्मान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात
कृपा पर्साद है। मुझे अनुगृहीत करने के िलए ही आपने इसे पर्कट िकया है। कौन कहता है िक यह पंचभूतों की
रचना है?
पर्भो ! यह तो अपर्ाकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मंै या और कोई समािध लगाकर भी आपके इस सिच्चदानंद-िवगर्ह की
मिहमा नहीं जान सकता। िफर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही मिहमा को तो कोई एकागर् मन से भी
कैसे जान सकता है।
                        ज्ञाने पर्यासमुदापास्य नमन्त एव जीविन्त सन्मुखिरतां भवदीयवातार्म्।
                   स्थाने िस्थताः शर्ुितगतां तनुवांगनोिभयर्े पर्ायशोऽिजत िजतोऽप्यिस तैिस्तर्लोक्याम्।।
पर्भो ! जो लोग ज्ञान के िलए पर्यत्न न करके अपने स्थान मंे ही िस्थत रहकर केवल सत्संग करते हंै; यहाँ तक िक
उसे ही अपना जीवन बना लेते हंै, उसके िबना जी नहीं सकते। पर्भो ! यद्यिप आप पर ितर्लोकी मंे कोई कभी िवजय
नहीं पर्ाप्त कर सकता, िफर भी वे आप पर िवजय पर्ाप्त कर लेते हंै, आप उनके पर्ेम के अधीन हो जाते हंै। अनुकर्म
                                                                                                (शर्ीमद् भागवतः10.15.3)
भगवन् ! आपकी भिक्त सब पर्कार के कल्याण का मूलसर्ोत-उदगम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की पर्ािप्त
के िलए शर्म उठाते और दुःख भोगते हंै, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है और कुछ नहीं। जैसे, थोथी भूसी
कूटने वाले को केवल शर्म ही िमलता है, चावल नहीं।
हे अच्युत ! हे अनन्त ! इस लोक मंे पहले भी बहुत-से योगी हो गये हंै। जब उन्हंे योगािद के द्वारा आपकी पर्ािप्त न
हुई, तब उन्होंने अपने लौिकक और वैिदक समस्त कमर् आपके चरणों मंे समिपर्त कर िदये। उन समिपर्त कमोर्ं से
तथा आपकी लीला-कथा से उन्हंे आपकी भिक्त पर्ाप्त हुई। उस भिक्त से ही आपके स्वरूप का ज्ञान पर्ाप्त करके उन्होंने
बड़ी सुगमता से आपके परम पद की पर्ािप्त कर ली। हे अनन्त ! आपके सगुण-िनगर्ुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान किठन
होने पर भी िनगर्ुण स्वरूप की मिहमा इिन्दर्यों का पर्त्याहार करके शुद्ध अंतःकरण से जानी जा सकती है। (जानने
की पर्िकर्या यह है िक) िवशेष आकार के पिरत्यागपूवर्क आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार िकया जाय। यह
आत्माकारता घट-पटािद रूप के समान ज्ञेय नहीं है, पर्त्युत आवरण का भंगमातर् है। यह साक्षात्कार 'यह बर्ह्म है', 'मंै
बर्ह्म को जानता हँू' इस पर्कार नहीं िकंतु स्वयंपर्काश रूप से ही होता है। परंतु भगवन् ! िजन समथर् पुरुषों ने अनेक
जन्मों तक पिरशर्म करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के िहमकण (ओस की बँूदंे) तथा उसमंे चमकने वाले
नक्षतर् एवं तारों तक िगन डाला है, उनमंे भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों
को िगन सके? पर्भो ! आप केवल संसार के कल्याण के िलए ही अवतीणर् हुए हंै। सो भगवन् ! आपकी मिहमा का
ज्ञान तो बड़ा ही किठन है। इसिलए जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भलीभाँित अनुभव
करता रहता है और पर्ारब्ध के अनुसार जो कुछ सोख या दुःख पर्ाप्त होता है, उसे िनिवर्कार मन से भोग लेता है एवं
जो पर्ेमपूणर् हृदय, गदगद वाणी और पुलिकत शरीर से अपने को आपके चरणों मंे समिपर्त करता रहता है – इस
पर्कार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अिधकारी हो जाता है, जैसे अपने िपता की
सम्पित्त का पुतर् ! अनुकर्म
पर्भो ! मेरी कुिटलता तो देिखये। आप अनन्त आिदपुरुष परमात्मा हंै और मेरे जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी
माया के चकर् मंे हंै। िफर भी मंैने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वयर् देखना चाहा। पर्भो ! मंै आपके
सामने हँू ही क्या। क्या आग के सामने िचनगारी की भी कुछ िगनती है? भगवन् ! मंै रजोगुण से उत्पन्न हुआ हँू,
आपके स्वरूप को मंै ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मंै
अजन्मा जगत्कतार् हँू – इस मायाकृत मोह के घने अंधकार से मंै अंधा हो रहा था। इसिलए आप यह समझकर िक
'यह मेरे ही अधीन है, मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चािहए', मेरा अपराध क्षमा कीिजए। मेरे स्वामी ! पर्कृित,
महत्तत्व, अहंकार, आकाश, वायु, अिग्न, जल और पृथ्वीरूप आवरणों से िघरा हुआ यह बर्ह्माण्ड ही मेरा शरीर है और
आपके एक-एक रोम के िछदर् मंे ऐसे-ऐसे अगिणत बर्ह्माण्ड उसी पर्कार उड़ते-पड़ते रहते हंै, जैसे झरोखे की जाली मंे
से आनेवाली सूयर् की िकरणों मंे रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए िदखायी पड़ते हंै। कहाँ अपने पिरमाण से साढ़े
तीन हाथ के शरीरवाला अत्यंत क्षुदर् मंै और कहाँ आपकी अनन्त मिहमा। वृित्तयों की पकड़ मंे न आनेवाले
परमात्मन् ! जब बच्चा माता के पेट मंे रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे
अपराध समझती है या उसके िलए वह कोई अपराध होता है? 'है' और 'नहीं है' – इन शब्दों से कही जाने वाली
कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो?
शर्ुितयाँ कहती हंै िक िजस समय तीनों लोक पर्लयकालीन जल मंे लीन थे, उस समय उस जल मंे िस्थत शर्ीनारायण
के नािभकमल से बर्ह्म का जन्म हुआ। उनका यह कहना िकसी पर्कार असत्य नहीं हो सकता। तब आप ही
बतलाइये, पर्भो ! क्या मंै आपका पुतर् नहीं हँू?
                              नारायणस्त्वं न िह सवर्देिहनामात्मास्यधीशािखललोकसाक्षी।
                               नारायणोङ्गं नरभूजलायात्तच्चािप सत्यं न तदैव माया।।
पर्भो ! आप समस्त जीवों के आत्मा हंै। इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-आशर्य) हंै। आप समस्त जगत
के और जीवों अधीश्वर है, इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-पर्वतर्क) हंै। आप समस्त लोकों के साक्षी हंै,
इसिलए भी नारायण (नार-जीव और अयन-जानने वाला) है। नर से उत्पन्न होने वाले जल मंे िनवास करने के
कारण िजन्हंे नारायण (नार-जल और अयन-िनवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हंै। वह अंशरूप
से िदखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है।
                                                                                      (शर्ीमद् भागवतः 10.14.14)
भगवन् ! यिद आपका वह िवराट स्वरूप सचमुच उस समय कमलनाल के मागर् से उसे सौ वषर् तक जल मंे ढँूढता
रहा? िफर मंैने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय मंे उसका दशर्न कैसे हो गया? और िफर कुछ ही क्षणों
मंे वह पुनः क्यों नहीं िदखा, अंतधार्न क्यों हो गया? माया का नाश करने वाले पर्भो ! दूर की बात कौन करे, अभी
इसी अवतार मंे आपने इस बाहर िदखने वाले जगत को अपने पेट मंे ही िदखला िदया, िजसे देखकर माता यशोदा
चिकत हो गयी थी। इससे यही तो िसद्ध होता है िक यह सम्पूणर् िवश्व केवल आपकी माया-ही-माया है। जब आपके
सिहत यह सम्पूणर् िवश्व जैसा बाहर िदखता है वैसा ही आपके उदर मंे भी िदखा, तब क्या यह सब आपकी माया के
िबना ही आपमंे पर्तीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है। उस िदन की बात जाने दीिजए, आज की ही लीिजए। क्या
आज आपने मेरे सामने अपने अितिरक्त सम्पूणर् िवश्व को अपनी माय का खेल नहीं िदखलाया है? पहले आप अकेले
थे। िफर सम्पूणर् ग्वाल-बाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मंैने देखा िक आपके वे सब रूप
चतुभर्ुज हंै और मेरे सिहत सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हंै। आपने अलग-अलग उतने ही बर्ह्माण्डों का रूप
भी धारण कर िलया था, परंतु अब आप केवल अपिरिमत अिद्वितय बर्ह्मरूप से ही शेष रह गये हंै। अनुकर्म
जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप पर्कृित मंे िस्थत जीव के रूप से पर्तीत होते हंै
और उन पर अपनी माया का पदार् डालकर सृिष्ट के समय मेरे (बर्ह्मा) रूप से पालन के समय अपने (िवष्णु) रूप से
और संहार के समय रूदर् के रूप मंे पर्तीत होते हंै।
पर्भो ! आप सारे जगत के स्वामी और िवधाता है। अजन्मा होने पर भी आपके देवता, ऋिष, पशु-पक्षी और जलचर
आिद योिनयों मंे अवतार गर्हण करते हंै। इसिलए की इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दंे और सत्पुरुषों
पर अनुगर्ह करंे। भगवन् ! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हंै? िजस समय आप अपनी माया का िवस्तार करके
लीला करने लगते हंै, उस समय ितर्लोकी मंे ऐसा कौन है, जो यह जान सके की आपकी लीला कहाँ, िकसिलए, कब
और िकतनी होती। इसिलए यह सम्पूणर् जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर दुःख देनेवाला है।
आप परमानंद, परम अज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हंै। यह माया से उत्पन्न एवं िवलीन होने पर भी आपमंे आपकी सत्ता
से सत्य के समान पर्तीत होता है। पर्भो ! आप ही एकमातर् सत्य हंै क्योंिक आप सबके आत्मा जो हंै। आप
पुराणपुरुष होने के कारण समस्त जन्मािद िवकारों से रिहत हंै। आप स्वयं पर्काश हं; इसिलए देश, काल और वस्तु
                                                                                   ै
जो परपर्काश हंै िकसी पर्कार आपको सीिमत नहीं कर सकते। आप उनके भी आिद पर्काशक हंै। आप अिवनाशी होने
के कारण िनत्य हंै। आपका आनंद अखिण्डत है। आपमंे न तो िकसी पर्कार का मल है और न अभाव। आप पूणर्
एक हंै। समस्त उपािधयों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हंै। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही
अपना स्वरूप है। जो गुरुरूप सूयर् से तत्त्वज्ञानरूप िदव्य दृिष्ट पर्ाप्त कर के उससे आपको अपने स्वरूप के रूप मंे
साक्षात्कार कर लेते हंै, वे इस झूठे संसार-सागर को मानों पार कर जाते हंै। (संसार-सागर के झूठा होने के कारण
इससे पार जाना भी अिवचार-दशा की दृिष्ट से ही है।) जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप मंे नहीं जानते, उन्हंे
उस अज्ञान के कारण ही इस नामरूपात्मक अिखल पर्पंच की उत्पित्त का भर्म हो जाता है। िकंतु ज्ञान होते ही इसका
आत्यंितक पर्लय हो जाता है। जैसे रस्सी मंे भर्म के कारण ही साँप की पर्तीित होती है और भर्म के िनवृत्त होते ही
उसकी िनवृित्त हो जाती है। संसार सम्बन्धी बंधन और उससे मोक्ष – ये दोनों ही नाम अज्ञान से किल्पत हंै।
वास्तव मंे ये अज्ञान के ही दो नाम हंै। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से िभन्न अिस्तत्व नहीं रखते। जैसे
सूयर् मंे िदन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही िवचार करने पर अखण्ड िचत्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व मंे न बंधन
है और न तो मोक्ष। भगवन् िकतने आश्चयर् की बात है िक आप हंै अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हंै
और शरीर आिद हंै पराये, िकंतु उनको आत्मा मान बैठते हंै और इसके बाद आपको कहीं अलग ढँूढने लगते हंै।
भला, अज्ञानी जीवों का यह िकतना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त ! आप तो सबके अंतःकरण मंे ही िवराजमान हंै।
इसिलए संत लोग आपके अितिरक्त जो अनुकर्म कुछ पर्तीत हो रहा है, उसका पिरत्याग करते हुए अपने भीतर
आपको ढँूढते हंै। क्योंिक यद्यिप रस्सी मंे साँप नहीं है, िफर भी उस पर्तीयमान साँप को िमथ्या िनश्चय िकये िबना
भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है?
अपने भक्तजनों के हृदय मंे स्वयं स्फुिरत होने वाले भगवन् ! आपके ज्ञान का स्वरूप और मिहमा ऐसी ही है, उससे
अज्ञानकिल्पत जगत का नाश हो जाता है। िफर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलों का तिनक सा भी कृपा
पर्साद पर्ाप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वही आपकी सिच्चदानंदमयी मिहमा का तत्त्व जान सकता है।
दूसरा कोई भी ज्ञान वैराग्यािद साधनरूप अपने पर्यत्न से बहुत काल तक िकतना भी अनुसंधान करता रहे, वह
आपकी मिहमा का यथाथर् ज्ञान नहीं पर्ाप्त कर सकता। इसिलए भगवन् ! मुझे इस जन्म मंे, दूसरे जन्म मंे अथवा
िकसी पशु-पक्षी आिद के जन्म मंे भी ऐसा सौभाग्य पर्ाप्त हो िक मंै आपके दासों मंे से कोई एक दास हो जाऊँ और
िफर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी ! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृिष्ट के पर्ारम्भ से लेकर अब तक
आपको पूणर्तः तृप्त न कर सके। परंतु आपने वर्ज की गायों और ग्वािलनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों
का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से िपया है। वास्तव मंे उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यंत धन्य हंै। अहो ! नंद
आिद वर्जवासी गोपों के धन्य भाग्य हंै वास्तव मंे उनका अहोभाग्य है, क्योंिक परमानन्दस्वरूप सनातन पिरपूणर् बर्ह्म
आप उनके अपने सगे सम्बन्धी और सृहृद हंै। हे अच्युत ! इन वर्जवािसयों के सौभाग्य की मिहमा तो अलग रही,
मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों के अिधष्ठातृ देवता के रूप मंे रहने वाले महादेव आिद हम लोग बड़े ही भाग्यवान हंै।
क्योंिक वर्जवािसयों की मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों को प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलों का अमृत से भी मीठा,
मिदरा से भी मादक मधुर मकरंद का पान करते रहते हंै। जब उसका एक-एक इिन्दर्य से पान करके हम धन्य-
धन्य हो रहे हंै, तब समस्त इिन्दर्यों से उसका सेवन करने वाले वर्जवािसयों की तो बात ही क्या है। पर्भो ! इस
वर्जभूिम के िकसी वन मंे और िवशेष करके गोकुल मंे िकसी भी योिन मंे जन्म हो जाने पर आपके िकसी-न-िकसी
पर्ेमी के चरणों की धूिल अपने ऊपर पड़ ही जायेगी। पर्भो ! आपके पर्ेमी वर्जवािसयों का सम्पूणर् जीवन आपका ही
जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमातर् सवर्स्व हंै। इसिलए उनके चरणों की धूिल िमलना आपके ही चरणों की
धूिल िमलना है और आपके चरणों की धूिल को तो शर्ुितयाँ भी अनािद काल से अब तक ढँूढ ही रही हंै। देवताओं के
भी आराध्यदेव पर्भो ! इन वर्जवािसयों को इनकी सेवा के बदले मंे आप क्या फल दंेगे? सम्पूणर् फलों के फलस्वरूप
! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा िचत्त मोिहत हो रहा है। आप उन्हंे अपना स्वरूप भी
देकर उऋण नहीं हो सकते। क्योंिक आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बिन्धयों अघासुर, बकासुर
आिद के साथ पर्ाप्त कर िलया, िजसका केवल वेष ही साध्वी स्तर्ी का था, पर जो हृदय से महान कर्ूर थी। िफर
िजन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, िपर्य, शरीर, पुतर्, पर्ाण और मन, सब कुछ आपके ही चरणों मंे समिपर्त कर िदया
है, अनुकर्म िजनका सब कुछ आपके ही िलए है, उन वर्जवािसयों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते
हंै। सिच्चदानंदस्वरूप श्यामसुन्दर ! तभी तक राग-द्वेष आिद दोष चोरों के समान सवर्स्व अपहरण करते रहते हंै,
तभी तक घर और उसके सम्बन्धी कैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों मंे बाँध रखते हंै और तभी तक मोह पैर की
बेिड़यों की तरह जकड़े रखता है, जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। पर्भो ! आप िवश्व के बखेड़े से सवर्था रिहत
है, िफर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनंद िवतरण करने के िलए पृथ्वी पर अवतार लेकर िवश्व के
समान ही लीला-िवलास का िवस्तार करते हंै।
मेरे स्वामी ! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं। जो लोग आपकी मिहमा जानते हंै, वे जानते रहंे; मेरे मन, वाणी
और शरीर तो आपकी मिहमा जानने मंे सवर्था असमथर् हंै। सिच्चदानंद – स्वरूप शर्ीकृष्ण ! आप सबके साक्षी हंै।
इसिलए आप सब कुछ जानते हंै। आप समस्त जगत के स्वामी है। यह सम्पूणर् पर्पंच आप मंे ही िस्थत है। आपसे
मंै और क्या कहँू? अब आप मुझे स्वीकार कीिजये। मुझे अपने लोक मंे जाने की आज्ञा दीिजए। सबके मन-पर्ाण को
अपनी रूप-माधुरी से आकिषर्त करने वाले श्यामसुन्दर ! आप यदुवंशरूपी कमल को िवकिसत करने वाले सूयर् हंै।
पर्भो ! पृथ्वी, देवता, बर्ाह्मण और पशुरूप समुदर् की अिभवृिद्ध करने वाले चंदर्मा भी आप ही हंै। आप पाखिण्डयों के
धमर्रूप राितर् का घोर अंधकार नष्ट करने के िलए सूयर् और चंदर्मा दोनों के ही समान हंै। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों
के नष्ट करने वाले आप चंदर्मा, सूयर् आिद आिद समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हंै। भगवन् ! मंै अपने
जीवनभर, महाकल्पपयर्न्त आपको नमस्कार ही करता रहँू।'
                                                                                   (शर्ीमद् भागवतः 10.14.1-40)
अनुकर्म
                                       ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

                                       देवताओं द्वारा स्तुित
बर्ह्मािदक देवताओं द्वारा िवष्णु भगवान से असुरों का िवनाश तथा संतों की रक्षा हेतु पर्ाथर्ना िकये जाने पर
सवर्शिक्तमान भगवान शर्ीकृष्ण वसुदेव-देवकी के घर पुतर् के रूप मंे अवतीणर् हुए थे। एक िदन सनकािदकों, देवताओं
और पर्जापितयों के साथ बर्ह्माजी, भूतगणों के साथ सवर्ेश्वर महादेवजी, मरुदगणों के साथ देवराज इन्दर्, आिदत्यगण,
आठों वसु, अिश्वनी कुमार, ऋभु, अंिगरा के वंशज ऋिष, ग्यारह रूदर्, िवश्वेदेव, साध्यगण, गन्धवर्, अप्सराएँ, नाग,
िसद्ध, चारण, गुह्यक, ऋिष, िपतर, िवद्याधर और िकन्नर आिद देवता मनुष्य सा मनोहर वेष धारण करने वाले और
अपने श्यामसुन्दर िवगर्ह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान शर्ीकृष्ण के दशर्न करने
द्वािरकापुरी मंे आते हंै तब वे पर्भु शर्ीकृष्ण की इस पर्कार से स्तुित करते हंै-
'स्वामी ! कमोर्ं के िवकट फंदों से छूटने की इच्छावाले मुमुक्षुजन भिक्तभाव से अपने हृदय मंे िजन चरणकमलों का
िचंतन करते रहते हंै। आपके उन्हीं चरणकमलों को हम लोगों ने अपनी बुिद्ध, इिन्दर्य, पर्ाण, मन और वाणी से
साक्षात् नमस्कार िकया है। अहो ! आश्चयर् है ! अिजत ! आप माियक रज आिद गुणों मंे िस्थत होकर इस अिचन्त्य
नाम-रूपात्मक पर्पंच की ितर्गुणमयी माया के द्वारा अपने-आप मंे ही रचना करते हंै, पालन करते और संहार करते हंै।
यह सब करते हुए भी इन कमोर्ं से से आप िलप्त नहीं होते हं; क्योंिक आप राग द्वेषािद दोषों से सवर्था मुक्त हंै और
                                                                 ै
अपने िनरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्द मंे मग्न रहते हंै। स्तुित करने योग्य परमात्मन् ! िजन मनुष्यों की
िचत्तवृित्त राग-द्वेषािद से कलुिषत है, वे उपासना, वेदाध्यान, दान, तपस्या और यज्ञ आिद कमर् भले ही करंे, परंतु
उनकी वैसी शुिद्ध नहीं हो सकती, जैसी शर्वण के द्वारा संपुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीलाकथा,
कीितर् के िवषय मंे िदनोंिदन बढ़कर पिरपूणर् होने वाली शर्द्धा से होती है। मननशील मुमुक्षुजन मोक्षपर्ािप्त के िलए
अपने पर्ेम से िपघले हुए हृदय क द्वारा िजन्हंे िलये-िलये िफरते हंै, पांचरातर् िविध से उपासना करने वाले भक्तजन
समान ऐश्वयर् की पर्ािप्त के िलए वासुदेव, संकषर्ण, पर्द्युम्न और अिनरुद्ध – इस चतुव्यर्ूह के रूप मंे िजनका पूजन करते
हंै और िजतेिन्दर्य और धीर पुरुष स्वगर्लोक का अितकर्मण करके भगवद्धाम की पर्ािप्त के िलए तीनों वेदों के द्वारा
बतलायी हुई िविध से अपने संयत हाथों मंे हिवष्य लेकर यज्ञकुण्ड मंे आहुित देते और उन्हीं का िचंतन करते हंै।
आपकी आत्मस्वरूिपणी माया के िजज्ञासु योगीजन हृदय के अन्तदर्ेश मंे दहरिवद्या आिद के द्वारा आपके चरणकमलों
का ही ध्यान करते हंै और आपके बड़े-बड़े पर्ेमी भक्तजन उन्हीं को अपनी परम इष्ट आराध्यदेव मानते हंै। पर्भो !
आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं, िवषय-वासनाओं को भस्म करने के िलए अिग्नस्वरूप हों।
वे हमारे पाप-तापों को अिग्न के समान भस्म कर दंे। पर्भो ! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल पर मुरझायी हुई
बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पधार् रखती हंै। िफर भी आप उनकी परवाह न कर भक्तों के द्वारा इस बासी
माला से की हुई पूजा भी पर्ेम से स्वीकार करते हंै; ऐसे भक्तवत्सल पर्भु के चरणकमल सवर्दा हमारी िवषय-वासनाओं
को जलाने वाले अिग्नस्वरूप हों। अनन्त ! वामनावतार मंे दैत्य राज बिल की दी हुई पृथ्वी को नापने के िलए जब
आपने पग उठाया था और वह सत्यलोक मंे पहँुच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था मानों, कोई बहुत बड़ा
िवजयध्वज हो। बर्ह्माजी द्वारा चरण पखारने के बाद उससे िगरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान
पड़ती थीं मानों, ध्वज मंे लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा नहीं हों। उन्हंे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी
और देवसेना िनभर्य। आपका यह चरणकमल साधुस्वभाव के पुरुषों के िलए आपके धाम वैकुण्ठलोक की पर्ािप्त का
और दुष्टों के िलए अधोगित का कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप
धो-बहा दे। बर्ह्मा आिद िजतने भी शरीरधारी हंै, वे सत्व, रज, तम – इन तीनों अनुकर्म गुणों के परस्पर िवरोधी
ितर्िवध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हंै। वे सुख-दुःख के थपेड़ों से बाहर नहीं हंै और ठीक वैसे ही आपके वश
मंे हंै, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश मंे होते हंै। आप उनके िलए भी कालस्वरूप हंै। उनके जीवन का
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  • 2. िनवेदन 'शर्ीमद् भागवत' के नवम स्कन्ध मंे भगवान स्वयं कहते हंै- साध्वो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। मदन्यत् ते न जानिन्त नाहं तेभ्यो मनागिप।। अथार्त् मेरे पर्ेमी भक्त तो मेरा हृदय हंै और उन पर्ेमी भक्तों का हृदय स्वयं मंै हँू। वे मेरे अितिरक्त और कुछ नहीं जानते तथा मंै उनके अितिरक्त और कुछ भी नहीं जानता। पुराणिशरोमिण 'शर्ीमद् भागवत' बर्ह्माजी, देवताओं, शुकदेवजी, िशवजी, सनकािद मुिनयों, देविषर् नारद, वृतर्ासुर, दैत्यराज बिल, भीष्म िपतामह, माता कुन्ती, भक्त पर्ह्लाद, धर्ुव, अकर्ूर आिद कई पर्भु पर्ेमी भक्तों द्वारा शर्ी नारायण भगवान की की गयी स्तुितयों का महान भण्डार है। पर्स्तुत पुस्तक धर्ुव, पर्ह्लाद, अकर्ूर आिद कुछ उत्तम परम भागवतों की स्तुितयों का संकलन है, िजसके शर्वण, पठन एवं मनन से आप-हम हमारा हृदय पावन करंे, िवषय रस का नहीं अिपतु भगवद रस का आस्वादन करे, भगवान के िदव्य गुणों को अपने जीवन मंे उतार कर अपना जीवन उन्नत बनायंे। भगवान की अनुपम मिहमा और परम अनुगर्ह का ध्यान करके इन भक्तों को जो आश्वासन िमला है, सच्चा माधुयर् एवं सच्ची शांित िमली है, जीवन का सच्चा मागर् िमला है, वह आपको भी िमले इसी सत्पर्ाथर्ना के साथ इस पुस्तक को करकमलों मंे पर्दान करते हुए सिमित आनंद का अनुभव करती है। हे साधक बंधुओ ! इस पर्काशन के िवषय मंे आपसे पर्ितिकर्याएँ स्वीकायर् हंै। शर्ी योग वेदान्त सेवा सिमित, अमदावाद आशर्म। अनुकर्म व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित। कुन्ती द्वारा स्तुित। शुकदेव जी द्वारा स्तुित। बर्ह्माजी द्वारा स्तुित। देवताओं द्वारा स्तुित। धर्ुव द्वारा स्तुित। महाराज पृथु द्वारा स्तुित। रूदर् द्वारा स्तुित। पर्ह्लाद द्वारा स्तुित। गजेन्दर् द्वारा स्तुित। अकर्ूरजी द्वारा स्तुित। नारदजी द्वारा स्तुित। दक्ष पर्जापित द्वारा स्तुित। देवताओं द्वारा गभर्-स्तुित। वेदों द्वारा स्तुित। चतुःश्लोकी भागवत। पर्ाथर्ना का पर्भाव। व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित भगवान सवर्ज्ञ, सवर्शिक्तमान एवं सिच्चदानंदस्वरूप हंै। एकमातर् वे ही समस्त पर्ािणयों के हृदय मंे िवराजमान आत्मा हंै। उनकी लीला अमोघ है। उनकी शिक्त और पराकर्म अनन्न है। महिषर् व्यासजी ने 'शर्ीमद् भागवत' के माहात्म्य तथा पर्थम स्कंध के पर्थम अध्याय के पर्ारम्भ मंे मंगलाचरण के रुप मंे भगवान शर्ीकृष्ण की स्तुित इस पर्कार से की हैः सिच्चदानंदरूपाय िवश्वोत्पत्यािदहेतवे। तापतर्यिवनाशाय शर्ीकृष्णाय वयं नुमः।। 'सिच्चदानंद भगवान शर्ीकृष्ण को हम नमस्कार करते हंै, जो जगत की उत्पित्त, िस्थित एवं पर्लय के हेतु तथा आध्याित्मक, आिधदैिवक और आिधभौितक – इन तीनों पर्कार के तापों का नाश करने वाले हंै।' (शर्ीमद् भागवत मा. 1.1) जन्माद्यस्य यतोऽन्वयािदतरतश्चाथर्ेष्विभज्ञः स्वराट् तेने बर्ह्म हृदा य आिदकवये मुह्यिन्त यत्सूरयः। तेजोवािरमृदां यथा िविनमयो यतर् ितर्सगोर्ऽमृषा
  • 3. धाम्ना स्वेन सदा िनरस्तकुहकं सत्यं परं धीमिह।। 'िजससे इस जगत का सजर्न, पोषण एवं िवसजर्न होता है क्योंिक वह सभी सत् रूप पदाथोर्ं मंे अनुगत है और असत् पदाथोर्ं से पृथक है; जड़ नहीं, चेतन है; परतंतर् नहीं, स्वयं पर्काश है; जो बर्ह्मा अथवा िहरण्यगभर् नहीं, पर्त्युत उन्हंे अपने संकल्प से ही िजसने उस वेदज्ञान का दान िकया है; िजसके सम्बन्ध मंे बड़े-बड़े िवद्वान भी मोिहत हो जाते हंै; जैसे तेजोमय सूयर्रिश्मयों मंे जल का, जल मंे स्थल का और स्थल मंे जल का भर्म होता है, वैसे ही िजसमंे यह ितर्गुणमयी जागर्त-स्वप्न-सुिषप्तरूपा सृिष्ट िमथ्या होने पर भी अिधष्ठान-सत्ता से सत्यवत् पर्तीत हो रही है, उस अपनी स्वयं पर्काश ज्योित से सवर्दा और सवर्था माया और मायाकायर् से पूणर्तः मुक्त रहने वाले सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हंै।' (शर्ीमद् भागवतः 1.1.1) अनुकर्म ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कुन्ती द्वारा स्तुित अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश को नष्ट करने के िलए बर्ह्मास्तर् का पर्योग िकया था। उत्तरा उस अस्तर् को अपनी ओर आता देख देवािधदेव, जगदीश्वर पर्भु शर्ीकृष्ण से पर्ाथर्ना करने लगी िक 'हे पर्भो ! आप सवर्शिक्तमान हंै। आप ही िनज शिक्त माया से संसार की सृिष्ट, पालन एवं संहार करते हंै। स्वािमन् ! यह बाण मुझे भले ही जला डाले, परंतु मेरे गभर् को नष्ट न करे – ऐसी कृपा कीिजये।' भक्तवत्सल भगवान शर्ीकृष्ण ने अपने भक्त की करूण पुकार सुन पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के िलए उत्तरा के गभर् को अपनी माया के कवच से ढक िदया। यद्यिप बर्ह्मास्तर् अमोघ है और उसके िनवारण का कोई उपाय भी नहीं है, िफर भी भगवान शर्ीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शांत हो गया। इस पर्कार अिभमन्यु की पत्नी उत्तरा गे गभर् मंे परीिक्षत की रक्षा कर जब भगवान शर्ीकृष्ण द्वािरका जाने लगेष तब पाण्डु पत्नी कुन्ती ने अपने पुतर्ों तथा दर्ौपदी के साथ भगवान शर्ी कृष्ण की बड़े मधुर शब्दों मंे इस पर्कार स्तुित कीः 'हे पर्भो ! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एकरस िस्थत हंै, िफर भी इिन्दर्यों और वृित्तयों से देखे नहीं जाते क्योंिक आप पर्कृित से परे आिदपुरुष परमेश्वर हंै। मंै आपको बारम्बार नमस्कार करती हँू। इिन्दर्यों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह मंे आप ही िवद्यमान रहते हंै और अपनी ही माया के पदर्े से अपने को ढके रहते हंै। मंै अबोध नारी आप अिवनाशी पुरुषोत्तम को भला, कैसे जान सकती हँू? अनुकर्म हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण िकये हुए नट को पर्त्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप िदखते हुए भी नहीं िदखते। आप शुद्ध हृदय वाले, िवचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय मंे अपनी पर्ेममयी भिक्त का सृजन करने के िलए अवतीणर् हुए हंै। िफर हम अल्पबुिद्ध िस्तर्याँ आपको कैसे पहचान सकती हंै? आप शर्ीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोिवन्द को हमारा बारम्बार पर्णाम है। िजनकी नािभ से बर्ह्मा का जन्मस्थान कमल पर्कट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हंै, िजनके नेतर् कमल के समान िवशाल और कोमल हंै, िजनके चरमकमलों मंे कमल का िचह्न है, ऐसे शर्ीकृष्ण को मेरा बार-बार नमस्कार है। हृिषकेष ! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और िचरकाल से शोकगर्स्त देवकी रक्षा की थी, वैसे ही आपने मेरी भी पुतर्ों के साथ बार-बार िवपित्तयों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हंै। आप सवर्शिक्तमान हंै। शर्ीकृष्ण ! कहाँ तक िगनाऊँ? िवष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, िहिडम्ब आिद राक्षसों की दृिष्ट से, दुष्टों की द्यूत-सभा से, वनवास की िवपित्तयों से और अनेक बार के युद्धों मंे अनेक महारिथयों के शस्तर्ास्तर्ों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के बर्ह्मास्तर् से भी आपने ही हमारी रक्षा की है। िवपदः सन्तु न शश्वत्ततर् ततर् जगद् गुरो। भवतो दशर्नं यत्स्यादपुनभर्वदशर्नम्।। हे जगदगुरो ! हमारे जीवन मंे सवर्दा पग-पग पर िवपित्तयाँ आती रहंे, क्योंिक िवपित्तयों मंे ही िनिश्चत रूप से आपके दशर्न हुआ करते हंै और आपके दशर्न हो जाने पर िफर जन्म-मृत्यु के चक्कर मंे नहीं आना पड़ता। अनुकर्म (शर्ीमद् भागवतः 1.8.25) ऊँचे कुल मंे जन्म, ऐश्वयर्, िवद्या और सम्पित्त के कारण िजसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता, क्योंिक आप तो उन लोगों को दशर्न देते हंै, जो अिकंचन हंै। आप िनधर्नों के परम धन हंै। माया का पर्पंच आपका स्पशर् भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप मंे ही िवहार करने वाले एवं परम शांतस्वरूप हंै। आप ही कैवल्य मोक्ष के अिधपित है। मंै आपको अनािद, अनन्त, सवर्व्यापक, सबके िनयन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हँू और बारम्बार नमस्कार करती हँू। संसार के समस्त पदाथर् और पर्ाणी आपस टकरा कर िवषमता के कारण परस्पर िवरूद्ध हो रहे हंै, परंतु आप सबमंे समान रूप से िवचर रहे हंै। भगवन् ! आप जब मनुष्यों जैसी लीला करते हंै, तब आप क्या करना चाहते हंै यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न िपर्य है और न अिपर्य। आपके सम्बन्ध मंे लोगों की बुिद्ध ही िवषम हुआ करती है। आप िवश्व के आत्मा हंै, िवश्वरूप हंै। न आप जन्म लेते हंै और न कमर् करते हंै। िफर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋिष, जलचर आिद मंे आप जन्म लेते हंै और उन योिनयों के अनुरूप आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को िखजा िदया था और उन्होंने आपको बाँधने के िलए हाथ मंे रस्सी ली थी, तब आपकी आँखों मंे आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेतर् चंचल हो रहे थे और भय की
  • 4. भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका िलया था ! आपकी उस दशा का, लीला-छिव का ध्यान करके मंै मोिहत हो जाती हँू। भला, िजससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा ! आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों िलया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जैसे मलयाचल की कीितर् का िवस्तार करने के िलए उसमंे चंदन पर्कट होता, वैसे ही अपने िपर्य भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीितर् का िवस्तार करने के िलए ही आपने उनके वंश मंे अवतार गर्हण िकया है। दूसरे लोग यों कहते हंै िक वासुदेव और देवकी ने पूवर् जन्म मंे (सुतपा और पृिश्न के रूप मंे) आपसे यही वरदान पर्ाप्त िकया था, इसीिलए आप अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के िलए उनके पुतर् बने हंै। कुछ और लोग यों कहते हंै िक यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से समुदर् मंे डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी, पीिड़त हो रही थी, तब बर्ह्मा की पर्ाथर्ना से उसका भार उतारने के िलए ही आप पर्कट हुए। कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जो लोग इस संसार मंे अज्ञान, कामना और कमोर्ं के बंधन मंे जकड़े हुए पीिड़त हो रहे हंै, उन लोगों के िलए शर्वण और स्मरण करने योग्य लीला करने के िवचार से ही आपने अवतार गर्हण िकया है। भक्तजन बार-बार आपके चिरतर् का शर्वण, गान, कीतर्न एवं स्मरण करके आनंिदत होते रहते हंै, वे ही अिवलम्ब आपके उन चरणकमलों के दशर्न कर पाते हंै, जो जन्म-मृत्यु के पर्वाह को सदा के िलए रोक देते हंै। भक्तवांछा हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हं? आप जानते हंै िक आपके चरमकमलों के अितिरक्त हमंे और िकसी ै का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही िवरोधी हो गये हंै। जैसे जीव के िबना इिन्दर्याँ शिक्तहीन हो जाती हंै, वैसे ही आपके दशर्न िबना यदुवंिशयों के और हमारे पुतर् पाण्डवों के नाम तथा रूप का अिस्तत्व ही क्या रह जाता है। गदाधर ! आपके िवलक्षण चरणिचह्नों से िचिह्नत यह कुरुजांगल देश की भूिम आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी। आपकी दृिष्ट के पर्भाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता- वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पवर्त, नदी और समुदर् भी आपकी दृिष्ट से ही वृिद्ध को पर्ाप्त हो रहे हंै। आप िवश्व के स्वामी हंै, िवश्व के आत्मा हंै और िवश्वरूप हंै। यदुवंिशयों और पाण्डवों मंे मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीिजये। शर्ीकृष्ण ! जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुदर् मंे िगरती रहती है, वैसे ही मेरी बुिद्ध िकसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही िनरंतर पर्ेम करती रहे। अनुकर्म शर्ीकृष्ण ! अजर्ुन के प्यारे सखा, यदुवंशिशरोमणे ! आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के िलए अिग्नरूप है। आपकी शिक्त अनन्त है। गोिवन्द ! आपका यह अवतार गौ, बर्ाह्मण और देवताओं का दुःख िमटाने के िलए ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मंै आपको नमस्कार करती हँू। (शर्ीमद् भागवतः 1.8.18.43) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ शुकदेवजी द्वारा स्तुित उत्तरानन्दन राजा परीिक्षत ने भगवत्स्वरूप मुिनवर शुकदेवजी से सृिष्टिवषयक पर्श्न पूछा िक अनन्तशिक्त परमात्मा कैसे सृिष्ट की उत्पित्त, रक्षा एवं संहार करते हंै और वे िकन-िकन शिक्तयों का आशर्य लेकर अपने-आपको ही िखलौने बनाकर खेलते हंै? इस पर्कार परीिक्षत द्वारा भगवान की लीलाओं को जानने की िजज्ञासा पर्कट करने पर वेद और बर्ह्मतत्त्व के पूणर् ममर्ज्ञ शुकदेवजी लीलापुरुषोत्तम भगवान शर्ीकृष्ण की मंगलाचरण के रूप मंे इस पर्कार से स्तुित करते हंै- 'उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों मंे मेरे कोिट-कोिट पर्णाम हंै, जो संसार की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय की लीला करने के िलए सत्त्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शिक्तयों को स्वीकार कर बर्ह्मा, िवष्णु और शंकर का रूप धारण करते हंै। जो समस्त चर-अचर पर्ािणयों के हृदय मंे अंतयार्मीरूप से िवराजमान हंै, िजनका स्वरूप और उसकी उपलिब्ध का मागर् बुिद्ध के िवषय नहीं हंै, जो स्वयं अनन्त हंै तथा िजनकी मिहमा भी अनन्त है, हम पुनः बार-बार उनके चरणों मंे नमस्कार करते हंै। जो सत्पुरुषों का दुःख िमटाकर उन्हंे अपने पर्ेम का दान करते हंै, दुष्टों की सांसािरक बढ़ती रोककर उन्हंे मुिक्त देते हंै तथा जो लोग परमहंस आशर्म मंे िस्थत हंै, उन्हंे उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हंै। क्योंिक चर-अचर समस्त पर्ाणी उन्हीं की मूितर् हंै, इसिलए िकसी से भी उनका पक्षपात नहीं है। जो बड़े ही भक्तवत्सल हंै और हठपूवर्क भिक्तहीन साधन करने वाले लोग िजनकी छाया भी नहीं छू सकते; िजनके समान भी िकसी का ऐश्वयर् नहीं है, िफर उससे अिधक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वयर् से युक्त होकर जो िनरन्तर बर्ह्मस्वरूप अपने धाम मंे िवहार करते रहते हंै, उन भगवान शर्ीकृष्ण को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू। िजनका कीतर्न, स्मरण, दशर्न, वंदल, शर्वण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीितर् भगवान शर्ीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है। अनुकर्म िवचक्षणा यच्चरणोपसादनात् संगं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः। िवन्दिन्त िह बर्ह्मगितं गतक्लमास्तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।। तपिस्वनो दानपरा यशिस्वनो मनिस्वनो मन्तर्िवदः सुमंगलाः। क्षेमं न िवन्दिन्त िवना यदपर्णं तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।। िववेकी पुरुष िजनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसिक्त िनकाल डालते हंै और िबना िकसी पिरशर्म के ही बर्ह्मपद को पर्ाप्त कर लेते हंै, उन मंगलमय कीितर्वाले भगवान शर्ीकृष्ण को अनेक
  • 5. बार नमस्कार है। बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मंतर्वेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों मंे समिपर्त नहीं कर देते, तब तक उन्हंे कल्याण की पर्ािप्त नहीं होती। िजनके पर्ित आत्मसमपर्ण की ऐसी मिहमा है, उन कल्याणमयी कीितर्वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है। (शर्ीमद् भागवतः 2.4.16.17) िकरात, हूण, आंधर्, पुिलन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आिद नीच जाितयाँ तथा दूसरे पापी िजनके शरणागत भक्तों की शरण गर्हण करने से ही पिवतर् हो जाते हंै, उन सवर्शिक्तमान भगवान को बार-बार नमस्कार है। वे ही भगवान ज्ञािनयों के आत्मा हंै, भक्तों के स्वामी हंै, कमर्कािण्डयों के िलए वेदमूितर् हंै। बर्ह्मा, शंकर आिद बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का िचंतन करते और आश्चयर्चिकत होकर देखते रहते हंै। वे मुझ पर अपने अनुगर्ह की, पर्साद की वषार् करंे। जो समस्त सम्पित्तयों की स्वािमनी लक्ष्मीदेवी के पित हंै, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता है, पर्जा के रक्षक हंै, सबके अंतयार्मी और समस्त लोकों के पालनकतार् हंै तथा पृथ्वीदेवी के स्वामी हंै, िजन्होंने यदुवंश मंे पर्कट होकर अंधक, वृिष्ण एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमातर् आशर्य रहे हंै – वे भक्तवत्सल, संतजनों के सवर्स्व शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न हों। िवद्वान पुरुष िजनके चरणकमलों के िचंतनरूप समािध से शुद्ध हुई बुिद्ध के द्वारा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हंै तथा उनके दशर्न के अनन्तर अपनी-अपनी मित और रूिच के अनुसार िजनके स्वरूप का वणर्न करते रहते हंै, वे पर्ेम और मुिक्त को लुटाने वाले भगवान शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न हों। िजन्होंने सृिष्ट के समय बर्ह्मा के हृदय मंे पूवर्काल की स्मृित जागर्त करने के िलए ज्ञान की अिधष्ठातर्ी देवी को पर्ेिरत िकया और वे अपने अंगों के सिहत वेद के रूप मंे उनके मुख से पर्कट हुई, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करंे, मेरे हृदय मंे पर्कट हों। भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का िनमार्ण करके इनमंे जीवरूप से शयन करते हंै और पाँच ज्ञानेिन्दर्यों, पाँच कमर्ेिन्दर्यों, पाँच, पर्ाण और एक मन – इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह िवषयों का भोग करते हंै। वे सवर्भूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दंे। संतपुरुष िजनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हंै, उन वासुदेवावतार सवर्ज्ञ भगवान व्यास के चरणों मंे मेरा बार-बार नमस्कार है।' अनुकर्म (शर्ीमद् भागवतः 2.4.12-24) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बर्ह्मा जी द्वारा स्तुित सृिष्ट से पूवर् यह सम्पूणर् िवश्व जल मंे डूबा हुआ था। उस समय एकमातर् शर्ीनारायण देव शेषशय्या पर लेटे हुए थे। एक सहसर् चतुयर्ुगपयर्न्त जल मंे शयन करने के अनन्तर उन्हीं के द्वारा िनयुक्त उनकी कालशिक्त ने उन्हंे जीवों के कमोर्ं की पर्वृित्त के िलए पर्ेिरत िकया। िजस समय भगवान की दृिष्ट अपने मंे िनिहत िलंग शरीरािद सूक्ष्म तत्त्व पर पड़ी, तब वह सूक्ष्म तत्त्व कालािशर्त रजोगुण से क्षुिभत होकर सृिष्ट-रचना के िनिमत्त कमलकोश के रूप मंे सहसा ऊपर उठा। कमल पर बर्ह्मा जी िवराजमान थे। वे सोचने लगेः 'इस कमल की किणर्का पर बैठा हुआ मंै कौन हँू? यह कमल भी िबना िकसी अन्य आधार के जल मंे कहाँ से उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई वस्तु होनी चािहए, िजसके आधार पर यह िस्थत है।' अपने उत्पित्त-स्थान को खोजते-खोजते बर्ह्माजी को बहुत काल बीत गया। अन्त मंे पर्ाणवायु को धीरे-धीरे जीतकर िचत्त को िनःसंकल्प िकया और समािध मंे िस्थत हो गये। तब उन्होंने अपने उस अिधष्ठान को, िजसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अंतःकरण मंे पर्कािशत होते देखा तथा शर्ीहिर मंे िचत्त लगाकर उन परम पूजनीय पर्भु की स्तुित करने लगेः 'आप सवर्दा अपने स्वरूप के पर्काश से ही पर्ािणयों के भेद भर्मरूप अंधकार का नाश करते रहते हंै तथा ज्ञान के अिधष्ठान साक्षात् परम पुरुष हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू। संसार की उत्पित्त, िस्थित और संहार के िनिमत्त से जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है, अतः आप परमेश्वर को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू। यस्यावतारगुणकमर्िवडम्बनािन नामािन येऽसुिवगमे िववशा गृणिन्त। ते नैकजन्मशमलं सहसैव िहत्वा संयान्त्यपावृतमृतं तमजं पर्पद्ये।। जो लोग पर्ाणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कमोर्ं को सूिचत करने वाले देवकीनन्दन, जनादर्न, कंसिनकंदन आिद नामों का िववश होकर भी उच्चारण करते हंै, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायािद आवरणों से रिहत बर्ह्मपद पर्ाप्त करते हंै। आप िनत्य अजन्मा हंै, मंै आपकी शरण लेता हँू। अनुकर्म (शर्ीमद् भागवतः 3.9.15) भगवन् ! इस िवश्ववृक्ष के रूप मंे आप ही िवराजमान हंै। आप ही अपनी मूल पर्कृित को स्वीकार करके जगत की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय के िलए मेरे, अपने और महादेवजी के रूप मंे तीन पर्धान शाखाओं मंे िवभक्त हुए हंै और िफर पर्जापित एवं मनु आिद शाखा-पर्शाखाओं के रूप मंे फैलकर बहुत िवस्तृत हो गये हंै। मंै आपको नमस्कार करता हँू। भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के िलए कल्याणकारी स्वधमर् बताया है, िकंतु वे इस ओर से उदासीन रहकर सवर्दा िवपरीत (िनिषद्ध) कमोर्ं मंे लगे रहते हंै। ऐसी पर्माद की अवस्था मंे पड़े हुए इन जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघर्ता से काटता रहता है, वह बलवान काल भी आपका ही रूप है; मंै उसे नमस्कार करता हँू। यद्यिप मंै सत्यलोक का अिधष्ठाता हँू, जो पराद्धर्पयर्न्त रहने वाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हँू। उससे बचने और आपको पर्ाप्त करने के िलए ही मंैने बहुत समय तक तपस्या की है। आप ही अिधयज्ञरूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू।
  • 6. आप पूणर्काम हंै, आपको िकसी िवषयसुख की इच्छा नहीं है तो भी आपने अपनी बनायी हुई धमर्मयार्दा की रक्षा के िलए पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आिद जीवयोिनयों मंे अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हंै। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को मेरा नमस्कार है। पर्भो ! आप अिवद्या, अिस्मता, राग द्वेष और अिभिनवेश – पाँचों मंे से िकसी के भी अधीन नहीं हंै; तथािप इस समय जो सारे संसार को अपने उदर मंे लीन कर भयंकर तरंगमालाओं से िवक्षुब्ध पर्लयकालीन जल मंे अनन्तिवगर्ह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हंै, वह पूवर्काल की कमर् परम्परा से शर्िमत हुए जीवों को िवशर्ाम देने के िलए ही है। आपके नािभकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूणर् िवश्व आपके उदर मंे समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मंै ितर्लोकी की रचना रूप उपकार मंे पर्वृत्त हुआ हँू। इस समय योगिनदर्ा का अंत हो जाने के कारण आपके नेतर्कमल िवकिसत हो रहे हंै आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूणर् सुहृद और आत्मा हंै तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हंै। अतः अपने िजस ज्ञान और ऐश्वयर् से आप िवश्व को आनिन्दत करते हंै, उसी से मेरी बुिद्ध को भी युक्त करंे – िजससे मंै पूवर्कल्प के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकँू। आप भक्तवांछाकल्पतरु हंै। अपनी शिक्त लक्ष्मीजी के सिहत अनेक गुणावतार लेकर आप जो-जो अदभुत कमर् करंेगे, मेरा यह जगत की रचना करने का उद्यम भी उन्हीं मंे से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे िचत्त को पर्ेिरत करंे, शिक्त पर्दान करंे, िजससे मंै सृिष्ट रचनािवषयक अिभमानरूप मल से दूर रह सकँू। पर्भो ! इस पर्लयकालीन जल मंे शयन करते हुए आप अनन्तशिक्त परमपुरुष के नािभ-कमल से मेरा पर्ादुभार्व हुआ है और मंै हँू भी आपकी ही िवज्ञानशिक्त अतः इस जगत के िविचतर् रूप का िवस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हंै। आप परम पर्ेममयी मुस्कान के सिहत अपने नेतर्कमल खोिलये और शेषशय्या से उठकर िवश्व के उदभव के िलए अपनी सुमधुर वाणी से मेरा िवषाद दूर कीिजए।' अनुकर्म (शर्ीमद् भागवतः 3.9.14-25) भगवान की मिहमा असाधारण है। वे स्वयंपर्काश, आनंदस्वरूप और माया से अतीत है। उन्हीं की माया मंे तो सभी मुग्ध हो रहे हंै परंतु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पशर् नहीं कर सकता। बर्ह्मजी उन्हीं भगवान शर्ीकृष्ण को ग्वाल-बाल और बछड़ों का अपहरण कर, अपनी माया से मोिहत करने चले थे। िकन्तु उनको मोिहत करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोिहत हो गये। बर्ह्माजी समस्त िवद्याओं के अिधपित हंै तथािप भगवान के िदव्य स्वरूप को वे तिनक भी न समझ सके िक यह क्या है। यहाँ तक िक वे भगवान के मिहमामय रूपों को देखने मंे भी असमथर् हो गये। उनकी आँखंे मँुद गयीं। भगवान शर्ीकृष्ण ने बर्ह्माजी का मोह और असमथर्ता को जान कर अपनी माया का पदार् हटा िदया। इससे बर्ह्माजी को बर्ह्मज्ञान हुआ। िफर बर्ह्माजी ने अपने चारों मुकुटों के अगर्भाग से भगवान के चरणकमलों का स्पशर् करके नमस्कार िकया और आनंद के आँसुओं की धारा से उन्हंे नहला िदया। बहुत देर तक वे भगवान के चरणों मंे ही पड़े रहे। िफर धीरे-धीरे उठे और अपने नेतर्ों के आँसू पोंछे। पर्ेम और मुिक्त के एकमातर् उदगम भगवान को देखकर उनका िसर झुक गया। अंजिल बाँधकर बड़ी नमर्ता और एकागर्ता के साथ गदगद वाणी से वे भगवान की स्तुित करने लगेः 'पर्भो ! एकमातर् आप ही स्तुित करने योग्य हंै। मंै आपके चरणों मंे नमस्कार करता हँू। आपका यह शरीर वषार्कालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर पीताम्बर िस्थर िबजली के समान िझलिमल-िझलिमल करता हुआ शोभा पाता है, आपके गले मंे घँुघची की माला, कानों मंे मकराकृित कुण्डल तथा िसर पर मोरपंखों का मुकुट है, इन सबकी कांित से आपके मुख पर अनोखी छटा िछटक रही है। वक्षः स्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्हीं-सी हथेली पर दही-भात का कौर, बगल मंे बंेत और िसंगी तथा कमर की फंेट मंे आपकी पहचान बतानेवाली बाँसुरी शोभा पर रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेष। (मंै और कुछ नहीं जानता बस, मंै तो इन्हीं चरणों पर न्योछावर हँू।) स्वयंपर्काश परमात्मन् ! आपका यह शर्ीिवगर्ह भक्तजनों की लालसा-अिभलाषा पूणर् करने वाला है। यह आपकी िचन्मय इच्छा का मूितर्मान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात कृपा पर्साद है। मुझे अनुगृहीत करने के िलए ही आपने इसे पर्कट िकया है। कौन कहता है िक यह पंचभूतों की रचना है? पर्भो ! यह तो अपर्ाकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मंै या और कोई समािध लगाकर भी आपके इस सिच्चदानंद-िवगर्ह की मिहमा नहीं जान सकता। िफर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही मिहमा को तो कोई एकागर् मन से भी कैसे जान सकता है। ज्ञाने पर्यासमुदापास्य नमन्त एव जीविन्त सन्मुखिरतां भवदीयवातार्म्। स्थाने िस्थताः शर्ुितगतां तनुवांगनोिभयर्े पर्ायशोऽिजत िजतोऽप्यिस तैिस्तर्लोक्याम्।। पर्भो ! जो लोग ज्ञान के िलए पर्यत्न न करके अपने स्थान मंे ही िस्थत रहकर केवल सत्संग करते हंै; यहाँ तक िक उसे ही अपना जीवन बना लेते हंै, उसके िबना जी नहीं सकते। पर्भो ! यद्यिप आप पर ितर्लोकी मंे कोई कभी िवजय नहीं पर्ाप्त कर सकता, िफर भी वे आप पर िवजय पर्ाप्त कर लेते हंै, आप उनके पर्ेम के अधीन हो जाते हंै। अनुकर्म (शर्ीमद् भागवतः10.15.3) भगवन् ! आपकी भिक्त सब पर्कार के कल्याण का मूलसर्ोत-उदगम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की पर्ािप्त के िलए शर्म उठाते और दुःख भोगते हंै, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है और कुछ नहीं। जैसे, थोथी भूसी कूटने वाले को केवल शर्म ही िमलता है, चावल नहीं।
  • 7. हे अच्युत ! हे अनन्त ! इस लोक मंे पहले भी बहुत-से योगी हो गये हंै। जब उन्हंे योगािद के द्वारा आपकी पर्ािप्त न हुई, तब उन्होंने अपने लौिकक और वैिदक समस्त कमर् आपके चरणों मंे समिपर्त कर िदये। उन समिपर्त कमोर्ं से तथा आपकी लीला-कथा से उन्हंे आपकी भिक्त पर्ाप्त हुई। उस भिक्त से ही आपके स्वरूप का ज्ञान पर्ाप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से आपके परम पद की पर्ािप्त कर ली। हे अनन्त ! आपके सगुण-िनगर्ुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान किठन होने पर भी िनगर्ुण स्वरूप की मिहमा इिन्दर्यों का पर्त्याहार करके शुद्ध अंतःकरण से जानी जा सकती है। (जानने की पर्िकर्या यह है िक) िवशेष आकार के पिरत्यागपूवर्क आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार िकया जाय। यह आत्माकारता घट-पटािद रूप के समान ज्ञेय नहीं है, पर्त्युत आवरण का भंगमातर् है। यह साक्षात्कार 'यह बर्ह्म है', 'मंै बर्ह्म को जानता हँू' इस पर्कार नहीं िकंतु स्वयंपर्काश रूप से ही होता है। परंतु भगवन् ! िजन समथर् पुरुषों ने अनेक जन्मों तक पिरशर्म करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के िहमकण (ओस की बँूदंे) तथा उसमंे चमकने वाले नक्षतर् एवं तारों तक िगन डाला है, उनमंे भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को िगन सके? पर्भो ! आप केवल संसार के कल्याण के िलए ही अवतीणर् हुए हंै। सो भगवन् ! आपकी मिहमा का ज्ञान तो बड़ा ही किठन है। इसिलए जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भलीभाँित अनुभव करता रहता है और पर्ारब्ध के अनुसार जो कुछ सोख या दुःख पर्ाप्त होता है, उसे िनिवर्कार मन से भोग लेता है एवं जो पर्ेमपूणर् हृदय, गदगद वाणी और पुलिकत शरीर से अपने को आपके चरणों मंे समिपर्त करता रहता है – इस पर्कार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अिधकारी हो जाता है, जैसे अपने िपता की सम्पित्त का पुतर् ! अनुकर्म पर्भो ! मेरी कुिटलता तो देिखये। आप अनन्त आिदपुरुष परमात्मा हंै और मेरे जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चकर् मंे हंै। िफर भी मंैने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वयर् देखना चाहा। पर्भो ! मंै आपके सामने हँू ही क्या। क्या आग के सामने िचनगारी की भी कुछ िगनती है? भगवन् ! मंै रजोगुण से उत्पन्न हुआ हँू, आपके स्वरूप को मंै ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मंै अजन्मा जगत्कतार् हँू – इस मायाकृत मोह के घने अंधकार से मंै अंधा हो रहा था। इसिलए आप यह समझकर िक 'यह मेरे ही अधीन है, मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चािहए', मेरा अपराध क्षमा कीिजए। मेरे स्वामी ! पर्कृित, महत्तत्व, अहंकार, आकाश, वायु, अिग्न, जल और पृथ्वीरूप आवरणों से िघरा हुआ यह बर्ह्माण्ड ही मेरा शरीर है और आपके एक-एक रोम के िछदर् मंे ऐसे-ऐसे अगिणत बर्ह्माण्ड उसी पर्कार उड़ते-पड़ते रहते हंै, जैसे झरोखे की जाली मंे से आनेवाली सूयर् की िकरणों मंे रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए िदखायी पड़ते हंै। कहाँ अपने पिरमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीरवाला अत्यंत क्षुदर् मंै और कहाँ आपकी अनन्त मिहमा। वृित्तयों की पकड़ मंे न आनेवाले परमात्मन् ! जब बच्चा माता के पेट मंे रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके िलए वह कोई अपराध होता है? 'है' और 'नहीं है' – इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? शर्ुितयाँ कहती हंै िक िजस समय तीनों लोक पर्लयकालीन जल मंे लीन थे, उस समय उस जल मंे िस्थत शर्ीनारायण के नािभकमल से बर्ह्म का जन्म हुआ। उनका यह कहना िकसी पर्कार असत्य नहीं हो सकता। तब आप ही बतलाइये, पर्भो ! क्या मंै आपका पुतर् नहीं हँू? नारायणस्त्वं न िह सवर्देिहनामात्मास्यधीशािखललोकसाक्षी। नारायणोङ्गं नरभूजलायात्तच्चािप सत्यं न तदैव माया।। पर्भो ! आप समस्त जीवों के आत्मा हंै। इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-आशर्य) हंै। आप समस्त जगत के और जीवों अधीश्वर है, इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-पर्वतर्क) हंै। आप समस्त लोकों के साक्षी हंै, इसिलए भी नारायण (नार-जीव और अयन-जानने वाला) है। नर से उत्पन्न होने वाले जल मंे िनवास करने के कारण िजन्हंे नारायण (नार-जल और अयन-िनवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हंै। वह अंशरूप से िदखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है। (शर्ीमद् भागवतः 10.14.14) भगवन् ! यिद आपका वह िवराट स्वरूप सचमुच उस समय कमलनाल के मागर् से उसे सौ वषर् तक जल मंे ढँूढता रहा? िफर मंैने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय मंे उसका दशर्न कैसे हो गया? और िफर कुछ ही क्षणों मंे वह पुनः क्यों नहीं िदखा, अंतधार्न क्यों हो गया? माया का नाश करने वाले पर्भो ! दूर की बात कौन करे, अभी इसी अवतार मंे आपने इस बाहर िदखने वाले जगत को अपने पेट मंे ही िदखला िदया, िजसे देखकर माता यशोदा चिकत हो गयी थी। इससे यही तो िसद्ध होता है िक यह सम्पूणर् िवश्व केवल आपकी माया-ही-माया है। जब आपके सिहत यह सम्पूणर् िवश्व जैसा बाहर िदखता है वैसा ही आपके उदर मंे भी िदखा, तब क्या यह सब आपकी माया के िबना ही आपमंे पर्तीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है। उस िदन की बात जाने दीिजए, आज की ही लीिजए। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अितिरक्त सम्पूणर् िवश्व को अपनी माय का खेल नहीं िदखलाया है? पहले आप अकेले थे। िफर सम्पूणर् ग्वाल-बाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मंैने देखा िक आपके वे सब रूप चतुभर्ुज हंै और मेरे सिहत सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हंै। आपने अलग-अलग उतने ही बर्ह्माण्डों का रूप भी धारण कर िलया था, परंतु अब आप केवल अपिरिमत अिद्वितय बर्ह्मरूप से ही शेष रह गये हंै। अनुकर्म
  • 8. जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप पर्कृित मंे िस्थत जीव के रूप से पर्तीत होते हंै और उन पर अपनी माया का पदार् डालकर सृिष्ट के समय मेरे (बर्ह्मा) रूप से पालन के समय अपने (िवष्णु) रूप से और संहार के समय रूदर् के रूप मंे पर्तीत होते हंै। पर्भो ! आप सारे जगत के स्वामी और िवधाता है। अजन्मा होने पर भी आपके देवता, ऋिष, पशु-पक्षी और जलचर आिद योिनयों मंे अवतार गर्हण करते हंै। इसिलए की इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दंे और सत्पुरुषों पर अनुगर्ह करंे। भगवन् ! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हंै? िजस समय आप अपनी माया का िवस्तार करके लीला करने लगते हंै, उस समय ितर्लोकी मंे ऐसा कौन है, जो यह जान सके की आपकी लीला कहाँ, िकसिलए, कब और िकतनी होती। इसिलए यह सम्पूणर् जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर दुःख देनेवाला है। आप परमानंद, परम अज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हंै। यह माया से उत्पन्न एवं िवलीन होने पर भी आपमंे आपकी सत्ता से सत्य के समान पर्तीत होता है। पर्भो ! आप ही एकमातर् सत्य हंै क्योंिक आप सबके आत्मा जो हंै। आप पुराणपुरुष होने के कारण समस्त जन्मािद िवकारों से रिहत हंै। आप स्वयं पर्काश हं; इसिलए देश, काल और वस्तु ै जो परपर्काश हंै िकसी पर्कार आपको सीिमत नहीं कर सकते। आप उनके भी आिद पर्काशक हंै। आप अिवनाशी होने के कारण िनत्य हंै। आपका आनंद अखिण्डत है। आपमंे न तो िकसी पर्कार का मल है और न अभाव। आप पूणर् एक हंै। समस्त उपािधयों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हंै। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है। जो गुरुरूप सूयर् से तत्त्वज्ञानरूप िदव्य दृिष्ट पर्ाप्त कर के उससे आपको अपने स्वरूप के रूप मंे साक्षात्कार कर लेते हंै, वे इस झूठे संसार-सागर को मानों पार कर जाते हंै। (संसार-सागर के झूठा होने के कारण इससे पार जाना भी अिवचार-दशा की दृिष्ट से ही है।) जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप मंे नहीं जानते, उन्हंे उस अज्ञान के कारण ही इस नामरूपात्मक अिखल पर्पंच की उत्पित्त का भर्म हो जाता है। िकंतु ज्ञान होते ही इसका आत्यंितक पर्लय हो जाता है। जैसे रस्सी मंे भर्म के कारण ही साँप की पर्तीित होती है और भर्म के िनवृत्त होते ही उसकी िनवृित्त हो जाती है। संसार सम्बन्धी बंधन और उससे मोक्ष – ये दोनों ही नाम अज्ञान से किल्पत हंै। वास्तव मंे ये अज्ञान के ही दो नाम हंै। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से िभन्न अिस्तत्व नहीं रखते। जैसे सूयर् मंे िदन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही िवचार करने पर अखण्ड िचत्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व मंे न बंधन है और न तो मोक्ष। भगवन् िकतने आश्चयर् की बात है िक आप हंै अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हंै और शरीर आिद हंै पराये, िकंतु उनको आत्मा मान बैठते हंै और इसके बाद आपको कहीं अलग ढँूढने लगते हंै। भला, अज्ञानी जीवों का यह िकतना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त ! आप तो सबके अंतःकरण मंे ही िवराजमान हंै। इसिलए संत लोग आपके अितिरक्त जो अनुकर्म कुछ पर्तीत हो रहा है, उसका पिरत्याग करते हुए अपने भीतर आपको ढँूढते हंै। क्योंिक यद्यिप रस्सी मंे साँप नहीं है, िफर भी उस पर्तीयमान साँप को िमथ्या िनश्चय िकये िबना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय मंे स्वयं स्फुिरत होने वाले भगवन् ! आपके ज्ञान का स्वरूप और मिहमा ऐसी ही है, उससे अज्ञानकिल्पत जगत का नाश हो जाता है। िफर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलों का तिनक सा भी कृपा पर्साद पर्ाप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वही आपकी सिच्चदानंदमयी मिहमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान वैराग्यािद साधनरूप अपने पर्यत्न से बहुत काल तक िकतना भी अनुसंधान करता रहे, वह आपकी मिहमा का यथाथर् ज्ञान नहीं पर्ाप्त कर सकता। इसिलए भगवन् ! मुझे इस जन्म मंे, दूसरे जन्म मंे अथवा िकसी पशु-पक्षी आिद के जन्म मंे भी ऐसा सौभाग्य पर्ाप्त हो िक मंै आपके दासों मंे से कोई एक दास हो जाऊँ और िफर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी ! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृिष्ट के पर्ारम्भ से लेकर अब तक आपको पूणर्तः तृप्त न कर सके। परंतु आपने वर्ज की गायों और ग्वािलनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से िपया है। वास्तव मंे उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यंत धन्य हंै। अहो ! नंद आिद वर्जवासी गोपों के धन्य भाग्य हंै वास्तव मंे उनका अहोभाग्य है, क्योंिक परमानन्दस्वरूप सनातन पिरपूणर् बर्ह्म आप उनके अपने सगे सम्बन्धी और सृहृद हंै। हे अच्युत ! इन वर्जवािसयों के सौभाग्य की मिहमा तो अलग रही, मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों के अिधष्ठातृ देवता के रूप मंे रहने वाले महादेव आिद हम लोग बड़े ही भाग्यवान हंै। क्योंिक वर्जवािसयों की मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों को प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलों का अमृत से भी मीठा, मिदरा से भी मादक मधुर मकरंद का पान करते रहते हंै। जब उसका एक-एक इिन्दर्य से पान करके हम धन्य- धन्य हो रहे हंै, तब समस्त इिन्दर्यों से उसका सेवन करने वाले वर्जवािसयों की तो बात ही क्या है। पर्भो ! इस वर्जभूिम के िकसी वन मंे और िवशेष करके गोकुल मंे िकसी भी योिन मंे जन्म हो जाने पर आपके िकसी-न-िकसी पर्ेमी के चरणों की धूिल अपने ऊपर पड़ ही जायेगी। पर्भो ! आपके पर्ेमी वर्जवािसयों का सम्पूणर् जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमातर् सवर्स्व हंै। इसिलए उनके चरणों की धूिल िमलना आपके ही चरणों की धूिल िमलना है और आपके चरणों की धूिल को तो शर्ुितयाँ भी अनािद काल से अब तक ढँूढ ही रही हंै। देवताओं के भी आराध्यदेव पर्भो ! इन वर्जवािसयों को इनकी सेवा के बदले मंे आप क्या फल दंेगे? सम्पूणर् फलों के फलस्वरूप ! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा िचत्त मोिहत हो रहा है। आप उन्हंे अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं हो सकते। क्योंिक आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बिन्धयों अघासुर, बकासुर आिद के साथ पर्ाप्त कर िलया, िजसका केवल वेष ही साध्वी स्तर्ी का था, पर जो हृदय से महान कर्ूर थी। िफर िजन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, िपर्य, शरीर, पुतर्, पर्ाण और मन, सब कुछ आपके ही चरणों मंे समिपर्त कर िदया है, अनुकर्म िजनका सब कुछ आपके ही िलए है, उन वर्जवािसयों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते
  • 9. हंै। सिच्चदानंदस्वरूप श्यामसुन्दर ! तभी तक राग-द्वेष आिद दोष चोरों के समान सवर्स्व अपहरण करते रहते हंै, तभी तक घर और उसके सम्बन्धी कैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों मंे बाँध रखते हंै और तभी तक मोह पैर की बेिड़यों की तरह जकड़े रखता है, जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। पर्भो ! आप िवश्व के बखेड़े से सवर्था रिहत है, िफर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनंद िवतरण करने के िलए पृथ्वी पर अवतार लेकर िवश्व के समान ही लीला-िवलास का िवस्तार करते हंै। मेरे स्वामी ! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं। जो लोग आपकी मिहमा जानते हंै, वे जानते रहंे; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी मिहमा जानने मंे सवर्था असमथर् हंै। सिच्चदानंद – स्वरूप शर्ीकृष्ण ! आप सबके साक्षी हंै। इसिलए आप सब कुछ जानते हंै। आप समस्त जगत के स्वामी है। यह सम्पूणर् पर्पंच आप मंे ही िस्थत है। आपसे मंै और क्या कहँू? अब आप मुझे स्वीकार कीिजये। मुझे अपने लोक मंे जाने की आज्ञा दीिजए। सबके मन-पर्ाण को अपनी रूप-माधुरी से आकिषर्त करने वाले श्यामसुन्दर ! आप यदुवंशरूपी कमल को िवकिसत करने वाले सूयर् हंै। पर्भो ! पृथ्वी, देवता, बर्ाह्मण और पशुरूप समुदर् की अिभवृिद्ध करने वाले चंदर्मा भी आप ही हंै। आप पाखिण्डयों के धमर्रूप राितर् का घोर अंधकार नष्ट करने के िलए सूयर् और चंदर्मा दोनों के ही समान हंै। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों के नष्ट करने वाले आप चंदर्मा, सूयर् आिद आिद समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हंै। भगवन् ! मंै अपने जीवनभर, महाकल्पपयर्न्त आपको नमस्कार ही करता रहँू।' (शर्ीमद् भागवतः 10.14.1-40) अनुकर्म ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ देवताओं द्वारा स्तुित बर्ह्मािदक देवताओं द्वारा िवष्णु भगवान से असुरों का िवनाश तथा संतों की रक्षा हेतु पर्ाथर्ना िकये जाने पर सवर्शिक्तमान भगवान शर्ीकृष्ण वसुदेव-देवकी के घर पुतर् के रूप मंे अवतीणर् हुए थे। एक िदन सनकािदकों, देवताओं और पर्जापितयों के साथ बर्ह्माजी, भूतगणों के साथ सवर्ेश्वर महादेवजी, मरुदगणों के साथ देवराज इन्दर्, आिदत्यगण, आठों वसु, अिश्वनी कुमार, ऋभु, अंिगरा के वंशज ऋिष, ग्यारह रूदर्, िवश्वेदेव, साध्यगण, गन्धवर्, अप्सराएँ, नाग, िसद्ध, चारण, गुह्यक, ऋिष, िपतर, िवद्याधर और िकन्नर आिद देवता मनुष्य सा मनोहर वेष धारण करने वाले और अपने श्यामसुन्दर िवगर्ह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान शर्ीकृष्ण के दशर्न करने द्वािरकापुरी मंे आते हंै तब वे पर्भु शर्ीकृष्ण की इस पर्कार से स्तुित करते हंै- 'स्वामी ! कमोर्ं के िवकट फंदों से छूटने की इच्छावाले मुमुक्षुजन भिक्तभाव से अपने हृदय मंे िजन चरणकमलों का िचंतन करते रहते हंै। आपके उन्हीं चरणकमलों को हम लोगों ने अपनी बुिद्ध, इिन्दर्य, पर्ाण, मन और वाणी से साक्षात् नमस्कार िकया है। अहो ! आश्चयर् है ! अिजत ! आप माियक रज आिद गुणों मंे िस्थत होकर इस अिचन्त्य नाम-रूपात्मक पर्पंच की ितर्गुणमयी माया के द्वारा अपने-आप मंे ही रचना करते हंै, पालन करते और संहार करते हंै। यह सब करते हुए भी इन कमोर्ं से से आप िलप्त नहीं होते हं; क्योंिक आप राग द्वेषािद दोषों से सवर्था मुक्त हंै और ै अपने िनरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्द मंे मग्न रहते हंै। स्तुित करने योग्य परमात्मन् ! िजन मनुष्यों की िचत्तवृित्त राग-द्वेषािद से कलुिषत है, वे उपासना, वेदाध्यान, दान, तपस्या और यज्ञ आिद कमर् भले ही करंे, परंतु उनकी वैसी शुिद्ध नहीं हो सकती, जैसी शर्वण के द्वारा संपुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीलाकथा, कीितर् के िवषय मंे िदनोंिदन बढ़कर पिरपूणर् होने वाली शर्द्धा से होती है। मननशील मुमुक्षुजन मोक्षपर्ािप्त के िलए अपने पर्ेम से िपघले हुए हृदय क द्वारा िजन्हंे िलये-िलये िफरते हंै, पांचरातर् िविध से उपासना करने वाले भक्तजन समान ऐश्वयर् की पर्ािप्त के िलए वासुदेव, संकषर्ण, पर्द्युम्न और अिनरुद्ध – इस चतुव्यर्ूह के रूप मंे िजनका पूजन करते हंै और िजतेिन्दर्य और धीर पुरुष स्वगर्लोक का अितकर्मण करके भगवद्धाम की पर्ािप्त के िलए तीनों वेदों के द्वारा बतलायी हुई िविध से अपने संयत हाथों मंे हिवष्य लेकर यज्ञकुण्ड मंे आहुित देते और उन्हीं का िचंतन करते हंै। आपकी आत्मस्वरूिपणी माया के िजज्ञासु योगीजन हृदय के अन्तदर्ेश मंे दहरिवद्या आिद के द्वारा आपके चरणकमलों का ही ध्यान करते हंै और आपके बड़े-बड़े पर्ेमी भक्तजन उन्हीं को अपनी परम इष्ट आराध्यदेव मानते हंै। पर्भो ! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं, िवषय-वासनाओं को भस्म करने के िलए अिग्नस्वरूप हों। वे हमारे पाप-तापों को अिग्न के समान भस्म कर दंे। पर्भो ! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल पर मुरझायी हुई बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पधार् रखती हंै। िफर भी आप उनकी परवाह न कर भक्तों के द्वारा इस बासी माला से की हुई पूजा भी पर्ेम से स्वीकार करते हंै; ऐसे भक्तवत्सल पर्भु के चरणकमल सवर्दा हमारी िवषय-वासनाओं को जलाने वाले अिग्नस्वरूप हों। अनन्त ! वामनावतार मंे दैत्य राज बिल की दी हुई पृथ्वी को नापने के िलए जब आपने पग उठाया था और वह सत्यलोक मंे पहँुच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था मानों, कोई बहुत बड़ा िवजयध्वज हो। बर्ह्माजी द्वारा चरण पखारने के बाद उससे िगरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानों, ध्वज मंे लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा नहीं हों। उन्हंे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना िनभर्य। आपका यह चरणकमल साधुस्वभाव के पुरुषों के िलए आपके धाम वैकुण्ठलोक की पर्ािप्त का और दुष्टों के िलए अधोगित का कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप धो-बहा दे। बर्ह्मा आिद िजतने भी शरीरधारी हंै, वे सत्व, रज, तम – इन तीनों अनुकर्म गुणों के परस्पर िवरोधी ितर्िवध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हंै। वे सुख-दुःख के थपेड़ों से बाहर नहीं हंै और ठीक वैसे ही आपके वश मंे हंै, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश मंे होते हंै। आप उनके िलए भी कालस्वरूप हंै। उनके जीवन का