1. आहार
सभी द्रव्य पंचभौतिक होिे हैं । इस कारण आहार द्रव्य भी पांचभौतिक होिे हैं । इसका िात्पर्य र्ह
हैं । इन महाभूिो का अतिष्ठान पृतिवी ििा र्ोतन जल को माना गर्ा हैं । इस प्रकार जठराति द्वारा स्मर्क
्
पाचनोअपरान्त अपने अपने गुण वाले शरीर क
े अंगों र्ा िािुओं को पोषण करिा हैं ।
सवं द्रव्यं पांचभौतिकम अस्मस्मन्निे । ( च. सू. २६/१०)
पांचभूिात्मक
े देहे ह्राहार पांचभौतिकः । ( सु. सू. ४६/५३३)
इह तह द्रव्यं पंचमहाभूिात्मकम् । िस्यातिष्ठानं पृतिवी । ( अ. सं. सू. १७/३)
तवपक्वः पंच्िा स्मर्ग् गुणान् स्वानतभवर्द्यर्ेि । ( सु. सू. ४६/५३३)
2. रसों का पांचभौतिक संगठन
रस ों का पाोंचभौतिक सोंगठन :-
िेषां षष्ां रसानां सोमगुणातिरेकामिुरो:, पृतिव्यतिगुणभूतर्ष्ठत्वादम्ल:, स्मिलातिभूतर्ष्ठत्वाल्लवणः,
वाय्वतिभूष्ठत्वाि् कटुक:, वाय्वाकाशातिररक्तत्वातिक्ता;, पवनपृतिवीव्यतिरेकाि् कषार् इति ।
(च.सू. २६/४०)
1. मिुर - पृिवी + जल
2. अम्ल - पृिवी + िेज
3. लवण - जल + िेज
4. कटु - वार्ु + अति
5. तिक्त - वार्ु + आकाश
6. कषार् - वार्ु + पृिवी
6. आहार पाक वणयन
आहार जब महास्त्रोिस् में पहँचिा हैं िब वह पाचन की तवतभन्न अवस्िाओ से गुजरिा हैं पाचन की
इन्ीं अवस्िाओ को "अवस्िा पाक" संज्ञा दी हैं ।
अवस्िापाक क
े तिन भेद होिे है :-
१. मिुर अवस्िापाक - मुख से आमाशर् क
े ऊर्ध्य भाग िक । - मिुर अवस्िापाक क
े उपरान्त
कफ की वृस्मदद होिी हैं ।
२. अम्ल अवस्िापाक - आमाशर् क
े अिोभाग से ग्रहणी र्ा तपत्तिराकला में । अम्ल अवस्िापाक
क
े बाद तपत्त की वृस्मदद होिी हैं ।
३. कटु अवस्िापाक - पक्वाशर् में । कटु अवस्िापाक क
े उपरान्त वार्ु की वृस्मदद होिी हैं । दोषो की उस -उस
दोष वियक आहार द्रव्यो क
े सेवन से अतिक वृस्मदद होिी हैं ।
7. जाठरेणातिगा र्ोगद्यदुदेति रसान्तरम् । रसानां पररणामान्ते स तवपाक इति स्मृिः ।
(अ. ह्र्. सू. ९/२०)
अविापाक क
े पश्चाि सम्पन्न हर्े पाक की अवस्िा तनष्ठापाक ( पाक क
े अन्त में ) हैं । जठराति पाक क
े पश्चाि् आहार -
औषि द्रव्यो में जो अन्य रस तक उत्पतत्त होिी हैं उसे तवपाक कहिे हैं । तवपाक पाचकाति की तक्रर्ा सम्पूणय होने पर उत्पन्न
होने वाली तक्रर्ा हैं ।
शुक्रहा बददतवण्मूत्रो तवपाको वािलः कटुः ।
मिुरः सृतितवंमूत्रो तवपाकः कफशुक्रलः ॥
तपत्तक
ृ ि् सृतितवण्मूत्रः पाकोऽम्लः शुक्रनाशनः । ( च. सू. २६/६१)
गुरु पाको वाितपत्तघ्नः लघु पाकः श्लेष्मघ्नः ।
गुरुपाकः सृतितवणमूत्रिर्ा कफोत्क्क्लेशेन च, लघुबयददतवण्मूत्रिर्ा मारुिकोपेन च ॥ ( सु. सू. ४१/१५)
1. गुरु तवपाक - वाि और तपत्त को क्षीण करने वाला , कफ वियक , मल मूत्र को बाहर तनकलने वाला ।
2. लघु तवपाक - तवपररि ।
तनष्ठापाक
मल मूत्र को तनकालने वाले ।
मल मूत्र को बांिने वाले ।
"तवपाक कमयतनिा" (च. सू. २६/६६) अिायि तवपाक का ज्ञान परोक्ष र्ा अनुमान से होिा हैं ।
8. िािु पोषण न्यार्
िीन मि :-
१. क्षीर-दति न्यार् ( क्रम पररणाम पक्ष)
२. क
े दारी -क
ु ल्या न्यार्
३. खले - कपोि न्यार्
9. आहार रस + जठराति
धािु उपधािु मल
रस
स्तन्य और आियव कफ
रक्त
कण्डरा और तसरा तपत्त
मांस
त्वचा और वसा
खमल ( श्रोि, नासा,
कणय, अस्मषक्ष,
प्रजनन क
े मल)
मेद
स्नार्ु स्वेद
अस्मस्ि
- क
े श, रोम, श्मश्रु
मज्जा
-
अतक्ष, त्वक, तवि्
स्नेह
शुक्र
- -
11. स्वेद
स्वेद :-
- मलः स्वेदस्तु मेदसः । (च. तच. १५/८)
- स्वेदवहानां स्त्रोिसां मेदो मूलं लोमक
ू पाश्च । ( च. तच. ५/८)
- दशांजतल प्रमाणम् (च. शा. ७/१५)
शाि्यगिर - स्वेद को मेदो िािु की उपिािु माना हैं ।
मेद मल स्वेद
स्वेद प्रमाण १० अंजतल
मेद
लोमक
ू प
स्वेदोवह स्त्रोिो मूल
12. स्वेद क्षर् वृस्मर्द्
स्वेद क्षर्
स्वेद वृस्मर्द्
मल का संचर् होना शरीर क
े तलर्े अभ्यस्त हैं इसतलर्े क्षर् अतिक पीिादार्ी हैं
13. स्वेद क्षर् लक्षण
स्वेदोक्ष्ये स्तभ्ि रोम क
ू पिाः त्वक-शोषः स्पशय-वैगुण्यं, स्वेदनाश श्चुः ित्राभ्यंगः
स्वेद् -उपर्ोगश्च । ( सु. सू. १५/११)
स्वेदे रोमच्युतिः स्तब्धरोमिा स्फ
ु टनं त्वचः । (अ. ह्. सू. ११/१२)
१. अवरोि रोम क
ू पो का
२. त्वचा रुक्षिा
३. स्पशय ज्ञान का अभाव
४. रोम तगरना
५. त्वचा का फटना
14. स्वेद क्षर् तचतकत्सा
स्वेिनाश शचुुः ित्राभ्योंगुः स्वेि् -उपय गश्च । ( सु. सू. १५/११)
व्यायाम-अभ्योंजन-स्वेि-मघुः स्वेि-क्षय-उभ्िवान् । (अ. ह. सू. ११/३३)
१. व्यायाम
२. अभ्योंग
३. स्वेिन
४. मद्य
15. स्वेद स्त्रोिो दुति कारण
व्यार्ामाद-अतिसन्तापाश्च तशिोष्ाक्रमसेवनाि् |
स्वेद-वाहीतन- दुष्यस्मन्त –क्रोि-शोक-भर्ैस्तिा ||
(च. तव. ५/२२)
१. व्यार्ाम
२. अतििूप
३. तशि-उष् का क्रम से सेवन
४. क्रोि
५. शोक
६. भर्
16. स्वेद स्त्रोिो दुति लक्षण
प्रदुिानां िु खल्वेषातमदं तवशेषतवज्ञानं भवति;
िद्यिा- अस्वेदनम अतिस्वेदनं पारुष्यम अतिश्लक्ष्णिाम्गसस्य
पररदाहं लोमहषं च दृष्ट्वा स्वेदवहान्यस्य स्रोिांतस प्रदुिानीति तवद्याि् ||
(च. तव. ५/२२)
१. अस्वेद
२. अतिस्वेद
३. त्वचा रुक्षिा
४. त्वचा तस्नग्धिा
५. त्वचा दाह
६. लोम हषय
20. मूत्रवह स्त्रोिो दुति कारण
मूतत्रि-उदक-भक्ष्य स्त्रीसेवानान् मूत्रतनग्रहाि् ।
मूत्रवाहीतन दुष्यस्मन्त तक्षण्स्स्य-अतभक्षिस्य च ॥
(च. तव. ५/२)
१. मूत्र का वेग उपस्मस्िि होने पर जल तपना ।
२. मैिुन / मूत्र वेग रोकना ।
३. व्रणातद क
े कारण क्षीणय दुबयल पुरुष ।
21. मूत्रवह स्त्रोिो दुति लक्षण
वस्मस्त-मेहनर्ोःशुलं मूत्रक
ृ च्छं तशरोरुजा ।
तवनमो वंक्षण-अनाहः स्यास्मल्लंगं मूत्रतनग्रहे ॥
(च. सू ७/६)
१. वस्मस्ि और तशशन में शूल ।
२. मूत्रक
ृ च्छ ।
३. तशरो शूल ।
४. शरीर का तपछ्े क्षुक जाना ।
५. वृषण मे जकिाहट ।
22. पुरीष
पक्वशर्ं िु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वार्ुना ।
पररतपण्डि-पक्वस्य वार्ुः स्याि् कटुभाविः ॥
(च. तच. १५/११)
पुरीषवहे द्वे िर्ोमूयलं पक्वाशर्ो गुदं च ॥
(सु. शा. ९/१२)
आहार
पाचन
तवभाजन
सार तकट्ट्
द्रव तकट्टांश पर अति तक्रर्ा
शुष्क तकट्टांश (कटु रस र्ुक्त)
वार्ु का प्रादुभायव
मूत्र
पूरीष
23. पुरीष क्षर् लक्षण
पुरीषक्षर्े हृदर्पार्श्य-पीिा सशब्दस्य च वार्ु-उर्ध्य-गमनं क
ु क्षौ संचरणं
च ।
(सु. सू. १५/१५)
१. हदर्पार्श्य पीिा ( Precordial Pain)
२. पेट (क
ु तक्ष) मे शब्द र्ुक्त वार्ु का उपर की और तवचरण
(गुि्गुिाहट क
े साि वार्ु का उपर की और जाना )
24. पूरीष वह स्त्रोिो दुति हेिू
संिारणाद-अत्यशनाद-अजीणाय-अयाशनाि्-ििा ।
वचो-वाहीतन दुष्यतनि दुबयल्-अतिः क
ृ शस्य च ॥
(च. तव. ५/२१)
१. मल वेग को रोकना
२. अतिक भोजन
३. अतजयणय
४. भोजन क
े बाद तशघ्र पुनः भोजन से
५. अति क
े मन्द तहने से
६. शरीर क
ृ शिा से
25. पूरीष वह स्त्रोिो दुति लक्षण
पक्वाशर्-तशरः शूलं वािवचोऽप्रवियनम् ।
तपस्मण्डको-उद्वेिन-अयमानं पुरीषे स्याद् तविाररिे ॥
(च. सू. ७/८)
१. पक्वाशर् और तशर शूल
२. अिोवार्ु and मल की अप्रवृतत्त
३. जंघाओ मे पीिा(ऎंठन)
४. अदय्मान
26. आम और तनराम मल क
े
लक्षण
आम पुरीष – अपक्व पुरीष वाि-तपत्त-कफ दोष से दुतषि होिा है
जल मे ि
ू ब जािा है
अत्यन्त दुगयन्ध र्ुक्त
तवस्मच्छन्न (टुटकर तनकलने वाला)
पक्व पुरीष - दुगयन्ध रतहि
बंिा हआ
जल मे िैरनै वाला