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आहार
सभी द्रव्य पंचभौतिक होिे हैं । इस कारण आहार द्रव्य भी पांचभौतिक होिे हैं । इसका िात्पर्य र्ह
हैं । इन महाभूिो का अतिष्ठान पृतिवी ििा र्ोतन जल को माना गर्ा हैं । इस प्रकार जठराति द्वारा स्मर्क
्
पाचनोअपरान्त अपने अपने गुण वाले शरीर क
े अंगों र्ा िािुओं को पोषण करिा हैं ।
सवं द्रव्यं पांचभौतिकम अस्मस्मन्निे । ( च. सू. २६/१०)
पांचभूिात्मक
े देहे ह्राहार पांचभौतिकः । ( सु. सू. ४६/५३३)
इह तह द्रव्यं पंचमहाभूिात्मकम् । िस्यातिष्ठानं पृतिवी । ( अ. सं. सू. १७/३)
तवपक्वः पंच्िा स्मर्ग् गुणान् स्वानतभवर्द्यर्ेि । ( सु. सू. ४६/५३३)
रसों का पांचभौतिक संगठन
रस ों का पाोंचभौतिक सोंगठन :-
िेषां षष्ां रसानां सोमगुणातिरेकामिुरो:, पृतिव्यतिगुणभूतर्ष्ठत्वादम्ल:, स्मिलातिभूतर्ष्ठत्वाल्लवणः,
वाय्वतिभूष्ठत्वाि् कटुक:, वाय्वाकाशातिररक्तत्वातिक्ता;, पवनपृतिवीव्यतिरेकाि् कषार् इति ।
(च.सू. २६/४०)
1. मिुर - पृिवी + जल
2. अम्ल - पृिवी + िेज
3. लवण - जल + िेज
4. कटु - वार्ु + अति
5. तिक्त - वार्ु + आकाश
6. कषार् - वार्ु + पृिवी
रसानुसार द्रव्यो का वगीकरण
मिुर रस - घृि, मिु, िैल, दुग्ध, मेद, मज्जा, ईख, द्राक्षा, क
े ला, नाररक
े ल आतद ।
लवण रस - दातिम, आँवला, नींबू, बेर, इमली, दही, सुरा, िक्र, काँजी आतद ।
लवण - सैंिव सौवयचल, सामुद्र, तवि्, र्वक्षार आतद ।
तिक्त रस - उशीर, क
ु टकी, ज्योतिष्मिी, वचा, खतदर, तनम्ब, तगलोर्, करेला आतद ।
कटु - मररच, पुदीना, तपप्पली, मूली, लशुन, पलाण्डु, करंज, िुलसी आतद ।
नोट - गुण भेद से आहार द्रव्य गुरु, लिु आतद २० प्रकार क
े होिे हैं ।
आहार पररणाम कर भाव
आहारपररणामकरास्मिमे भावा भवस्मन्त । िर्द्िा ऊष्मा, वार्ुः, क्लेदः, स्नेहः, कालः, समर्ोगश्चेति ।
( च. शा. ६/१४)
१. ऊष्मा
२. वार्ु
३. क्लेद
४. स्नेह
५. काल
६. समर्ोग
अति तववेचन
१. पाचकाति
२. भूिाति
३. िात्वति
आहार पाक वणयन
आहार जब महास्त्रोिस् में पहँचिा हैं िब वह पाचन की तवतभन्न अवस्िाओ से गुजरिा हैं पाचन की
इन्ीं अवस्िाओ को "अवस्िा पाक" संज्ञा दी हैं ।
अवस्िापाक क
े तिन भेद होिे है :-
१. मिुर अवस्िापाक - मुख से आमाशर् क
े ऊर्ध्य भाग िक । - मिुर अवस्िापाक क
े उपरान्त
कफ की वृस्मदद होिी हैं ।
२. अम्ल अवस्िापाक - आमाशर् क
े अिोभाग से ग्रहणी र्ा तपत्तिराकला में । अम्ल अवस्िापाक
क
े बाद तपत्त की वृस्मदद होिी हैं ।
३. कटु अवस्िापाक - पक्वाशर् में । कटु अवस्िापाक क
े उपरान्त वार्ु की वृस्मदद होिी हैं । दोषो की उस -उस
दोष वियक आहार द्रव्यो क
े सेवन से अतिक वृस्मदद होिी हैं ।
जाठरेणातिगा र्ोगद्यदुदेति रसान्तरम् । रसानां पररणामान्ते स तवपाक इति स्मृिः ।
(अ. ह्र्. सू. ९/२०)
अविापाक क
े पश्चाि सम्पन्न हर्े पाक की अवस्िा तनष्ठापाक ( पाक क
े अन्त में ) हैं । जठराति पाक क
े पश्चाि् आहार -
औषि द्रव्यो में जो अन्य रस तक उत्पतत्त होिी हैं उसे तवपाक कहिे हैं । तवपाक पाचकाति की तक्रर्ा सम्पूणय होने पर उत्पन्न
होने वाली तक्रर्ा हैं ।
शुक्रहा बददतवण्मूत्रो तवपाको वािलः कटुः ।
मिुरः सृतितवंमूत्रो तवपाकः कफशुक्रलः ॥
तपत्तक
ृ ि् सृतितवण्मूत्रः पाकोऽम्लः शुक्रनाशनः । ( च. सू. २६/६१)
गुरु पाको वाितपत्तघ्नः लघु पाकः श्लेष्मघ्नः ।
गुरुपाकः सृतितवणमूत्रिर्ा कफोत्क्क्लेशेन च, लघुबयददतवण्मूत्रिर्ा मारुिकोपेन च ॥ ( सु. सू. ४१/१५)
1. गुरु तवपाक - वाि और तपत्त को क्षीण करने वाला , कफ वियक , मल मूत्र को बाहर तनकलने वाला ।
2. लघु तवपाक - तवपररि ।
तनष्ठापाक
मल मूत्र को तनकालने वाले ।
मल मूत्र को बांिने वाले ।
"तवपाक कमयतनिा" (च. सू. २६/६६) अिायि तवपाक का ज्ञान परोक्ष र्ा अनुमान से होिा हैं ।
िािु पोषण न्यार्
िीन मि :-
१. क्षीर-दति न्यार् ( क्रम पररणाम पक्ष)
२. क
े दारी -क
ु ल्या न्यार्
३. खले - कपोि न्यार्
आहार रस + जठराति
धािु उपधािु मल
रस
स्तन्य और आियव कफ
रक्त
कण्डरा और तसरा तपत्त
मांस
त्वचा और वसा
खमल ( श्रोि, नासा,
कणय, अस्मषक्ष,
प्रजनन क
े मल)
मेद
स्नार्ु स्वेद
अस्मस्ि
- क
े श, रोम, श्मश्रु
मज्जा
-
अतक्ष, त्वक, तवि्
स्नेह
शुक्र
- -
मल
स्वेद
पुरीष
मूत्र
• मतलनी-करणाि् आहार-मलत्वाद् वा मलाः । (च. तच. १५)
• पुररषम-उपस्तम्भं वाय्व-अति-िारणं च ।
• बस्मस्त-पूरण-तवक्लेदक
ृ न् (िर)-मूत्रम् ।
• स्वेदः क्लेद-त्वक-सौक
ु मार्य-क
ृ ि । (सु. सू. १५/१८)
मल
मल वृध्दि लक्षण :- पुरीषम् आटोपं क
ु क्षौ शूलं च; मूत्रं मूत्रवृस्मर्द्ं मुहमुयहः प्रवृतत्तं बस्मस्त-िोदम-
अध्मानं च; स्वेदस् त्वचो दौगयन्ध्यं कण्ड
ूं च || (सू. सू. १५/१५)
स्वेद
स्वेद :-
- मलः स्वेदस्तु मेदसः । (च. तच. १५/८)
- स्वेदवहानां स्त्रोिसां मेदो मूलं लोमक
ू पाश्च । ( च. तच. ५/८)
- दशांजतल प्रमाणम् (च. शा. ७/१५)
शाि्यगिर - स्वेद को मेदो िािु की उपिािु माना हैं ।
मेद मल स्वेद
स्वेद प्रमाण १० अंजतल
मेद
लोमक
ू प
स्वेदोवह स्त्रोिो मूल
स्वेद क्षर् वृस्मर्द्
स्वेद क्षर्
स्वेद वृस्मर्द्
मल का संचर् होना शरीर क
े तलर्े अभ्यस्त हैं इसतलर्े क्षर् अतिक पीिादार्ी हैं
स्वेद क्षर् लक्षण
स्वेदोक्ष्ये स्तभ्ि रोम क
ू पिाः त्वक-शोषः स्पशय-वैगुण्यं, स्वेदनाश श्चुः ित्राभ्यंगः
स्वेद् -उपर्ोगश्च । ( सु. सू. १५/११)
स्वेदे रोमच्युतिः स्तब्धरोमिा स्फ
ु टनं त्वचः । (अ. ह्. सू. ११/१२)
१. अवरोि रोम क
ू पो का
२. त्वचा रुक्षिा
३. स्पशय ज्ञान का अभाव
४. रोम तगरना
५. त्वचा का फटना
स्वेद क्षर् तचतकत्सा
स्वेिनाश शचुुः ित्राभ्योंगुः स्वेि् -उपय गश्च । ( सु. सू. १५/११)
व्यायाम-अभ्योंजन-स्वेि-मघुः स्वेि-क्षय-उभ्िवान् । (अ. ह. सू. ११/३३)
१. व्यायाम
२. अभ्योंग
३. स्वेिन
४. मद्य
स्वेद स्त्रोिो दुति कारण
व्यार्ामाद-अतिसन्तापाश्च तशिोष्ाक्रमसेवनाि् |
स्वेद-वाहीतन- दुष्यस्मन्त –क्रोि-शोक-भर्ैस्तिा ||
(च. तव. ५/२२)
१. व्यार्ाम
२. अतििूप
३. तशि-उष् का क्रम से सेवन
४. क्रोि
५. शोक
६. भर्
स्वेद स्त्रोिो दुति लक्षण
प्रदुिानां िु खल्वेषातमदं तवशेषतवज्ञानं भवति;
िद्यिा- अस्वेदनम अतिस्वेदनं पारुष्यम अतिश्लक्ष्णिाम्गसस्य
पररदाहं लोमहषं च दृष्ट्वा स्वेदवहान्यस्य स्रोिांतस प्रदुिानीति तवद्याि् ||
(च. तव. ५/२२)
१. अस्वेद
२. अतिस्वेद
३. त्वचा रुक्षिा
४. त्वचा तस्नग्धिा
५. त्वचा दाह
६. लोम हषय
मूत्र
आहार
पाचन
तवभाजन
सार तकट्ट्
मल
घन द्रव
पुरीष मूत्र
पक्वामाश्य-म्ध्यस्िं तपत्तं चिुतवयिम-अन्न-पानं पचति, तववेच्यति
च दोष-रस-मूत्र-पुरीषातण । (सु. सू. २१/१०)
आहारस्य रसः सारः सारहीनो मलद्रवः । तशरा-अतभस्त-जलं
नीिं वस्तौ मूत्रत्वम-अपुन्याि् ॥ (शा. पू. ६/६)
मूत्रवहे द्वे, िर्ोमूयलं वस्मस्तमेढ्रं (मूत्रैस्मिर्) च । (सु. शा. ९/१२)
मूत्रवहानां स्त्रोिसां वस्मस्िमूयलं वग्क्क्षणौ (वृक्कौ) च । ( च. तव.
५/८)
सद्योमारक ममय ।
चत्वारो मूत्रस्य । ( च. शा. ७/१५ ) - ४ अंगुल प्रमाण ।
मूत्रवह स्त्रोिो
मूल
वस्मस्त
मेढ्र /वक्षण
मूत्र क्षर् लक्षण
मूत्रक्षर्े वस्मस्त-िोदो-अल्पमूत्रिा च । (सु. सू. १५/११)
मूत्रक्षर्े मूत्रक
ृ छ्
रं मूत्र-वैवण्ययम्-एव च ।
तपपासा बाििे चास्य मुखं च पररशुष्यति ॥ (च. सू. १७/७१)
१. वस्मस्त िोद
२. अल्प मूत्रिा
३. मूत्र क
ृ च्छिा
४. मूत्र-वैवण्ययम्
५. तपपासा
६. मूखशोष
मूत्र क्षर् तचतकत्सा
मूत्र-क्षर्े-पुनर-इक्षुरस-वारुणी-मण्ड-द्रव-मिुर-अम्ल-लवण-
उपक्लेतदनाम् ।
(च. शा. ६/११)
१. इक्षुरस ।
२. िािी का उपर का मण्ड ।
३. मिुर-अम्ल-लवण रस र्ुक्त पदािय ।
४. द्रव पदािय ।
मूत्रवह स्त्रोिो दुति कारण
मूतत्रि-उदक-भक्ष्य स्त्रीसेवानान् मूत्रतनग्रहाि् ।
मूत्रवाहीतन दुष्यस्मन्त तक्षण्स्स्य-अतभक्षिस्य च ॥
(च. तव. ५/२)
१. मूत्र का वेग उपस्मस्िि होने पर जल तपना ।
२. मैिुन / मूत्र वेग रोकना ।
३. व्रणातद क
े कारण क्षीणय दुबयल पुरुष ।
मूत्रवह स्त्रोिो दुति लक्षण
वस्मस्त-मेहनर्ोःशुलं मूत्रक
ृ च्छं तशरोरुजा ।
तवनमो वंक्षण-अनाहः स्यास्मल्लंगं मूत्रतनग्रहे ॥
(च. सू ७/६)
१. वस्मस्ि और तशशन में शूल ।
२. मूत्रक
ृ च्छ ।
३. तशरो शूल ।
४. शरीर का तपछ्े क्षुक जाना ।
५. वृषण मे जकिाहट ।
पुरीष
पक्वशर्ं िु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वार्ुना ।
पररतपण्डि-पक्वस्य वार्ुः स्याि् कटुभाविः ॥
(च. तच. १५/११)
पुरीषवहे द्वे िर्ोमूयलं पक्वाशर्ो गुदं च ॥
(सु. शा. ९/१२)
आहार
पाचन
तवभाजन
सार तकट्ट्
द्रव तकट्टांश पर अति तक्रर्ा
शुष्क तकट्टांश (कटु रस र्ुक्त)
वार्ु का प्रादुभायव
मूत्र
पूरीष
पुरीष क्षर् लक्षण
पुरीषक्षर्े हृदर्पार्श्य-पीिा सशब्दस्य च वार्ु-उर्ध्य-गमनं क
ु क्षौ संचरणं
च ।
(सु. सू. १५/१५)
१. हदर्पार्श्य पीिा ( Precordial Pain)
२. पेट (क
ु तक्ष) मे शब्द र्ुक्त वार्ु का उपर की और तवचरण
(गुि्गुिाहट क
े साि वार्ु का उपर की और जाना )
पूरीष वह स्त्रोिो दुति हेिू
संिारणाद-अत्यशनाद-अजीणाय-अयाशनाि्-ििा ।
वचो-वाहीतन दुष्यतनि दुबयल्-अतिः क
ृ शस्य च ॥
(च. तव. ५/२१)
१. मल वेग को रोकना
२. अतिक भोजन
३. अतजयणय
४. भोजन क
े बाद तशघ्र पुनः भोजन से
५. अति क
े मन्द तहने से
६. शरीर क
ृ शिा से
पूरीष वह स्त्रोिो दुति लक्षण
पक्वाशर्-तशरः शूलं वािवचोऽप्रवियनम् ।
तपस्मण्डको-उद्वेिन-अयमानं पुरीषे स्याद् तविाररिे ॥
(च. सू. ७/८)
१. पक्वाशर् और तशर शूल
२. अिोवार्ु and मल की अप्रवृतत्त
३. जंघाओ मे पीिा(ऎंठन)
४. अदय्मान
आम और तनराम मल क
े
लक्षण
आम पुरीष – अपक्व पुरीष वाि-तपत्त-कफ दोष से दुतषि होिा है
जल मे ि
ू ब जािा है
अत्यन्त दुगयन्ध र्ुक्त
तवस्मच्छन्न (टुटकर तनकलने वाला)
पक्व पुरीष - दुगयन्ध रतहि
बंिा हआ
जल मे िैरनै वाला

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  • 1. आहार सभी द्रव्य पंचभौतिक होिे हैं । इस कारण आहार द्रव्य भी पांचभौतिक होिे हैं । इसका िात्पर्य र्ह हैं । इन महाभूिो का अतिष्ठान पृतिवी ििा र्ोतन जल को माना गर्ा हैं । इस प्रकार जठराति द्वारा स्मर्क ् पाचनोअपरान्त अपने अपने गुण वाले शरीर क े अंगों र्ा िािुओं को पोषण करिा हैं । सवं द्रव्यं पांचभौतिकम अस्मस्मन्निे । ( च. सू. २६/१०) पांचभूिात्मक े देहे ह्राहार पांचभौतिकः । ( सु. सू. ४६/५३३) इह तह द्रव्यं पंचमहाभूिात्मकम् । िस्यातिष्ठानं पृतिवी । ( अ. सं. सू. १७/३) तवपक्वः पंच्िा स्मर्ग् गुणान् स्वानतभवर्द्यर्ेि । ( सु. सू. ४६/५३३)
  • 2. रसों का पांचभौतिक संगठन रस ों का पाोंचभौतिक सोंगठन :- िेषां षष्ां रसानां सोमगुणातिरेकामिुरो:, पृतिव्यतिगुणभूतर्ष्ठत्वादम्ल:, स्मिलातिभूतर्ष्ठत्वाल्लवणः, वाय्वतिभूष्ठत्वाि् कटुक:, वाय्वाकाशातिररक्तत्वातिक्ता;, पवनपृतिवीव्यतिरेकाि् कषार् इति । (च.सू. २६/४०) 1. मिुर - पृिवी + जल 2. अम्ल - पृिवी + िेज 3. लवण - जल + िेज 4. कटु - वार्ु + अति 5. तिक्त - वार्ु + आकाश 6. कषार् - वार्ु + पृिवी
  • 3. रसानुसार द्रव्यो का वगीकरण मिुर रस - घृि, मिु, िैल, दुग्ध, मेद, मज्जा, ईख, द्राक्षा, क े ला, नाररक े ल आतद । लवण रस - दातिम, आँवला, नींबू, बेर, इमली, दही, सुरा, िक्र, काँजी आतद । लवण - सैंिव सौवयचल, सामुद्र, तवि्, र्वक्षार आतद । तिक्त रस - उशीर, क ु टकी, ज्योतिष्मिी, वचा, खतदर, तनम्ब, तगलोर्, करेला आतद । कटु - मररच, पुदीना, तपप्पली, मूली, लशुन, पलाण्डु, करंज, िुलसी आतद । नोट - गुण भेद से आहार द्रव्य गुरु, लिु आतद २० प्रकार क े होिे हैं ।
  • 4. आहार पररणाम कर भाव आहारपररणामकरास्मिमे भावा भवस्मन्त । िर्द्िा ऊष्मा, वार्ुः, क्लेदः, स्नेहः, कालः, समर्ोगश्चेति । ( च. शा. ६/१४) १. ऊष्मा २. वार्ु ३. क्लेद ४. स्नेह ५. काल ६. समर्ोग
  • 5. अति तववेचन १. पाचकाति २. भूिाति ३. िात्वति
  • 6. आहार पाक वणयन आहार जब महास्त्रोिस् में पहँचिा हैं िब वह पाचन की तवतभन्न अवस्िाओ से गुजरिा हैं पाचन की इन्ीं अवस्िाओ को "अवस्िा पाक" संज्ञा दी हैं । अवस्िापाक क े तिन भेद होिे है :- १. मिुर अवस्िापाक - मुख से आमाशर् क े ऊर्ध्य भाग िक । - मिुर अवस्िापाक क े उपरान्त कफ की वृस्मदद होिी हैं । २. अम्ल अवस्िापाक - आमाशर् क े अिोभाग से ग्रहणी र्ा तपत्तिराकला में । अम्ल अवस्िापाक क े बाद तपत्त की वृस्मदद होिी हैं । ३. कटु अवस्िापाक - पक्वाशर् में । कटु अवस्िापाक क े उपरान्त वार्ु की वृस्मदद होिी हैं । दोषो की उस -उस दोष वियक आहार द्रव्यो क े सेवन से अतिक वृस्मदद होिी हैं ।
  • 7. जाठरेणातिगा र्ोगद्यदुदेति रसान्तरम् । रसानां पररणामान्ते स तवपाक इति स्मृिः । (अ. ह्र्. सू. ९/२०) अविापाक क े पश्चाि सम्पन्न हर्े पाक की अवस्िा तनष्ठापाक ( पाक क े अन्त में ) हैं । जठराति पाक क े पश्चाि् आहार - औषि द्रव्यो में जो अन्य रस तक उत्पतत्त होिी हैं उसे तवपाक कहिे हैं । तवपाक पाचकाति की तक्रर्ा सम्पूणय होने पर उत्पन्न होने वाली तक्रर्ा हैं । शुक्रहा बददतवण्मूत्रो तवपाको वािलः कटुः । मिुरः सृतितवंमूत्रो तवपाकः कफशुक्रलः ॥ तपत्तक ृ ि् सृतितवण्मूत्रः पाकोऽम्लः शुक्रनाशनः । ( च. सू. २६/६१) गुरु पाको वाितपत्तघ्नः लघु पाकः श्लेष्मघ्नः । गुरुपाकः सृतितवणमूत्रिर्ा कफोत्क्क्लेशेन च, लघुबयददतवण्मूत्रिर्ा मारुिकोपेन च ॥ ( सु. सू. ४१/१५) 1. गुरु तवपाक - वाि और तपत्त को क्षीण करने वाला , कफ वियक , मल मूत्र को बाहर तनकलने वाला । 2. लघु तवपाक - तवपररि । तनष्ठापाक मल मूत्र को तनकालने वाले । मल मूत्र को बांिने वाले । "तवपाक कमयतनिा" (च. सू. २६/६६) अिायि तवपाक का ज्ञान परोक्ष र्ा अनुमान से होिा हैं ।
  • 8. िािु पोषण न्यार् िीन मि :- १. क्षीर-दति न्यार् ( क्रम पररणाम पक्ष) २. क े दारी -क ु ल्या न्यार् ३. खले - कपोि न्यार्
  • 9. आहार रस + जठराति धािु उपधािु मल रस स्तन्य और आियव कफ रक्त कण्डरा और तसरा तपत्त मांस त्वचा और वसा खमल ( श्रोि, नासा, कणय, अस्मषक्ष, प्रजनन क े मल) मेद स्नार्ु स्वेद अस्मस्ि - क े श, रोम, श्मश्रु मज्जा - अतक्ष, त्वक, तवि् स्नेह शुक्र - -
  • 10. मल स्वेद पुरीष मूत्र • मतलनी-करणाि् आहार-मलत्वाद् वा मलाः । (च. तच. १५) • पुररषम-उपस्तम्भं वाय्व-अति-िारणं च । • बस्मस्त-पूरण-तवक्लेदक ृ न् (िर)-मूत्रम् । • स्वेदः क्लेद-त्वक-सौक ु मार्य-क ृ ि । (सु. सू. १५/१८) मल मल वृध्दि लक्षण :- पुरीषम् आटोपं क ु क्षौ शूलं च; मूत्रं मूत्रवृस्मर्द्ं मुहमुयहः प्रवृतत्तं बस्मस्त-िोदम- अध्मानं च; स्वेदस् त्वचो दौगयन्ध्यं कण्ड ूं च || (सू. सू. १५/१५)
  • 11. स्वेद स्वेद :- - मलः स्वेदस्तु मेदसः । (च. तच. १५/८) - स्वेदवहानां स्त्रोिसां मेदो मूलं लोमक ू पाश्च । ( च. तच. ५/८) - दशांजतल प्रमाणम् (च. शा. ७/१५) शाि्यगिर - स्वेद को मेदो िािु की उपिािु माना हैं । मेद मल स्वेद स्वेद प्रमाण १० अंजतल मेद लोमक ू प स्वेदोवह स्त्रोिो मूल
  • 12. स्वेद क्षर् वृस्मर्द् स्वेद क्षर् स्वेद वृस्मर्द् मल का संचर् होना शरीर क े तलर्े अभ्यस्त हैं इसतलर्े क्षर् अतिक पीिादार्ी हैं
  • 13. स्वेद क्षर् लक्षण स्वेदोक्ष्ये स्तभ्ि रोम क ू पिाः त्वक-शोषः स्पशय-वैगुण्यं, स्वेदनाश श्चुः ित्राभ्यंगः स्वेद् -उपर्ोगश्च । ( सु. सू. १५/११) स्वेदे रोमच्युतिः स्तब्धरोमिा स्फ ु टनं त्वचः । (अ. ह्. सू. ११/१२) १. अवरोि रोम क ू पो का २. त्वचा रुक्षिा ३. स्पशय ज्ञान का अभाव ४. रोम तगरना ५. त्वचा का फटना
  • 14. स्वेद क्षर् तचतकत्सा स्वेिनाश शचुुः ित्राभ्योंगुः स्वेि् -उपय गश्च । ( सु. सू. १५/११) व्यायाम-अभ्योंजन-स्वेि-मघुः स्वेि-क्षय-उभ्िवान् । (अ. ह. सू. ११/३३) १. व्यायाम २. अभ्योंग ३. स्वेिन ४. मद्य
  • 15. स्वेद स्त्रोिो दुति कारण व्यार्ामाद-अतिसन्तापाश्च तशिोष्ाक्रमसेवनाि् | स्वेद-वाहीतन- दुष्यस्मन्त –क्रोि-शोक-भर्ैस्तिा || (च. तव. ५/२२) १. व्यार्ाम २. अतििूप ३. तशि-उष् का क्रम से सेवन ४. क्रोि ५. शोक ६. भर्
  • 16. स्वेद स्त्रोिो दुति लक्षण प्रदुिानां िु खल्वेषातमदं तवशेषतवज्ञानं भवति; िद्यिा- अस्वेदनम अतिस्वेदनं पारुष्यम अतिश्लक्ष्णिाम्गसस्य पररदाहं लोमहषं च दृष्ट्वा स्वेदवहान्यस्य स्रोिांतस प्रदुिानीति तवद्याि् || (च. तव. ५/२२) १. अस्वेद २. अतिस्वेद ३. त्वचा रुक्षिा ४. त्वचा तस्नग्धिा ५. त्वचा दाह ६. लोम हषय
  • 17. मूत्र आहार पाचन तवभाजन सार तकट्ट् मल घन द्रव पुरीष मूत्र पक्वामाश्य-म्ध्यस्िं तपत्तं चिुतवयिम-अन्न-पानं पचति, तववेच्यति च दोष-रस-मूत्र-पुरीषातण । (सु. सू. २१/१०) आहारस्य रसः सारः सारहीनो मलद्रवः । तशरा-अतभस्त-जलं नीिं वस्तौ मूत्रत्वम-अपुन्याि् ॥ (शा. पू. ६/६) मूत्रवहे द्वे, िर्ोमूयलं वस्मस्तमेढ्रं (मूत्रैस्मिर्) च । (सु. शा. ९/१२) मूत्रवहानां स्त्रोिसां वस्मस्िमूयलं वग्क्क्षणौ (वृक्कौ) च । ( च. तव. ५/८) सद्योमारक ममय । चत्वारो मूत्रस्य । ( च. शा. ७/१५ ) - ४ अंगुल प्रमाण । मूत्रवह स्त्रोिो मूल वस्मस्त मेढ्र /वक्षण
  • 18. मूत्र क्षर् लक्षण मूत्रक्षर्े वस्मस्त-िोदो-अल्पमूत्रिा च । (सु. सू. १५/११) मूत्रक्षर्े मूत्रक ृ छ् रं मूत्र-वैवण्ययम्-एव च । तपपासा बाििे चास्य मुखं च पररशुष्यति ॥ (च. सू. १७/७१) १. वस्मस्त िोद २. अल्प मूत्रिा ३. मूत्र क ृ च्छिा ४. मूत्र-वैवण्ययम् ५. तपपासा ६. मूखशोष
  • 19. मूत्र क्षर् तचतकत्सा मूत्र-क्षर्े-पुनर-इक्षुरस-वारुणी-मण्ड-द्रव-मिुर-अम्ल-लवण- उपक्लेतदनाम् । (च. शा. ६/११) १. इक्षुरस । २. िािी का उपर का मण्ड । ३. मिुर-अम्ल-लवण रस र्ुक्त पदािय । ४. द्रव पदािय ।
  • 20. मूत्रवह स्त्रोिो दुति कारण मूतत्रि-उदक-भक्ष्य स्त्रीसेवानान् मूत्रतनग्रहाि् । मूत्रवाहीतन दुष्यस्मन्त तक्षण्स्स्य-अतभक्षिस्य च ॥ (च. तव. ५/२) १. मूत्र का वेग उपस्मस्िि होने पर जल तपना । २. मैिुन / मूत्र वेग रोकना । ३. व्रणातद क े कारण क्षीणय दुबयल पुरुष ।
  • 21. मूत्रवह स्त्रोिो दुति लक्षण वस्मस्त-मेहनर्ोःशुलं मूत्रक ृ च्छं तशरोरुजा । तवनमो वंक्षण-अनाहः स्यास्मल्लंगं मूत्रतनग्रहे ॥ (च. सू ७/६) १. वस्मस्ि और तशशन में शूल । २. मूत्रक ृ च्छ । ३. तशरो शूल । ४. शरीर का तपछ्े क्षुक जाना । ५. वृषण मे जकिाहट ।
  • 22. पुरीष पक्वशर्ं िु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वार्ुना । पररतपण्डि-पक्वस्य वार्ुः स्याि् कटुभाविः ॥ (च. तच. १५/११) पुरीषवहे द्वे िर्ोमूयलं पक्वाशर्ो गुदं च ॥ (सु. शा. ९/१२) आहार पाचन तवभाजन सार तकट्ट् द्रव तकट्टांश पर अति तक्रर्ा शुष्क तकट्टांश (कटु रस र्ुक्त) वार्ु का प्रादुभायव मूत्र पूरीष
  • 23. पुरीष क्षर् लक्षण पुरीषक्षर्े हृदर्पार्श्य-पीिा सशब्दस्य च वार्ु-उर्ध्य-गमनं क ु क्षौ संचरणं च । (सु. सू. १५/१५) १. हदर्पार्श्य पीिा ( Precordial Pain) २. पेट (क ु तक्ष) मे शब्द र्ुक्त वार्ु का उपर की और तवचरण (गुि्गुिाहट क े साि वार्ु का उपर की और जाना )
  • 24. पूरीष वह स्त्रोिो दुति हेिू संिारणाद-अत्यशनाद-अजीणाय-अयाशनाि्-ििा । वचो-वाहीतन दुष्यतनि दुबयल्-अतिः क ृ शस्य च ॥ (च. तव. ५/२१) १. मल वेग को रोकना २. अतिक भोजन ३. अतजयणय ४. भोजन क े बाद तशघ्र पुनः भोजन से ५. अति क े मन्द तहने से ६. शरीर क ृ शिा से
  • 25. पूरीष वह स्त्रोिो दुति लक्षण पक्वाशर्-तशरः शूलं वािवचोऽप्रवियनम् । तपस्मण्डको-उद्वेिन-अयमानं पुरीषे स्याद् तविाररिे ॥ (च. सू. ७/८) १. पक्वाशर् और तशर शूल २. अिोवार्ु and मल की अप्रवृतत्त ३. जंघाओ मे पीिा(ऎंठन) ४. अदय्मान
  • 26. आम और तनराम मल क े लक्षण आम पुरीष – अपक्व पुरीष वाि-तपत्त-कफ दोष से दुतषि होिा है जल मे ि ू ब जािा है अत्यन्त दुगयन्ध र्ुक्त तवस्मच्छन्न (टुटकर तनकलने वाला) पक्व पुरीष - दुगयन्ध रतहि बंिा हआ जल मे िैरनै वाला