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सोना हिरनी
महादेवी वमाा
सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण
है। मेरे पररचचि स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु
की पौत्री सस्स्मिा ने लिखा है :
'र्गि वर्ा अपने पडोसी से मुझे एक हहरन लमिा
था। बीिे कु छ महीनों में हम उससे बहुि स्नेह
करने िर्गे हैं। परन्द्िु अब मैं अनुभव करिी हूँ कक
सघन जंर्गि से सम्बद्ध रहने के कारण िथा अब
बडे हो जाने के कारण उसे घमने के लिए अचधक
ववस्िृि स्थान चाहहए।
'क्या कृ पा करके उसे स्वीकार करेंर्गी? सचमुच मैं
आपकी बहुि आभारी हूँर्गी, क्योंकक आप जानिी हैं,
मैं उसे ऐसे व्यस्क्ि को नहीं देना चाहिी, जो उससे
बुरा व्यवहार करे। मेरा ववश्वास है, आपके यहाूँ
उसकी भिी भाूँति देखभाि हो सके र्गी।'
कई वर्ा पवा मैंने तनश्चय ककया कक अब हहरन नहीं
पािूँर्गी, परन्द्िु आज उस तनयम को भंर्ग ककए
बबना इस कोमि-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं
है।
सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्द्िु वह
िब िक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी
थी। सुनहरे रंर्ग के रेशमी िच्छों की र्गाूँठ के
समान उसका कोमि िघु शरीर था। छोटा-सा मुूँह
और बडी-बडी पानीदार आूँखें। देखिी थी िो िर्गिा
था कक अभी छिक पडेंर्गी। उनमें प्रसुप्ि र्गति की
बबजिी की िहर आूँखों में कौंध जािी थी।
.
सब उसके सरि लशशु रूप से इिने प्रभाववि हुए कक ककसी चम्पकवणाा रूपसी के उपयुक्ि सोना, सुवणाा, स्वणािेखा
आहद नाम उसका पररचय बन र्गए।
परन्द्िु उस बेचारे हररण-शावक की कथा िो लमट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, स्जसे मनुष्य तनष्ठुरिा र्गढ़िी है। वह न
ककसी दुिाभ खान के अमल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुर के महाघा मोिी की।
तनजीव वस्िुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करिा है, अि: उनकी स्स्थति में पररविान के अतिररक्ि
कु छ कथनीय नहीं रहिा। परन्द्िु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोर्ण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का
संघर्ा है, जो सारी जीवनकथा का ित्व है।
स्जन्द्होंने हरीतिमा में िहरािे हुए मैदान पर छिाूँर्गें भरिे हुए हहरनों के झुंड को देखा होर्गा, वही उस अद्भुि,
र्गतिशीि सौन्द्दया की कल्पना कर सकिा है। मानो िरि मरकि के समुर में सुनहिे फे नवािी िहरों का उद्वेिन
हो। परन्द्िु जीवन के इस चि सौन्द्दया के प्रति लशकारी का आकर्ाण नहीं रहिा।
मैं प्राय: सोचिी हूँ कक मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्द्दर ऊजाा को तनस्ष्िय और जड बनाने के काया को मनोरंजन कै से
कहिा है।
मनुष्य मृत्यु को असुन्द्दर ही नहीं, अपववत्र भी मानिा है। उसके वप्रयिम आत्मीय जन का शव भी उसके तनकट
अपववत्र, अस्पृश्य िथा भयजनक हो उठिा है। जब मृत्यु इिनी अपववत्र और असुन्द्दर है, िब उसे बाूँटिे घमना
क्यों अपववत्र और असुन्द्दर काया नहीं है, यह मैं समझ नहीं पािी।
आकाश में रंर्गबबरंर्गे फिों की घटाओं के समान उडिे हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जििरंर्ग आहद का वृन्द्दवादन
(आके स्रा) बजािे हुए पक्षी ककिने सुन्द्दर जान पडिे हैं। मनुष्य ने बन्द्दक उठाई, तनशाना साधा और कई र्गािे-उडिे
पक्षी धरिी पर ढेिे के समान आ चर्गरे। ककसी की िाि-पीिी चोंचवािी र्गदान टट र्गई है, ककसी के पीिे सुन्द्दर पंजे
टेढ़े हो र्गए हैं और ककसी के इन्द्रधनुर्ी पंख बबखर र्गए हैं। क्षिववक्षि रक्िस्नाि उन मृि-अधामृि िघु र्गािों में न
अब संर्गीि है; न सौन्द्दया, परन्द्िु िब भी मारनेवािा अपनी सफििा पर नाच उठिा है।
• पक्षक्षजर्गि में ही नही, पशुजर्गि में भी मनुष्य की ध्वंसिीिा ऐसी ही
तनष्ठु र है। पशुजर्गि में हहरन जैसा तनरीह और सुन्द्दर पशु नहीं है - उसकी
आूँखें िो मानो करुणा की चचत्रलिवप हैं। परन्द्िु इसका भी र्गतिमय, सजीव
सौन्द्दया मनुष्य का मनोरंजन करने में असमथा है। मानव को, जो जीवन का
श्रेष्ठिम रूप है, जीवन के अन्द्य रूपों के प्रति इिनी वविृष्णा और ववरस्क्ि
और मृत्यु के प्रति इिना मोह और इिना आकर्ाण क्यों?
• बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी तनष्ठु र मनोरंजनवप्रयिा के कारण अपने
अरण्य-पररवेश और स्वजाति से दर मानव समाज में आ पडी थी।
• प्रशान्द्ि वनस्थिी में जब अिस भाव से रोमन्द्थन करिा हुआ मृर्ग समह
लशकाररयों की आहट से चौंककर भार्गा, िब सोना की माूँ सद्य:प्रसिा होने
के कारण भार्गने में असमथा रही। सद्य:जाि मृर्गलशशु िो भार्ग नहीं सकिा
था, अि: मृर्गी माूँ ने अपनी सन्द्िान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षक्षि
रखने के प्रयास में प्राण हदए।
• पिा नहीं, दया के कारण या कौिुकवप्रयिा के कारण लशकारी मृि हहरनी के
साथ उसके रक्ि से सने और ठंडे स्िनों से चचपटे हुए शावक को जीववि
उठा िाए। उनमें से ककसी के पररवार की सदय र्गृहहणी और बच्चों ने उसे
पानी लमिा दध वपिा-वपिाकर दो-चार हदन जीववि रखा।
• सुस्स्मिा वसु के समान ही ककसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और
वह उस अनाथ शावक को मुमर्ा अवस्था में मेरे पास िे आई। शावक
अवांतछि िो था ही, उसके बचने की आशा भी धलमि थी, परन्द्िु मैंने उसे
स्वीकार कर लिया। स्स्नग्ध सुनहिे रंर्ग के कारण सब उसे सोना कहने
िर्गे। दध वपिाने की शीशी, ग्िकोज, बकरी का दध आहद सब कु छ एकत्र
करके , उसे पािने का कहठन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
• उसका मुख इिना छोटा-सा था कक उसमें शीशी का तनपि समािा ही नहीं
था - उस पर उसे पीना भी नहीं आिा था। कफर धीरे-धीरे उसे पीना ही
नहीं, दध की बोिि पहचानना भी आ र्गया। आूँर्गन में कदिे-फाूँदिे हुए
भी भस्क्िन को बोिि साफ करिे देखकर वह दौड आिी और अपनी िरि
चककि आूँखों से उसे ऐसे देखने िर्गिी, मानो वह कोई सजीव लमत्र हो।
• उसने राि में मेरे पिंर्ग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाूँ
र्गंदा न करने की आदि कु छ हदनों के अभ्यास से पड सकी। अूँधेरा होिे
ही वह मेरे कमरे में पिंर्ग के पास आ बैठिी और कफर सवेरा होने पर ही
बाहर तनकििी।
• उसका हदन भर का कायाकिाप भी एक प्रकार से तनस्श्चि था। ववद्यािय
और छात्रावास की ववद्याचथातनयों के तनकट पहिे वह कौिुक का कारण
रही, परन्द्िु कु छ हदन बीि जाने पर वह उनकी ऐसी वप्रय साचथन बन र्गई,
स्जसके बबना उनका ककसी काम में मन नहीं िर्गिा था।
दध पीकर और भीर्गे चने खाकर सोना कु छ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्द्िुलिि कर चौकडी
भरिी। कफर वह छात्रावास पहुूँचिी और प्रत्येक कमरे का भीिर, बाहर तनरीक्षण करिी। सवेरे
छात्रावास में ववचचत्र-सी कियाशीििा रहिी है - कोई छात्रा हाथ-मुूँह धोिी है, कोई बािों में कं घी
करिी है, कोई साडी बदििी है, कोई अपनी मेज की सफाई करिी है, कोई स्नान करके भीर्गे कपडे
सखने के लिए फै िािी है और कोई पजा करिी है। सोना के पहुूँच जाने पर इस ववववध कमा-
संकु ििा में एक नया काम और जुड जािा था। कोई छात्रा उसके माथे पर कु मकु म का बडा-सा
टीका िर्गा देिी, कोई र्गिे में ररबन बाूँध देिी और कोई पजा के बिाशे खखिा देिी।
मेस में उसके पहुूँचिे ही छात्राएूँ ही नहीं, नौकर-चाकर िक दौड आिे और सभी उसे कु छ-न-कु छ
खखिाने को उिाविे रहिे, परन्द्िु उसे बबस्कु ट को छोडकर कम खाद्य पदाथा पसन्द्द थे।
छात्रावास का जार्गरण और जिपान अध्याय समाप्ि होने पर वह घास के मैदान में कभी दब
चरिी और कभी उस पर िोटिी रहिी। मेरे भोजन का समय वह ककस प्रकार जान िेिी थी, यह
समझने का उपाय नहीं है, परन्द्िु वह ठीक उसी समय भीिर आ जािी और िब िक मुझसे सटी
खडी रहिी जब िक मेरा खाना समाप्ि न हो जािा। कु छ चावि, रोटी आहद उसका भी प्राप्य
रहिा था, परन्द्िु उसे कच्ची सब्जी ही अचधक भािी थी।
घंटी बजिे ही वह कफर प्राथाना के मैदान में पहुूँच जािी और उसके समाप्ि होने पर छात्रावास के
समान ही कक्षाओं के भीिर-बाहर चक्कर िर्गाना आरम्भ करिी।
उसे छोटे बच्चे अचधक वप्रय थे, क्योंकक उनके साथ खेिने का अचधक अवकाश रहिा था। वे
पंस्क्िबद्ध खडे होकर सोना-सोना पुकारिे और वह उनके ऊपर से छिाूँर्ग िर्गाकर एक ओर से
दसरी ओर कदिी रहिी। सरकस जैसा खेि कभी घंटों चििा, क्योंकक खेि के घंटों में बच्चों की
कक्षा के उपरान्द्ि दसरी आिी रहिी।
मेरे प्रति स्नेह-प्रदशान के उसके कई प्रकार थे। बाहर खडे होने पर वह सामने या पीछे से छिाूँर्ग
िर्गािी और मेरे लसर के ऊपर से दसरी ओर तनकि जािी। प्राय: देखनेवािों को भय होिा था कक
उसके पैरों से मेरे लसर पर चोट न िर्ग जावे, परन्द्िु वह पैरों को इस प्रकार लसकोडे रहिी थी
और मेरे लसर को इिनी ऊूँ चाई से िाूँघिी थी कक चोट िर्गने की कोई सम्भावना ही नहीं रहिी
थी।
भीिर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रर्गडने िर्गिी। मेरे बैठे रहने पर वह साडी का छोर
मुूँह में भर िेिी और कभी पीछे चुपचाप खडे होकर चोटी ही चबा डाििी। डाूँटने पर वह अपनी
बडी र्गोि और चककि आूँखों में ऐसी अतनवाचनीय स्जज्ञासा भरकर एकटक देखने िर्गिी कक हूँसी
आ जािी।
कववर्गुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृर्गी-मृर्ग-शावक आहद को इिना महत्व क्यों हदया है, यह
हहरन पािने के उपरान्द्ि ही ज्ञाि होिा है।
पािने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संर्गी बन जािा है, जो मनुष्य के एकान्द्ि शन्द्य को भर
देिा है, परन्द्िु खीझ उत्पन्द्न करने वािी स्जज्ञासा से उसे बेखझि नहीं बनािा। यहद मनुष्य दसरे
मनुष्य से के वि नेत्रों से बाि कर सकिा, िो बहुि-से वववाद समाप्ि हो जािे, परन्द्िु प्रकृ ति को
यह अभीष्ट नहीं रहा होर्गा।
सम्भवि: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर ककए र्गए आघािों और साथाक शब्दभार से अपने
प्राणों पर इन भार्ाहीन जीवों की स्नेह िरि दृस्ष्ट का चन्द्दन िेप िर्गाकर स्वस्थ और आश्वस्ि
होना चाहिा है।
सरस्विी वाणी से ध्वतनि-प्रतिध्वतनि कण्व के आश्रम में ऋवर्यों, ऋवर्-पस्त्नयों, ऋवर्-कु मार-
कु माररकाओं के साथ मक अज्ञान मृर्गों की स्स्थति भी अतनवाया है। मन्द्त्रपि कु हटयों के द्वार को
नीहारकण चाहने वािे मृर्ग रुूँध िेिे हैं। ववदा िेिी हुई शकु न्द्ििा का र्गुरुजनों के उपदेश-आशीवााद
से बेखझि अंचि, उसका अपत्यवि पालिि मृर्गछौना थाम िेिा है।
यस्य त्वया व्रणववरोपणलमंडर्गुदीनां
िैिं न्द्यवर्च्यि मुखे कु शसचचववद्धे।
श्यामाकमुस्ष्ट पररवचधिंिको जहाति
सो यं न पुत्रकृ िक: पदवीं मृर्गस्िे॥
- अलभज्ञानशाकु न्द्ििम्
शकु न्द्ििा के प्रश्न करने पर कक कौन मेरा अंचि खींच रहा है, कण्व कहिे है :
कु श के काूँटे से स्जसका मुख तछद जाने पर ि उसे अच्छा करने के लिए हहंर्गोट का िेि िर्गािी
थी, स्जसे िने मुट्ठी भर-भर सावाूँ के दानों से पािा है, जो िेरे तनकट पुत्रवि् है, वही िेरा मृर्ग
िुझे रोक रहा है।
साहहत्य ही नहीं, िोकर्गीिों की ममास्पलशािा में भी मृर्गों का ववशेर् योर्गदान रहिा है।
पशु मनुष्य के तनश्छि स्नेह से पररचचि रहिे हैं, उनकी ऊूँ ची-नीची सामास्जक स्स्थतियों से नहीं,
यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्ि हो र्गया।
अनेक ववद्याचथातनयों की भारी-भरकम र्गुरूजी से सोना को क्या िेना-देना था। वह िो उस दृस्ष्ट
को पहचानिी थी, स्जसमें उसके लिए स्नेह छिकिा था और उन हाथों को जानिी थी, स्जन्द्होंने
यत्नपवाक दध की बोिि उसके मुख से िर्गाई थी।
यहद सोना को अपने स्नेह की अलभव्यस्क्ि के लिए मेरे लसर के ऊपर से कदना आवश्यक िर्गेर्गा
िो वह कदेर्गी ही। मेरी ककसी अन्द्य पररस्स्थति से प्रभाववि होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।
कु त्ता स्वामी और सेवक का अन्द्िर जानिा है और स्वामी की स्नेह या िोध की प्रत्येक मुरा से
पररचचि रहिा है। स्नेह से बुिाने पर वह र्गदर्गद होकर तनकट आ जािा है और िोध करिे ही
सभीि और दयनीय बनकर दुबक जािा है।
• पर हहरन यह अन्द्िर नहीं जानिा, अि: उसका अपने पािनेवािे से डरना कहठन है। यहद उस
पर िोध ककया जावे िो वह अपनी चककि आूँखों में और अचधक ववस्मय भरकर पािनेवािे की
दृस्ष्ट से दृस्ष्ट लमिाकर खडा रहेर्गा - मानो पछिा हो, क्या यह उचचि है? वह के वि स्नेह
पहचानिा है, स्जसकी स्वीकृ ति जिाने के लिए उसकी ववशेर् चेष्टाएूँ हैं।
• मेरी बबल्िी र्गोधिी, कु त्ते हेमन्द्ि-वसन्द्ि, कु त्ती फ्िोरा सब पहिे इस नए अतिचथ को देखकर
रुष्ट हुए, परन्द्िु सोना ने थोडे ही हदनों में सबसे सख्य स्थावपि कर लिया। कफर िो वह घास
पर िेट जािी और कु त्ते-बबल्िी उस पर उछििे-कदिे रहिे। कोई उसके कान खींचिा, कोई पैर
और जब वे इस खेि में िन्द्मय हो जािे, िब वह अचानक चौकडी भरकर भार्गिी और वे
चर्गरिे-पडिे उसके पीछे दौड िर्गािे।
• वर्ा भर का समय बीि जाने पर सोना हररण शावक से हररणी में पररवतिाि होने िर्गी। उसके
शरीर के पीिाभ रोयें िाम्रवणी झिक देने िर्गे। टाूँर्गें अचधक सुडौि और खुरों के कािेपन में
चमक आ र्गई। ग्रीवा अचधक बंककम और िचीिी हो र्गई। पीठ में भराव वािा उिार-चढ़ाव और
स्स्नग्धिा हदखाई देने िर्गी। परन्द्िु सबसे अचधक ववशेर्िा िो उसकी आूँखों और दृस्ष्ट में
लमििी थी। आूँखों के चारों ओर खखंची कज्जि कोर में नीिे र्गोिक और दृस्ष्ट ऐसी िर्गिी थी,
मानो नीिम के बल्बों में उजिी ववद्युि का स्फु रण हो।
• सम्भवि: अब उसमें वन िथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जार्गने िर्गा था। प्राय: सने मैदान
में वह र्गदान ऊूँ ची करके ककसी की आहट की प्रिीक्षा में खडी रहिी। वासन्द्िी हवा बहने पर यह
मक प्रिीक्षा और अचधक मालमाक हो उठिी। शैशव के साचथयों और उनकी उछि-कद से अब
उसका पहिे जैसा मनोरंजन नहीं होिा था, अि: उसकी प्रिीक्षा के क्षण अचधक होिे जािे थे।
• इसी बीच फ्िोरा ने भस्क्िन की कु छ अूँधेरी कोठरी के एकान्द्ि कोने में चार बच्चों को जन्द्म
हदया और वह खेि के संचर्गयों को भि कर अपनी नवीन सृस्ष्ट के संरक्षण में व्यस्ि हो र्गई।
एक-दो हदन सोना अपनी सखी को खोजिी रही, कफर उसे इिने िघु जीवों से तघरा देख कर
उसकी स्वाभाववक चककि दृस्ष्ट र्गम्भीर ववस्मय से भर र्गई।
• एक हदन देखा, फ्िोरा कहीं बाहर घमने र्गई है और सोना भस्क्िन की कोठरी में तनस्श्चन्द्ि
िेटी है। वपल्िे आूँखें बन्द्द करने के कारण चीं-चीं करिे हुए सोना के उदर में दध खोज रहे थे।
िब से सोना के तनत्य के कायािम में वपल्िों के बीच िेट जाना भी सस्म्मलिि हो र्गया।
आश्चया की बाि यह थी कक फ्िोरा, हेमन्द्ि, वसन्द्ि या र्गोधिी को िो अपने बच्चों के पास
फटकने भी नहीं देिी थी, परन्द्िु सोना के संरक्षण में उन्द्हें छोडकर आश्वस्ि भाव से इधर-उधर
घमने चिी जािी थी।
• सम्भवि: वह सोना की स्नेही और अहहंसक प्रकृ ति से पररचचि हो र्गई थी। वपल्िों के बडे होने
पर और उनकी आूँखें खुि जाने पर सोना ने उन्द्हें भी अपने पीछे घमनेवािी सेना में
सस्म्मलिि कर लिया और मानो इस वृद्चध के उपिक्ष में आनन्द्दोत्सव मनाने के लिए अचधक
देर िक मेरे लसर के आरपार चौकडी भरिी रही। पर कु छ हदनों के उपरान्द्ि जब यह
आनन्द्दोत्सव पुराना पड र्गया, िब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रिीक्षा की स्िब्ध घडडयाूँ कफर
िौट आईं।
• उसी वर्ा र्गलमायों में मेरा बरीनाथ-यात्रा का कायािम बना। प्राय: मैं अपने पािि जीवों के
कारण प्रवास कम करिी हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्द्हें छोडकर
आश्वस्ि नहीं हो पािी। भस्क्िन, अनुरूप (नौकर) आहद िो साथ जाने वािे थे ही, पािि जीवों
में से मैंने फ्िोरा को साथ िे जाने का तनस्श्चय ककया, क्योंकक वह मेरे बबना रह नहीं सकिी
थी।
• छात्रावास बन्द्द था, अि: सोना के तनत्य नैलमवत्तक काया-किाप भी बन्द्द हो र्गए थे। मेरी
उपस्स्थति का भी अभाव था, अि: उसके आनन्द्दोल्िास के लिए भी अवकाश कम था।
• हेमन्द्ि-वसन्द्ि मेरी यात्रा और िज्जतनि अनुपस्स्थति से पररचचि हो चुके थे। होल्डाि बबछाकर
उसमें बबस्िर रखिे ही वे दौडकर उस पर िेट जािे और भौंकने िथा िन्द्दन की ध्वतनयों के
सस्म्मलिि स्वर में मुझे मानो उपािम्भ देने िर्गिे। यहद उन्द्हें बाूँध न रखा जािा िो वे कार
में घुसकर बैठ जािे या उसके पीछे-पीछे दौडकर स्टेशन िक जा पहुूँचिे। परन्द्िु जब मैं चिी
जािी, िब वे उदास भाव से मेरे िौटने की प्रिीक्षा करने िर्गिे।
• सोना की सहज चेिना में मेरी यात्रा जैसी स्स्थति का बोध था, नप्रत्याविान का;
इसी से उसकी तनराश स्जज्ञासा और ववस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।
• पैदि जाने-आने के तनश्चय के कारण बरीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्ि
हो र्गया। 2 जुिाई को िौटकर जब मैं बूँर्गिे के द्वार पर आ खडी हुई, िब
बबछु डे हुए पािि जीवों में कोिाहि होने िर्गा।
• र्गोधिी कदकर कन्द्धे पर आ बैठी। हेमन्द्ि-वसन्द्ि मेरे चारों ओर पररिमा करके
हर्ा की ध्वतनयों में मेरा स्वार्गि करने िर्गे। पर मेरी दृस्ष्ट सोना को खोजने
िर्गी। क्यों वह अपना उल्िास व्यक्ि करने के लिए मेरे लसर के ऊपर से छिाूँर्ग
नहीं िर्गािी? सोना कहाूँ है, पछने पर मािी आूँखें पोंछने िर्गा और चपरासी,
चौकीदार एक-दसरे का मुख देखने िर्गे। वे िोर्ग, आने के साथ ही मुझे कोई
दु:खद समाचार नहीं देना चाहिे थे, परन्द्िु मािी की भावुकिा ने बबना बोिे ही
उसे दे डािा।
• ज्ञाि हुआ कक छात्रावास के सन्द्नाटे और फ्िोरा के िथा मेरे अभाव के कारण
सोना इिनी अस्स्थर हो र्गई थी कक इधर-उधर कु छ खोजिी-सी वह प्राय:
कम्पाउण्ड से बाहर तनकि जािी थी। इिनी बडी हहरनी को पािनेवािे िो कम
थे, परन्द्िु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्ि करने के इच्छु क व्यस्क्ियों का बाहुल्य
था। इसी आशंका से मािी ने उसे मैदान में एक िम्बी रस्सी से बाूँधना आरम्भ
कर हदया था।
• एक हदन न जाने ककस स्िब्धिा की स्स्थति में बन्द्धन की सीमा भिकर बहुि
ऊचाूँई िक उछिी और रस्सी के कारण मुख के बि धरिी पर आ चर्गरी। वही
उसकी अस्न्द्िम साूँस और अस्न्द्िम उछाि थी।
• सब उस सुनहिे रेशम की र्गठरी के शरीर को र्गंर्गा में प्रवाहहि कर आए और इस
प्रकार ककसी तनजान वन में जन्द्मी और जन-संकु ििा में पिी सोना की करुण
कथा का अन्द्ि हुआ।
• सब सुनकर मैंने तनश्चय ककया था कक हहरन नहीं पािूँर्गी, पर संयोर्ग से कफर
हहरन ही पािना पड रहा है।
MADE BY:
NAME : BHAWANA GOSWAMI
CLASS : IX A
ROLL NO: 8

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  • 2. सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे पररचचि स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्स्मिा ने लिखा है : 'र्गि वर्ा अपने पडोसी से मुझे एक हहरन लमिा था। बीिे कु छ महीनों में हम उससे बहुि स्नेह करने िर्गे हैं। परन्द्िु अब मैं अनुभव करिी हूँ कक सघन जंर्गि से सम्बद्ध रहने के कारण िथा अब बडे हो जाने के कारण उसे घमने के लिए अचधक ववस्िृि स्थान चाहहए। 'क्या कृ पा करके उसे स्वीकार करेंर्गी? सचमुच मैं आपकी बहुि आभारी हूँर्गी, क्योंकक आप जानिी हैं, मैं उसे ऐसे व्यस्क्ि को नहीं देना चाहिी, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा ववश्वास है, आपके यहाूँ उसकी भिी भाूँति देखभाि हो सके र्गी।' कई वर्ा पवा मैंने तनश्चय ककया कक अब हहरन नहीं पािूँर्गी, परन्द्िु आज उस तनयम को भंर्ग ककए बबना इस कोमि-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है। सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्द्िु वह िब िक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंर्ग के रेशमी िच्छों की र्गाूँठ के समान उसका कोमि िघु शरीर था। छोटा-सा मुूँह और बडी-बडी पानीदार आूँखें। देखिी थी िो िर्गिा था कक अभी छिक पडेंर्गी। उनमें प्रसुप्ि र्गति की बबजिी की िहर आूँखों में कौंध जािी थी। .
  • 3. सब उसके सरि लशशु रूप से इिने प्रभाववि हुए कक ककसी चम्पकवणाा रूपसी के उपयुक्ि सोना, सुवणाा, स्वणािेखा आहद नाम उसका पररचय बन र्गए। परन्द्िु उस बेचारे हररण-शावक की कथा िो लमट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, स्जसे मनुष्य तनष्ठुरिा र्गढ़िी है। वह न ककसी दुिाभ खान के अमल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुर के महाघा मोिी की। तनजीव वस्िुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करिा है, अि: उनकी स्स्थति में पररविान के अतिररक्ि कु छ कथनीय नहीं रहिा। परन्द्िु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोर्ण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ा है, जो सारी जीवनकथा का ित्व है। स्जन्द्होंने हरीतिमा में िहरािे हुए मैदान पर छिाूँर्गें भरिे हुए हहरनों के झुंड को देखा होर्गा, वही उस अद्भुि, र्गतिशीि सौन्द्दया की कल्पना कर सकिा है। मानो िरि मरकि के समुर में सुनहिे फे नवािी िहरों का उद्वेिन हो। परन्द्िु जीवन के इस चि सौन्द्दया के प्रति लशकारी का आकर्ाण नहीं रहिा। मैं प्राय: सोचिी हूँ कक मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्द्दर ऊजाा को तनस्ष्िय और जड बनाने के काया को मनोरंजन कै से कहिा है। मनुष्य मृत्यु को असुन्द्दर ही नहीं, अपववत्र भी मानिा है। उसके वप्रयिम आत्मीय जन का शव भी उसके तनकट अपववत्र, अस्पृश्य िथा भयजनक हो उठिा है। जब मृत्यु इिनी अपववत्र और असुन्द्दर है, िब उसे बाूँटिे घमना क्यों अपववत्र और असुन्द्दर काया नहीं है, यह मैं समझ नहीं पािी। आकाश में रंर्गबबरंर्गे फिों की घटाओं के समान उडिे हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जििरंर्ग आहद का वृन्द्दवादन (आके स्रा) बजािे हुए पक्षी ककिने सुन्द्दर जान पडिे हैं। मनुष्य ने बन्द्दक उठाई, तनशाना साधा और कई र्गािे-उडिे पक्षी धरिी पर ढेिे के समान आ चर्गरे। ककसी की िाि-पीिी चोंचवािी र्गदान टट र्गई है, ककसी के पीिे सुन्द्दर पंजे टेढ़े हो र्गए हैं और ककसी के इन्द्रधनुर्ी पंख बबखर र्गए हैं। क्षिववक्षि रक्िस्नाि उन मृि-अधामृि िघु र्गािों में न अब संर्गीि है; न सौन्द्दया, परन्द्िु िब भी मारनेवािा अपनी सफििा पर नाच उठिा है।
  • 4. • पक्षक्षजर्गि में ही नही, पशुजर्गि में भी मनुष्य की ध्वंसिीिा ऐसी ही तनष्ठु र है। पशुजर्गि में हहरन जैसा तनरीह और सुन्द्दर पशु नहीं है - उसकी आूँखें िो मानो करुणा की चचत्रलिवप हैं। परन्द्िु इसका भी र्गतिमय, सजीव सौन्द्दया मनुष्य का मनोरंजन करने में असमथा है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठिम रूप है, जीवन के अन्द्य रूपों के प्रति इिनी वविृष्णा और ववरस्क्ि और मृत्यु के प्रति इिना मोह और इिना आकर्ाण क्यों? • बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी तनष्ठु र मनोरंजनवप्रयिा के कारण अपने अरण्य-पररवेश और स्वजाति से दर मानव समाज में आ पडी थी। • प्रशान्द्ि वनस्थिी में जब अिस भाव से रोमन्द्थन करिा हुआ मृर्ग समह लशकाररयों की आहट से चौंककर भार्गा, िब सोना की माूँ सद्य:प्रसिा होने के कारण भार्गने में असमथा रही। सद्य:जाि मृर्गलशशु िो भार्ग नहीं सकिा था, अि: मृर्गी माूँ ने अपनी सन्द्िान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षक्षि रखने के प्रयास में प्राण हदए। • पिा नहीं, दया के कारण या कौिुकवप्रयिा के कारण लशकारी मृि हहरनी के साथ उसके रक्ि से सने और ठंडे स्िनों से चचपटे हुए शावक को जीववि उठा िाए। उनमें से ककसी के पररवार की सदय र्गृहहणी और बच्चों ने उसे पानी लमिा दध वपिा-वपिाकर दो-चार हदन जीववि रखा।
  • 5. • सुस्स्मिा वसु के समान ही ककसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमर्ा अवस्था में मेरे पास िे आई। शावक अवांतछि िो था ही, उसके बचने की आशा भी धलमि थी, परन्द्िु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्स्नग्ध सुनहिे रंर्ग के कारण सब उसे सोना कहने िर्गे। दध वपिाने की शीशी, ग्िकोज, बकरी का दध आहद सब कु छ एकत्र करके , उसे पािने का कहठन अनुष्ठान आरम्भ हुआ। • उसका मुख इिना छोटा-सा था कक उसमें शीशी का तनपि समािा ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आिा था। कफर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दध की बोिि पहचानना भी आ र्गया। आूँर्गन में कदिे-फाूँदिे हुए भी भस्क्िन को बोिि साफ करिे देखकर वह दौड आिी और अपनी िरि चककि आूँखों से उसे ऐसे देखने िर्गिी, मानो वह कोई सजीव लमत्र हो। • उसने राि में मेरे पिंर्ग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाूँ र्गंदा न करने की आदि कु छ हदनों के अभ्यास से पड सकी। अूँधेरा होिे ही वह मेरे कमरे में पिंर्ग के पास आ बैठिी और कफर सवेरा होने पर ही बाहर तनकििी। • उसका हदन भर का कायाकिाप भी एक प्रकार से तनस्श्चि था। ववद्यािय और छात्रावास की ववद्याचथातनयों के तनकट पहिे वह कौिुक का कारण रही, परन्द्िु कु छ हदन बीि जाने पर वह उनकी ऐसी वप्रय साचथन बन र्गई, स्जसके बबना उनका ककसी काम में मन नहीं िर्गिा था।
  • 6. दध पीकर और भीर्गे चने खाकर सोना कु छ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्द्िुलिि कर चौकडी भरिी। कफर वह छात्रावास पहुूँचिी और प्रत्येक कमरे का भीिर, बाहर तनरीक्षण करिी। सवेरे छात्रावास में ववचचत्र-सी कियाशीििा रहिी है - कोई छात्रा हाथ-मुूँह धोिी है, कोई बािों में कं घी करिी है, कोई साडी बदििी है, कोई अपनी मेज की सफाई करिी है, कोई स्नान करके भीर्गे कपडे सखने के लिए फै िािी है और कोई पजा करिी है। सोना के पहुूँच जाने पर इस ववववध कमा- संकु ििा में एक नया काम और जुड जािा था। कोई छात्रा उसके माथे पर कु मकु म का बडा-सा टीका िर्गा देिी, कोई र्गिे में ररबन बाूँध देिी और कोई पजा के बिाशे खखिा देिी। मेस में उसके पहुूँचिे ही छात्राएूँ ही नहीं, नौकर-चाकर िक दौड आिे और सभी उसे कु छ-न-कु छ खखिाने को उिाविे रहिे, परन्द्िु उसे बबस्कु ट को छोडकर कम खाद्य पदाथा पसन्द्द थे। छात्रावास का जार्गरण और जिपान अध्याय समाप्ि होने पर वह घास के मैदान में कभी दब चरिी और कभी उस पर िोटिी रहिी। मेरे भोजन का समय वह ककस प्रकार जान िेिी थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्द्िु वह ठीक उसी समय भीिर आ जािी और िब िक मुझसे सटी खडी रहिी जब िक मेरा खाना समाप्ि न हो जािा। कु छ चावि, रोटी आहद उसका भी प्राप्य रहिा था, परन्द्िु उसे कच्ची सब्जी ही अचधक भािी थी। घंटी बजिे ही वह कफर प्राथाना के मैदान में पहुूँच जािी और उसके समाप्ि होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीिर-बाहर चक्कर िर्गाना आरम्भ करिी। उसे छोटे बच्चे अचधक वप्रय थे, क्योंकक उनके साथ खेिने का अचधक अवकाश रहिा था। वे पंस्क्िबद्ध खडे होकर सोना-सोना पुकारिे और वह उनके ऊपर से छिाूँर्ग िर्गाकर एक ओर से दसरी ओर कदिी रहिी। सरकस जैसा खेि कभी घंटों चििा, क्योंकक खेि के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्द्ि दसरी आिी रहिी।
  • 7. मेरे प्रति स्नेह-प्रदशान के उसके कई प्रकार थे। बाहर खडे होने पर वह सामने या पीछे से छिाूँर्ग िर्गािी और मेरे लसर के ऊपर से दसरी ओर तनकि जािी। प्राय: देखनेवािों को भय होिा था कक उसके पैरों से मेरे लसर पर चोट न िर्ग जावे, परन्द्िु वह पैरों को इस प्रकार लसकोडे रहिी थी और मेरे लसर को इिनी ऊूँ चाई से िाूँघिी थी कक चोट िर्गने की कोई सम्भावना ही नहीं रहिी थी। भीिर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रर्गडने िर्गिी। मेरे बैठे रहने पर वह साडी का छोर मुूँह में भर िेिी और कभी पीछे चुपचाप खडे होकर चोटी ही चबा डाििी। डाूँटने पर वह अपनी बडी र्गोि और चककि आूँखों में ऐसी अतनवाचनीय स्जज्ञासा भरकर एकटक देखने िर्गिी कक हूँसी आ जािी। कववर्गुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृर्गी-मृर्ग-शावक आहद को इिना महत्व क्यों हदया है, यह हहरन पािने के उपरान्द्ि ही ज्ञाि होिा है। पािने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संर्गी बन जािा है, जो मनुष्य के एकान्द्ि शन्द्य को भर देिा है, परन्द्िु खीझ उत्पन्द्न करने वािी स्जज्ञासा से उसे बेखझि नहीं बनािा। यहद मनुष्य दसरे मनुष्य से के वि नेत्रों से बाि कर सकिा, िो बहुि-से वववाद समाप्ि हो जािे, परन्द्िु प्रकृ ति को यह अभीष्ट नहीं रहा होर्गा। सम्भवि: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर ककए र्गए आघािों और साथाक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भार्ाहीन जीवों की स्नेह िरि दृस्ष्ट का चन्द्दन िेप िर्गाकर स्वस्थ और आश्वस्ि होना चाहिा है। सरस्विी वाणी से ध्वतनि-प्रतिध्वतनि कण्व के आश्रम में ऋवर्यों, ऋवर्-पस्त्नयों, ऋवर्-कु मार- कु माररकाओं के साथ मक अज्ञान मृर्गों की स्स्थति भी अतनवाया है। मन्द्त्रपि कु हटयों के द्वार को नीहारकण चाहने वािे मृर्ग रुूँध िेिे हैं। ववदा िेिी हुई शकु न्द्ििा का र्गुरुजनों के उपदेश-आशीवााद से बेखझि अंचि, उसका अपत्यवि पालिि मृर्गछौना थाम िेिा है।
  • 8. यस्य त्वया व्रणववरोपणलमंडर्गुदीनां िैिं न्द्यवर्च्यि मुखे कु शसचचववद्धे। श्यामाकमुस्ष्ट पररवचधिंिको जहाति सो यं न पुत्रकृ िक: पदवीं मृर्गस्िे॥ - अलभज्ञानशाकु न्द्ििम् शकु न्द्ििा के प्रश्न करने पर कक कौन मेरा अंचि खींच रहा है, कण्व कहिे है : कु श के काूँटे से स्जसका मुख तछद जाने पर ि उसे अच्छा करने के लिए हहंर्गोट का िेि िर्गािी थी, स्जसे िने मुट्ठी भर-भर सावाूँ के दानों से पािा है, जो िेरे तनकट पुत्रवि् है, वही िेरा मृर्ग िुझे रोक रहा है। साहहत्य ही नहीं, िोकर्गीिों की ममास्पलशािा में भी मृर्गों का ववशेर् योर्गदान रहिा है। पशु मनुष्य के तनश्छि स्नेह से पररचचि रहिे हैं, उनकी ऊूँ ची-नीची सामास्जक स्स्थतियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्ि हो र्गया। अनेक ववद्याचथातनयों की भारी-भरकम र्गुरूजी से सोना को क्या िेना-देना था। वह िो उस दृस्ष्ट को पहचानिी थी, स्जसमें उसके लिए स्नेह छिकिा था और उन हाथों को जानिी थी, स्जन्द्होंने यत्नपवाक दध की बोिि उसके मुख से िर्गाई थी। यहद सोना को अपने स्नेह की अलभव्यस्क्ि के लिए मेरे लसर के ऊपर से कदना आवश्यक िर्गेर्गा िो वह कदेर्गी ही। मेरी ककसी अन्द्य पररस्स्थति से प्रभाववि होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था। कु त्ता स्वामी और सेवक का अन्द्िर जानिा है और स्वामी की स्नेह या िोध की प्रत्येक मुरा से पररचचि रहिा है। स्नेह से बुिाने पर वह र्गदर्गद होकर तनकट आ जािा है और िोध करिे ही सभीि और दयनीय बनकर दुबक जािा है।
  • 9. • पर हहरन यह अन्द्िर नहीं जानिा, अि: उसका अपने पािनेवािे से डरना कहठन है। यहद उस पर िोध ककया जावे िो वह अपनी चककि आूँखों में और अचधक ववस्मय भरकर पािनेवािे की दृस्ष्ट से दृस्ष्ट लमिाकर खडा रहेर्गा - मानो पछिा हो, क्या यह उचचि है? वह के वि स्नेह पहचानिा है, स्जसकी स्वीकृ ति जिाने के लिए उसकी ववशेर् चेष्टाएूँ हैं। • मेरी बबल्िी र्गोधिी, कु त्ते हेमन्द्ि-वसन्द्ि, कु त्ती फ्िोरा सब पहिे इस नए अतिचथ को देखकर रुष्ट हुए, परन्द्िु सोना ने थोडे ही हदनों में सबसे सख्य स्थावपि कर लिया। कफर िो वह घास पर िेट जािी और कु त्ते-बबल्िी उस पर उछििे-कदिे रहिे। कोई उसके कान खींचिा, कोई पैर और जब वे इस खेि में िन्द्मय हो जािे, िब वह अचानक चौकडी भरकर भार्गिी और वे चर्गरिे-पडिे उसके पीछे दौड िर्गािे। • वर्ा भर का समय बीि जाने पर सोना हररण शावक से हररणी में पररवतिाि होने िर्गी। उसके शरीर के पीिाभ रोयें िाम्रवणी झिक देने िर्गे। टाूँर्गें अचधक सुडौि और खुरों के कािेपन में चमक आ र्गई। ग्रीवा अचधक बंककम और िचीिी हो र्गई। पीठ में भराव वािा उिार-चढ़ाव और स्स्नग्धिा हदखाई देने िर्गी। परन्द्िु सबसे अचधक ववशेर्िा िो उसकी आूँखों और दृस्ष्ट में लमििी थी। आूँखों के चारों ओर खखंची कज्जि कोर में नीिे र्गोिक और दृस्ष्ट ऐसी िर्गिी थी, मानो नीिम के बल्बों में उजिी ववद्युि का स्फु रण हो। • सम्भवि: अब उसमें वन िथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जार्गने िर्गा था। प्राय: सने मैदान में वह र्गदान ऊूँ ची करके ककसी की आहट की प्रिीक्षा में खडी रहिी। वासन्द्िी हवा बहने पर यह मक प्रिीक्षा और अचधक मालमाक हो उठिी। शैशव के साचथयों और उनकी उछि-कद से अब उसका पहिे जैसा मनोरंजन नहीं होिा था, अि: उसकी प्रिीक्षा के क्षण अचधक होिे जािे थे। • इसी बीच फ्िोरा ने भस्क्िन की कु छ अूँधेरी कोठरी के एकान्द्ि कोने में चार बच्चों को जन्द्म हदया और वह खेि के संचर्गयों को भि कर अपनी नवीन सृस्ष्ट के संरक्षण में व्यस्ि हो र्गई। एक-दो हदन सोना अपनी सखी को खोजिी रही, कफर उसे इिने िघु जीवों से तघरा देख कर उसकी स्वाभाववक चककि दृस्ष्ट र्गम्भीर ववस्मय से भर र्गई।
  • 10. • एक हदन देखा, फ्िोरा कहीं बाहर घमने र्गई है और सोना भस्क्िन की कोठरी में तनस्श्चन्द्ि िेटी है। वपल्िे आूँखें बन्द्द करने के कारण चीं-चीं करिे हुए सोना के उदर में दध खोज रहे थे। िब से सोना के तनत्य के कायािम में वपल्िों के बीच िेट जाना भी सस्म्मलिि हो र्गया। आश्चया की बाि यह थी कक फ्िोरा, हेमन्द्ि, वसन्द्ि या र्गोधिी को िो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देिी थी, परन्द्िु सोना के संरक्षण में उन्द्हें छोडकर आश्वस्ि भाव से इधर-उधर घमने चिी जािी थी। • सम्भवि: वह सोना की स्नेही और अहहंसक प्रकृ ति से पररचचि हो र्गई थी। वपल्िों के बडे होने पर और उनकी आूँखें खुि जाने पर सोना ने उन्द्हें भी अपने पीछे घमनेवािी सेना में सस्म्मलिि कर लिया और मानो इस वृद्चध के उपिक्ष में आनन्द्दोत्सव मनाने के लिए अचधक देर िक मेरे लसर के आरपार चौकडी भरिी रही। पर कु छ हदनों के उपरान्द्ि जब यह आनन्द्दोत्सव पुराना पड र्गया, िब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रिीक्षा की स्िब्ध घडडयाूँ कफर िौट आईं। • उसी वर्ा र्गलमायों में मेरा बरीनाथ-यात्रा का कायािम बना। प्राय: मैं अपने पािि जीवों के कारण प्रवास कम करिी हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्द्हें छोडकर आश्वस्ि नहीं हो पािी। भस्क्िन, अनुरूप (नौकर) आहद िो साथ जाने वािे थे ही, पािि जीवों में से मैंने फ्िोरा को साथ िे जाने का तनस्श्चय ककया, क्योंकक वह मेरे बबना रह नहीं सकिी थी। • छात्रावास बन्द्द था, अि: सोना के तनत्य नैलमवत्तक काया-किाप भी बन्द्द हो र्गए थे। मेरी उपस्स्थति का भी अभाव था, अि: उसके आनन्द्दोल्िास के लिए भी अवकाश कम था। • हेमन्द्ि-वसन्द्ि मेरी यात्रा और िज्जतनि अनुपस्स्थति से पररचचि हो चुके थे। होल्डाि बबछाकर उसमें बबस्िर रखिे ही वे दौडकर उस पर िेट जािे और भौंकने िथा िन्द्दन की ध्वतनयों के सस्म्मलिि स्वर में मुझे मानो उपािम्भ देने िर्गिे। यहद उन्द्हें बाूँध न रखा जािा िो वे कार में घुसकर बैठ जािे या उसके पीछे-पीछे दौडकर स्टेशन िक जा पहुूँचिे। परन्द्िु जब मैं चिी जािी, िब वे उदास भाव से मेरे िौटने की प्रिीक्षा करने िर्गिे।
  • 11. • सोना की सहज चेिना में मेरी यात्रा जैसी स्स्थति का बोध था, नप्रत्याविान का; इसी से उसकी तनराश स्जज्ञासा और ववस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था। • पैदि जाने-आने के तनश्चय के कारण बरीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्ि हो र्गया। 2 जुिाई को िौटकर जब मैं बूँर्गिे के द्वार पर आ खडी हुई, िब बबछु डे हुए पािि जीवों में कोिाहि होने िर्गा। • र्गोधिी कदकर कन्द्धे पर आ बैठी। हेमन्द्ि-वसन्द्ि मेरे चारों ओर पररिमा करके हर्ा की ध्वतनयों में मेरा स्वार्गि करने िर्गे। पर मेरी दृस्ष्ट सोना को खोजने िर्गी। क्यों वह अपना उल्िास व्यक्ि करने के लिए मेरे लसर के ऊपर से छिाूँर्ग नहीं िर्गािी? सोना कहाूँ है, पछने पर मािी आूँखें पोंछने िर्गा और चपरासी, चौकीदार एक-दसरे का मुख देखने िर्गे। वे िोर्ग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहिे थे, परन्द्िु मािी की भावुकिा ने बबना बोिे ही उसे दे डािा। • ज्ञाि हुआ कक छात्रावास के सन्द्नाटे और फ्िोरा के िथा मेरे अभाव के कारण सोना इिनी अस्स्थर हो र्गई थी कक इधर-उधर कु छ खोजिी-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर तनकि जािी थी। इिनी बडी हहरनी को पािनेवािे िो कम थे, परन्द्िु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्ि करने के इच्छु क व्यस्क्ियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से मािी ने उसे मैदान में एक िम्बी रस्सी से बाूँधना आरम्भ कर हदया था। • एक हदन न जाने ककस स्िब्धिा की स्स्थति में बन्द्धन की सीमा भिकर बहुि ऊचाूँई िक उछिी और रस्सी के कारण मुख के बि धरिी पर आ चर्गरी। वही उसकी अस्न्द्िम साूँस और अस्न्द्िम उछाि थी। • सब उस सुनहिे रेशम की र्गठरी के शरीर को र्गंर्गा में प्रवाहहि कर आए और इस प्रकार ककसी तनजान वन में जन्द्मी और जन-संकु ििा में पिी सोना की करुण कथा का अन्द्ि हुआ। • सब सुनकर मैंने तनश्चय ककया था कक हहरन नहीं पािूँर्गी, पर संयोर्ग से कफर हहरन ही पािना पड रहा है।
  • 12. MADE BY: NAME : BHAWANA GOSWAMI CLASS : IX A ROLL NO: 8