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Power changes versus political change
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सता पिरतरन बनाम राजिनितक पिरवतरन
देश मे िवधान सभा के चुनाव संसद के चुनाव के काफी अलग होते है . पर हमेशा से ही
इनको आने वाले संसदीय चुनावो के नतीजो की आहट की तरह ही देखा जाता है .
चुनाव के नतीजो का िवशेषण कभी भी इस बात से अछू ता नही रहता िक वतरमान
नतीजो का असर भिवषय मे होने वाले चुनावो पर िकतना पडेगा. हाल के चुनाव
नतीजो के बाद आकलन और अनुमानो का यही बाजार काफी गमर है . बीजेपी वैसे तो
चार राजयो मे सबसे बेहतर पाटी बनकर सामने आई, लेिकन उसके रं ग मे भंग कर
िदया आम आदमी पाटी ने. मीिडया का सारा फोकस अंरिवद के जरीवाल की नई
राजनीित का दावा करने वाली इस पाटी पर चला गया. इस बात का फायदा भी
के जरीवाल ने िकसी सधे हए नेता की तरह ही उठाया. आज आलम ये है िक चचार का
िवषय बीजेपी की बडी सफलता नही, बिलक आप की नई सफलता है. आप की इस
सफलता से बीजेपी के नेता िचढे तो जरर लेिकन सरकार नही बनाने का फै सला कर
उनहोने अपना भिवषयगामी दांव खेल िदया. दूसरी तरफ के जरीवाल ने भी कु छ इसी
अंदाज मे दोनो पािटयो पर सवाल उठाते हए सरकार भी बना ली और उनहे कोस भी
रहे है. यही आमआदमी पाटी ने अपना आधार फै लाने की योजना देश के सामने भी
रख दी और ये भी साफ हो गया िक ये आम आदमी पाटी अब खास बनने की तैयारी मे
है. आप के इस महतवकांकी कदम ने बीजेपी की िचताएं और बढा दी कु ल िमलाकर अब
आने वाले संसदीय चुनावो की तसवीर मौजूदा राजनीितक िसतिथयो की पृषभूिम मे
देखी जाने लगी है. तो सवाल ये है िक कया वाकई देश की राजनीित बदल रही है और
अगर ये सच है तो ये िकतना सुखद है ?
जनता के सामने िवशास और अिवशास का ये कोई पहला या पहली बार उठा पश
नही है .दशको से िघस चुके मुदे हर बार जीवंत हो उठते है और जनता उनही मुदो के
ईदर िगदर अपनी राय का ताना- बाना बुनती है. आम आदमी पाटी के पहले भारत के
कई राजयो मे केतीय दलो का उभार और जनता दारा उनकी सवीकृ ित देखी गई है .
कही केतीय मुदे हावी रहते है , कही मूलभूत मुदे िजनका राषीय िवसतार देखा जाता है
2. . आम आदमी पाटी उनही मुदो पर आगे बढना चाहती है. भषाचार, जनता का राज या
पचिलत शबद मे कह ले यािन सवराज, अफसरशाही और ऐसे ही कई मुदो के के द मे
रख कर इस राजनीित का आधार तैयार िकया गया. िदलली की जनता और युवा जो
िपछली सरकार की खािमयो से तसत थे और मधयमवगर जो बढती महंगाई मे िपस रहा
था उसे के जरीवाल के तकर सही लगे . इनही मुदो को बीजेपी ने भी उठाया जनता ने उस
पर भी भरोसा जताया पर अपना िवशास िवभािजत तरीके दोनो को िदया. बीजेपी
सबसे बडी पाटी बनी और के जरीवाल चुनावो मे सबसे बडे नेता. अब सवाल ये है िक
कया इस एक दृषांत को राषीय राजनीित मे हो रहे बदलाव और मुदो के सथानांतरण
का संकेत मान िलया जाए ? राषीय सतर पर जनता का मतिवभाजन इस बात का
संकेत देता है िक मुदो को लेकर जनमत भी बंटा हआ है . शायद यही वजह है िक
राजयवार नतीजे काफी अलग अलग होते है. नई राजनीित का दावा करने वाली पाटी
हो या पुराने ढरे पर चल रहे दल , चुनावी गिणत हल करते समय सबके धयान मे
राजनीित के वही िघसे िपटे फॉमूले रहते है . देश मे आरं भ से ही पतीको की राजनीित
र
यािन पॉिलिटकस ऑफ िसबोिलजम हावी है. िजस लोकतंत मे अलपमत की सरकारे बन
जाएं, िजस लोकतंत मे बुहमत के नाम पर आधे से भी काफी कम वोट पितशत पाने
वाले लोग चुने जाएं, िजस देश मे आधारहीन घोषणाओ की छू ट हो वहां राजनीितक
सुधार करने का आधार कया होना चािहए ? कया भषाचार या खराब पशासन के नाम
पर एक सरकार की जगह दूसरी सरकार की सथापना ही लोकतांितक पणाली मे सुधार
के एक मात जिरया है ? अगर ऐसा है तो हमे नही भूलना चािहए के मुदो के आधार पर
सरकारो का बनाना और िबगडना इस सथािपत पणाली मे िकसी खेल जैसा ही रहा है
और िरग के बाहर बैठी जनता को वादो का वही झुनझुना हमेशा पकडाया जाता है .
सता पिरवतरन जनतंत मे जनता की शिक का एक मात संकेत भर है . सच तो ये है िक
राष की जनता के भीतर अदमय उजार और शिक होती है . मौजूदा भारतीय लोकतांितक
ववसथा मे िजतनी भी खािमयां है उसका सता पिरवतरन से शायद जयादा संबध नही
ं
है. राजनीित बदल रही है . राजनीित बदलती रहेगी पर कया इसका बदलना भर ही
ववसथा पिरवतरन का संकेत है. दरसल देश की सरकार से लेकर चुनावी पिकया और
पशासन सबकी जडे लोकतंत से जुडी है. देश के अंदर अगर इन जडो पर काम िकया
गया तो ये राष िकसी विक या पाटी के भला होने का महोताज नही रहेगा.
लोकतंत िकसी शासन पदित का नाम भर नही है . ये एक संपूणर पिकया है िजसमे
समाज की बडी भागीदारी होती है .ये जीवन जीने का एक तरीका है. सो ये विक और
समाज दोनो के िलए है. कया हमारा समाज उस लोकतंत की पिकया को पूरी तरह से
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जी पाया है, सीख पाया है ? कया देश का हर विक सही अथो मे लोकतांितक
मानयताओ और राष िनमारण मे उसकी भूिमका को समझ पाया है ? आजादी के पहले
हम एक परतंत राष की उस ववसथा का िहससा थे िजसमे हमारी भूिमका सीिमत थी.
लेिकन सहसा हमारे सामने लोकतंत का वो ढांचा रख िदया गया िजसके िवकास की
पिकया से राष गुजरा ही नही. संकमण का वो दौर लंबे समय से चला आ रहा है .
लोकतंत की मूल भावना को राष के हदय मे सथािपत होने मे कई बाधाएं है . देश
जाित, धमर, केत, िलग, भाषा, मानयता, सामंतवादी सोच और न जाने िकतनी ही तरह
की सीमाओ मे िवभािजत है. यही नही िजस राजिनितक ववसथा मे सुधार की बात
हम करते है उसी मे हमने अपनी सहिलयत के िलए कई वगर भी बना िलए है िजसमे
अपनी पिरभाषा के िहसाब से कोई अगडी जाित का है , कोई िपछडा है, कोई दिलत है
,कोई गरीब है ,कोई अमीर, कोई शोषक है ,कोई शोिषत है. राजिनित की सुिवधा के
िलए अपने-अपने िहसाब से इन वगो का इसतेमाल करने वाला कोई भी दल िकस
िवशास से राजनीितक सुधार की बात करता है , ये समझ से परे है.
तो मूल पश पर िफर से आते है िक कया देश की राजनीित सही िदशा मे बदल रही है ?
इसका जवाब भी कु छ पशो के उतर मे है . देश मे हर विक या हर संसथा कया
लोकतंत की जीवन पदित को अपनाते रहे है ? कया जनता का मतिवभाजन राषीय
िहत के मुदो पर हो रहा है या जाित, धमर, केत, भाषा जैसे िवघटनकारी मुदो पर ?
कया राजिनितक दल खुद लोकतांितक पिकया का पूरा पालन कर रहे है ? कया बहमत
का मतलब अब भी कु छ िनिशत आंकडे जुटाना भर है ? कया राजनीित उस वंशवाद
और सामंती सोच से मुक है िजसके िलए आजादी की लडाई लड कर लोकतंत की
सथापना की गई थी ? कया िनचले सतर से लेकर ववसथा के उच सतर तक लोकतांितक
मूलयो का पालन िकया जा रहा है ? कया जनता का मन भटकाने के िलए झूठे वादो
और दावो पर पूरी तरह से रोक है ? अगर इन पशो का उतर हां है तो वाकई देश की
राजिनित बदल रही है. अगर नही तो इं तजार करना होगा कयोिक राजिनित सुधार
िसफर चुनावी जीत के दायरे मे नही है . अगर ऐसा होता तो न महातमा गांधी कोई
राजनीित फकर पैदा कर पाते, न िवनोबा भावे का कोई असर होता, न जयपकाश
नारायण िकसी आंदोलन को खडा कर पाते. िजस िजस विक को राष के उतथान और
राजनीित के सवचछ होने की कामना है, उसे लोकतंत को असल मायने मे जीना सीखना
4. होगा. अगर नही तो ये लकय हमेशा कु छ कदम दूर ही रहेगा .
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