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श्रीिेङकट हरननल्ोः कर्ल क र्ुकोः पुर् न्।
अभङगुविभूनतनाोः तरङग्तु र्ङगलर््।।
श्रीिेङ्कटेशस्य परापर िस्तुत्मिनिरूपणम्
सूत उिाच –
श्रृणुध्िां र्ुन्ोः सिे, शौनक द् स्तप धन ोः ।
तदविष्ण िेङकटेशस््, रहस्् नुभिां परर् ्।। १ ।।
ब्रह्र् ण्डे ् नन तीथ ानन, स्ि्ांव््क्त नन ् नन च ।
थचरन्तन नन क्षेत्र णण, पुण्् रण्् नन पिात ोः । २ ॥
पूिं श्रुत नन सि ाणण, पुर ण नन दविज त्तर् ोः ।
स र् न्् नन च र्ु्् नन, रहस््ां र्ु््र्ुत्तर्र् ्|| ३ ||
अष्ट दशपुर ण न ां, स रां च न्ते र्् श्रुतर््।
व्् सिस द त्क रुण्् -त्पररिश्नेन सेि् ॥ ४ ॥
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िैक
ु ण्ठपदस ्ुज््ां, परर् नन्ददां परर््।
भविष्् त्तरस र ांशोः, सिािेद न्तसङग्रहोः || ५ ||
तत्र वप च त्तरे खण्डे, स क्ष त्सांस रर् चकोः ।
उर् र्हेशसांि दे, रहस्् नुभि दविज ोः ।। ६ ।।
आनन्दननल्स््ैि, क्षेत्रर् ह त्म््र्ुत्तर्र् ्।
र्न्त्र ण ां र्न्त्ररत्ने दिे, दविविधां ध्् नर्ुत्तर्र् ्॥ ७ ॥
श्रृणुध्िां परर् नन्द-पद ि प्त््ै च दुलाभर् ्।
देि न र्वप मसदध न ां, र्हत ां ् थगन ां नृण र््॥ ८ ॥
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अथचककत्स््ग्रहग्रस्त, विकल ङगविरूवपण र् ्
र थगण र्थचककत्स्् न ां, दुष्कर्ापररप ककन र् ्।। ९ ।।
आपदमभरननि ् ामभ-र िृत न ां च दुोःणखन र् ्।
र्ह प तक सम्भूत-क
ु ष्ठ र ग क
ु रूवपण र््॥ १० ॥
क ण न्धबथधर ण ां च, र्ूक न ां पगु क
ु ब्ज् ोः
ि ्जश्चत्तविहीन न ां, प वपन ां दुोःखदुोःणखन र् ्।। ११ ।
क्ि प््नननतक न ां च, सिाद क्र
ू रकर्ाण र् ्।
भिेत्िनतविथधोः सद्ोः, ित््क्ष िेङकट चल त ्।। १२ ।।
भक्त न ां भितप्त न ां, गनतश्च न््त्र न जस्त भ ोः ।
स परोः सिाल क न ां, सिाव्् धीन ्कृ प ननथधोः ।। १३ ।।
ननकृ न्तन्नजस्त चक्र
े ण, ्त्र तस्र् दथध िेङकट त ्।
तस्र् त्स एि गन्तव्् , भ गर् क्षरतैजानैोः ।। १४ ।।
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विशेषतोः क्र
ू रकल नर ण ां,
प प कर ण ां पररपीडडत न र््।
भूग लर्ध््े रविडे च पुण््े,
श्रीिेङकट हरगानतरेि न न्् ।। १५ ।।
कलौ ्ुगे र्नुष्् ण ां, सङकीण ान ां च रक्षक्षत ।
श्रीिेङकटेश न्न न्् ऽजस्त, सि ाननष्टननि रण त ्।। १६ ।।
्ां दृष््ि न परां स्थ नां, ्ां दृष््ि न गर थगररोः ।
्ां दृष््ि न परां तीथं, ्ां दृष््ि न परां तपोः ।। १७ ।।
्ां दृष््ि न पर देि , ्ां दृष््ि न पर र्नुोः ।
्ां दृष््ि न पर भजक्त-्ं दृष््ि न पर गनतोः ।। १८ ।।
्ां दृष््ि न परां ज्ञ नां, ्ां दृष््ि न परां पदर् ्।
्ां दृष््ि न पर ल भ , ्ां दृष््ि न परोः वि्ोः ।। १९ ।।
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्ां दृष््ि न परां ध र्, स क्ष द नन्दस न्रकर््।
्ां दृष््ि न परां ध्् नां, सर् थधरवप न परोः ।। २० ।।
्ां दृष््ि न पर र्ुजक्तोः, सिेजन्र्र्न हर ।
्ां दृष््ि न पर ननत्् , ्स्् क लभ्ां न हह ॥ २१ ॥
्ां दृष््ि ि पर विष्णु-भाक्त्् सिाजगन्र््ोः ।
्ां दृष््ि त्त्रविधां कृ त््ां, कृ ति न्न त्र सांश्ोः ।। २२ ।।
्ां दृष््ि न पर द त , रर्ेश न्न जस्त क र््ोः ।
्ां दृष््ि न परां ब्रह्र्, सज्चद नन्दविग्रह त ्।। २३ ।।
्ां दृष््् न पर ् गोः, स ष्ट ङगोः सिामसदथधद त ्।
्ां दृष््ि न पर: पूणाोः, सिाग िेङकटेश्िर त ्॥ २४ ॥
न िेद न्त त्परां श स्त्रां, न देि िेङकटेश्िर त ्।
न िैक
ु ण्ठ त्परां ध र्, न थगररिेङकटेश त्परोः ।। २५ ।।
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सत््ां सत््ां पुनोः सत््ां, न देि िेङकटेश्िर त ्।
ब्रह्र् ण्डे न जस्त ्जत्कथच-न्न भूतां न भविष््नत ।। २६ ।।
िेङकटेशसर् देि , नेनत िेद न्तननणा्ोः ।
तरहस््सुसांि दां, स्िथचत्तस्िर्ुर्ेश् ोः ।। २७ ।।
श्रृणुध्िर्िध नेन, मसदध न्तां र्ुननपुङगि ोः ।
श्रीसूत उिाच -
क
ै ल सेऽनन्तमशखरे, पिाते ननर्ालज्ज्िले ।। २८ ।।
ज्ञ न ननर्ाल थचत्त ढ्-् थगर्ण्डल सेवितर््।
सुख सीनां र्ह देिां, रत्नमसांह सन त्तर्े ।। २९ ।।
िणणपत्् कृ प मसन्धुां, प िाती प्ापृ्ित ।
श्री पािगत्मयुिाच –
देिदेि विरूप क्ष, त्रैल क््नतमर्र पह ॥ ३० ॥
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ति न्तोःकरण नन्द-रहस्् नुभिां परर््।
र्ुजक्तक्षेत्रेषु मसदध न ां, र्ुक्त न ां कर्ाबन्धन त ्।। ३१ ।।
तेष र् नन्दस न्र ब्धे-रि जप्त्ात्र शङकर ।
तदध र् ग प््ां त्िदध्् न-िैभि नन्दर्ीश्िर ।। ३२ ॥
पूण ानन्दकृ प दृजष्ट-रजस्त चेत्ति र्े िद ।
ईश्िर उिाच –
स धु पृष्टां त्ि् देवि, भक्त न ां हहतक म््् ।। ३३ ॥
वि् वि्तरां र्ेऽजस्त, तरहस््ां िद मर् ते ।
ब्रह्र् ण्डर्ण्डले पुण््े, रविडे िेङकट चले ।। ३४ ।।
रहस््ां सिाल क न ां, प िनां परर् दभुतर् ्।
स्ि मर्पुष्कररण तीथं, भजक्तज्ञ नसुखिदर् ्।। ३५ ।।
दशान त्सिाजन्तून -र् श्र्ां भुवि र जते ।