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डॉ.श्रीरता ऩी.वी.
अससस्टन्ट प्रोपसय
एस.एन.डी.ऩी.मोगभ. कॉरेज
ककष्कक्क
ु ऩुयभ
क
े यर
अनासभका की कववता भें असबव्मक्त स्री सॊघषष
सभकारीन हहन्दी कववता जगत भें भहत्वऩूणष हस्ताऺय है – अनासभका।
उनकी कववताएॉ स्री जीवन की ववडम्फनाओॊ को येखाॊककत कयती है। उनकी सबी
यचनाओॊ भें ऩुरुष वचषस्व औय आज क
े मुग की स्री की सॊवेदना की असबव्मक्क्त
हुई है। अनासभका हभेशा इस सभाज की गतत एवॊ ववडम्फनाओॊ को एक स्री की
दृक्ष्ट से देखने – ऩयखने की कोसशश कयती है। सच्चाई को गहयाई से सभझने
का प्रमास उनक
े व्मक्क्तत्व की औय एक ववशेषता है। शोवषत , ऩीडडत औय
उऩेक्षऺत वगष को अनासभका जी कबी अनदेखा कयक
े नहीॊ छोड़ती, फक्कक वे रोग
बी कववताओॊ क
े भाध्मभ से सभाज क
े साभने आते हैं। सभकारीन हहन्दी काव्म
– जगत क
े चर्चषत यचनाकाय क
े दायनाथ ससॊह अनासभका क
े व्मक्क्तत्व एवॊ
यचनाववधा क
े फाये भें इस प्रकाय कहते हैं – “वे प्राम : गद्म की जभीन से शब्दों
को उठाती है औय उन्हें कथन को उसी बॊर्गभा क
े साथ तह ऩय तह जभाती
जाती है। इससरए उनकी बाषा औय कववता का ऩूया सभजाज प्रचसरत काव्म
बाषा से थोड़ा अरग है। वे अऩने ऩरयवेश से फाहय प्राम नहीॊ जातीॊ – रेककन उस
ऩरयवेश भें वाश – फेससन से रेकय भॊगर – सनीचय औय चौयाहे ऩय अचानक
सभर जानेवारे ईश्वय तक सफ शासभर है।’’
1
ऩुरुष वचषस्व प्रधान आधुतनक
सभाज भें क्स्रमाॉ हभेशा दोमभ दजे भें है। बूभॊडरीकयण की नमी ऩरयक्स्थतत भें
बी ऩुरुष की दृक्ष्ट से स्र्ती क
े वर वस्तु यह गमी है। अन्माम क
े खखराप कोई
स्री आवाज़ उठाती तो उसे चरयरहीन कहकय अऩभातनत औय चुऩ कयने का
प्रमत्न ऩुरुष – सभाज कयता है। इसी हारत भें अनासभका जी ने हासशएकृ त
औय उऩेक्षऺत क्स्रमों क
े घुटन को भुखरयत कयने का सपर प्रमत्न ककमा है।
-2-
अनासभका की कववता भें स्र्ती जीवन की रासद उऩक्स्थतत है। ‘दयवाज़ा’ कववता
इसका सशक्त प्रभाण है। ‘दवयाज़ा’ कवतमरी की उप्रततभ ककऩना है। क्जस
प्रकाय दखाजा घय का भुख्म प्रवेश द्वाय होता है, उसी प्रकाय घय भें स्री प्रभुख
होती है। रेककन उनक
े अनुसाय क्जस प्रकाय दयवाजे ऩय फाय – फाय खटखटामा
जाता है, उसी प्रकाय स्री की हय एक ऩरयवाय भें सतामा जाता है। कववता की
ऩॊक्क्तमों इस प्रकाय है-
“भैं एक दयवाजा थी,
भुझे क्जतना ऩीटा गमा,
भैं उतना खुरती गई।
.......औय अॊत भें सफ ऩय चर जाती है झाडू
नाये फुहायती हुई,
फुहायती हुई ऩहाड़, वृऺ ऩत्थय
सृक्ष्ट क
े सफ टूटे – बफखये कयते जो
एक टोकयी भें जभा कयती जाती है
भन की दुछ्ती ऩय।’’
2
अनासभका की कववता ऩुरुषवादी साभाक्जक व्मवस्था का खुरासा र्चरण
है। उन्होंने सभकारीन स्री की भानससकता को नमे – नमे प्रतीकों क
े भाध्मभ से
उजागय ककमा है। आज की नायी फेधनों भें जकड़कय नहीॊ यहना चाहती, वह इन
फन्धनों को तोड़कय खुरे आसभान भें स्वतॊर हवा रेना चाहती है। रेककन सभाज
क
े सड़े – गरे यीतत-रयवाज़ों से उसे हभेशा रड़ना ऩड़ती है। इससरए नायी की
कोभर एवॊ कठोय दोनों बावनाएॉ उनकी कववता भें व्मक्त हुई है। ’पनीचय ’
कववता भें नायी की तुरना पनीचय से की है । कवतमरी ने वस्तु औय स्री
जीवन का आऩसी सम्फन्ध फतामा है। भहहराएॉ क्जस तयह पनोचय को साप
कयती है, उसी तयह ऩुरुष बी नायी को देखता है। रेककन क्स्रमों ऩुरुष
का सम्भान कयती है औय जीवनसाथी भानकय देखबार कयती है, रेककन ऩुरुष
-3-
उसक
े साथ सही ढॊग से व्मवहाय नहीॊ कय ऩाता है। स्री क
े प्रतत ऩुरुष का
वचषस्व वादी दृक्ष्टकोण महाॉ हदखाई देता है –
“भैं उनको योज झाडती हूॉ
ऩय वे ही है इस ऩूये घय भें
जो भुझको कबी नहीॊ झाडते!
यात को जफ सफ सो जाते है –
अऩने इन फयपते ऩाॉवों ऩय
आमोडडन भरती हुई सोचती हूॉ भैं
ककसी जनभ भें भेये प्रेभी यहे होंगे पनीचय
कठाआ गए होंगी ककसी शाऩ से मे।’’
3
अऩने ऩरयवाय भें सभाज भें स्री क
े प्रतत क्मा दृक्ष्टकोण है, उसको ककन –
ककन कहठनाइमों को झोरवा ऩड़ा यहा है। इस ज्वरॊत आवाज़ है अनासभका की
कववताएॉ। अनाभका की कववता क
े फाये भें यचनाकाय हदववक यभेश का कथन
ऐसा है - “एक छोटी सी घटना माकक एक छोटा – सा स्भृतत खॊड अनासभका की
कववताओॊ भें एक वैचारयक भनक्स्थतत का प्रेयक होकय आता है। मे कववताएॉ
बीतय से फाहय औय तनजता से सभाज की ओय प
ै रती है।’’
4
स्री होने क
े नाते
क्जन-क्जन भुसीफतों का साभना कयना ऩड़ा, इसका कयाह है – ’फेजगह ’।
बायतीम ऩरयवाय भें रड़क
े की तुरना भें रडकी को हभेशा कभ भहत्व हदमा
जाता है। रड़का – रड़की क
े फीच अरगाव घय – ऩरयवाय से शुरु होता है। रड़क
े
को ऩढ़ने, खाने औय सोने की सुववधा दी जाती है। रेककन रड़की हवा, धूऩ,
सभट्टी भें ही सरप्त यहते क
े सरए असबशप्त है। कववता की ऩॊक्क्तमाॉ इस प्रकाय है
“याभ, ऩाठशारा जा!
याधा, खाना ऩका!
याभ, आ फताशा खा!
-4-
याधा झाडू रगा।
बैमा, अफ सोएगा।
जाकय बफस्तय बफछा।
अहा, नमा घय है।
याभ, देख, मह तेया कभया है।
’औय भेया’
’ओ ऩगरी,
रड़ककमाॉ हवा, धूऩ, सभट्टी होती है
उनका कोई घय नहीॊ होता।’’
5
अनासभका की कववताएॉ स्री ऩऺा की कववताएॉ नहीॊ फक्कक स्री की
कववताएॉ है। सचभुच अनासभका अऩने सभकारीनों भें अरग से जानी जाती है।
उन्होंने अऩनी कववताओॊ क
े भाध्मभ से स्री चेतना को ववस्ताय से फतामा है।
उनकी कववताओॊ भें औयत होने क
े मथाथष की असबव्मक्क्त है। ‘क्स्रमाॉ’ कववता
भें नायी क
े दु्ख का र्चरण है। ऩुरुषवचषस्व सभाज भें तनयॊतय प्रताड़नव औय
उऩेऺा सहते सहते स्री – सभाज भहत्वहीन औय राचाय हो गमा है। उनकी भूक
वेदना को आवाज़ देना भार नहीॊ इस उऩेऺा क
े खखराप ववद्रोह का आह्वान देना
बी कवतमरी का रक्ष्म है। कववता की स्री अऩने ववचायों को सभाज भें खुरेआभ
व्मक्त कयती है। एक इनसान की तयह वह जीना चाहती है। ‘क्स्रमाॉ’ स्री को
एक उऩबोग वस्तु क
े रूऩ भें देखनेवारे ऩुरुषवादी सभाज ऩय प्रहाय है। ऩॊक्क्तमाॉ
इस प्रकाय है –
“बोगा हुआ हभको
फहुत दूय क
े रयश्तेदायों क
े
दु्ख की तयह
एक हदन हभने कहा
-5-
हभ बी इॊसान है।
हभें कामदे से ऩढ़ो एक – एक अऺय
जैसे ऩढ़ा होगा फी ए क
े फाद
नौकयी का ऩहरा ववऻाऩन।’’
6
अनासभका की कववताएॉ हभेशा ककसी ववसशष्ट ववचायधाया की कववता न
यहकय जीवन औय सभाज की सभग्रता को र्चबरत कयती है। अनासभका की
कववता क
े सॊफन्ध भें सभीऺक प्रो.अजम ततवायी कहते है - ’अनासभका का
यचना-सॊसाय वास्तववकता क
े साॉच भें तनजता को ढारने का यास्ता नहीॊ चुनना
क्मोंकक उनक
े अनुसाय फहहजषगत ऩुरुषसत्ता का ऺेर है। स्वबावत् वे नमे सॊघषष
औय टकयाव क
े यास्ते ऩय जाती है, न सभाज भें रड़ती हुई स्री की अनेक
छववमाॉ उबयती है। वे अऩनी असबव्मक्क्त क
े सरए सॊवेदशीरता का ऺेर चुनती है
इससरए उनका स्वय प्रधानत् अॊतभुषखी है – रगबग एकाकीऩन की तयह औय
उनक
े वहाॉ क
ु छ फड़े भासभषक दृश्म उऩक्स्थत होते हैं।’’
7
‘ऩववरता ’ कववता ऩरयवाय भें ऩुरुष अऩनी ऩत्नी ऩय ककस तयह से फचषस्व
यखता है इसक
े फतामा गमा है। कवतमरी एक ऩरयरता की वास्तववक क्स्थतत का
र्चरण कयते हुए फताती है कक वह हदन- यात अऩने कतषव्म भें रीन यहती है,
कपय बी उसक
े हहस्से ऩतत की गासरमाॉ ही आती है, प्माय नहीॊ।
“स्वाभी जहाॉ नहीॊ बी होते थे
होते थे उनक
े वहाॉ ऩॊजे,
भुहय, तौसरए, डॊडे,
स्टैंऩ – ऩेऩय, चप्ऩर – जूते
हहचककमाॉ – डकायें खयहट
औय त्मौरयमाॉ – छभककमाॉ – गासरमाॉ खचाखच।
घय भें धुसने ही
-6-
जाये से दहाड़ते थे भासरक औय ही डाॉट ऩय
एकदभ ऩट्ट
रेट जाती थीॊ वे
दभ साधकय।’’
8
सभकारीन कववता भें अनासभका ने भाॉ औय फच्चे की कोभर बावनाओॊ
को स्ऩशष ककमा है। ’ब्राउज ’ शीषषक कववता भें भाॉ औय फच्चे क
े कोभर रयश्ते
है, जो टूटने से बी नहीॊ टूटते हैं। स्री को ब्राउज का सम्फन्ध अऩने फच्चों से
होता है। ‘ब्राउज’ अनासभका की अप्रततभ ककऩना है। ऩृथ्वी की ऩरयक्रभा भें जफ
तक सूयज औय चाॉद यहेंगे औय हदन औय यात होंगे, तफ तक भाॉ औय फच्चे क
े
रयश्ते अटूट यहेंगे। इसभें नटखट फारक की भानससकता औय कतषव्मतनष्ठ एक
भभताभमी भाॉ का वात्सकम का वणषन है –
“भेया ब्राउज
भेये फच्चे का गुकरक है
फेचाये ब्राउज की
नन्हीॊ सी जान
डयकय र्चऩक जाती है
भुझसे’’
9
इस प्रकाय अनासभका ने नायी की क्स्थतत उसकी अक्स्भता, उसक
े
अर्धकाय, ऩुरुष का नायी क
े प्रतत दृक्ष्टकोण तथा भाॉ औय फच्चे की सॊवेदनाओॊ
को फड़ी सहजता से असबव्मक्त ककमा है।
तनष्कषष रूऩ भें कहा जा सकता है कक अनासभक अऩनी कववता भें स्रीत्व
की ववडम्फनाओॊ औय ववसॊगततमों क
े मथाथषऩयक, अक्रोशऩूणष, प्रबाव र्चर प्रस्तुत
कय ऩुरुषसत्ता की नीॊव हहरा देती है। उन्होंने स्र्ती जीवन क
े अधूयेऩन,
नौततकता क
े दोहयेऩन को हभेशा भुख्मता दी है। उनकी कववताएॉ गहये साभाक्जक
-7-
सयोकाय से ओतप्रोत है। इस प्रकाय अनासभका जी ऩुरुषसत्ता क
े भकड़जार को
करभ क
े भाध्मभ से प्रततयोध कय अऩना अरग भानर्चर फनाती है।
1. वागथष, भाचष 1998 ऩृ.52
2. अनासभका, कवव ने कहा, (दयवाजा), ऩृ.121
3. अनासभका, कवव ने कहा (पनीचय), ऩृ.13
4. गगनाॊचर, अप्रैर – जून 2007, ऩृ. 40
5. अनासभका, कवव ने कहा, ऩृ. 11, 12
6. अनासभका, कवव ने कहा, ऩृ. 9
7. तनजता भें साभाक्जकता का यचाव, www.angatha.com
8. अनासभका, कवव ने कहा (ऩरयव्रता) ऩृ. 19
9. अनासभका, कवव ने कहा ऩृ. 107

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  • 1. डॉ.श्रीरता ऩी.वी. अससस्टन्ट प्रोपसय एस.एन.डी.ऩी.मोगभ. कॉरेज ककष्कक्क ु ऩुयभ क े यर अनासभका की कववता भें असबव्मक्त स्री सॊघषष सभकारीन हहन्दी कववता जगत भें भहत्वऩूणष हस्ताऺय है – अनासभका। उनकी कववताएॉ स्री जीवन की ववडम्फनाओॊ को येखाॊककत कयती है। उनकी सबी यचनाओॊ भें ऩुरुष वचषस्व औय आज क े मुग की स्री की सॊवेदना की असबव्मक्क्त हुई है। अनासभका हभेशा इस सभाज की गतत एवॊ ववडम्फनाओॊ को एक स्री की दृक्ष्ट से देखने – ऩयखने की कोसशश कयती है। सच्चाई को गहयाई से सभझने का प्रमास उनक े व्मक्क्तत्व की औय एक ववशेषता है। शोवषत , ऩीडडत औय उऩेक्षऺत वगष को अनासभका जी कबी अनदेखा कयक े नहीॊ छोड़ती, फक्कक वे रोग बी कववताओॊ क े भाध्मभ से सभाज क े साभने आते हैं। सभकारीन हहन्दी काव्म – जगत क े चर्चषत यचनाकाय क े दायनाथ ससॊह अनासभका क े व्मक्क्तत्व एवॊ यचनाववधा क े फाये भें इस प्रकाय कहते हैं – “वे प्राम : गद्म की जभीन से शब्दों को उठाती है औय उन्हें कथन को उसी बॊर्गभा क े साथ तह ऩय तह जभाती जाती है। इससरए उनकी बाषा औय कववता का ऩूया सभजाज प्रचसरत काव्म बाषा से थोड़ा अरग है। वे अऩने ऩरयवेश से फाहय प्राम नहीॊ जातीॊ – रेककन उस ऩरयवेश भें वाश – फेससन से रेकय भॊगर – सनीचय औय चौयाहे ऩय अचानक सभर जानेवारे ईश्वय तक सफ शासभर है।’’ 1 ऩुरुष वचषस्व प्रधान आधुतनक सभाज भें क्स्रमाॉ हभेशा दोमभ दजे भें है। बूभॊडरीकयण की नमी ऩरयक्स्थतत भें बी ऩुरुष की दृक्ष्ट से स्र्ती क े वर वस्तु यह गमी है। अन्माम क े खखराप कोई स्री आवाज़ उठाती तो उसे चरयरहीन कहकय अऩभातनत औय चुऩ कयने का प्रमत्न ऩुरुष – सभाज कयता है। इसी हारत भें अनासभका जी ने हासशएकृ त औय उऩेक्षऺत क्स्रमों क े घुटन को भुखरयत कयने का सपर प्रमत्न ककमा है।
  • 2. -2- अनासभका की कववता भें स्र्ती जीवन की रासद उऩक्स्थतत है। ‘दयवाज़ा’ कववता इसका सशक्त प्रभाण है। ‘दवयाज़ा’ कवतमरी की उप्रततभ ककऩना है। क्जस प्रकाय दखाजा घय का भुख्म प्रवेश द्वाय होता है, उसी प्रकाय घय भें स्री प्रभुख होती है। रेककन उनक े अनुसाय क्जस प्रकाय दयवाजे ऩय फाय – फाय खटखटामा जाता है, उसी प्रकाय स्री की हय एक ऩरयवाय भें सतामा जाता है। कववता की ऩॊक्क्तमों इस प्रकाय है- “भैं एक दयवाजा थी, भुझे क्जतना ऩीटा गमा, भैं उतना खुरती गई। .......औय अॊत भें सफ ऩय चर जाती है झाडू नाये फुहायती हुई, फुहायती हुई ऩहाड़, वृऺ ऩत्थय सृक्ष्ट क े सफ टूटे – बफखये कयते जो एक टोकयी भें जभा कयती जाती है भन की दुछ्ती ऩय।’’ 2 अनासभका की कववता ऩुरुषवादी साभाक्जक व्मवस्था का खुरासा र्चरण है। उन्होंने सभकारीन स्री की भानससकता को नमे – नमे प्रतीकों क े भाध्मभ से उजागय ककमा है। आज की नायी फेधनों भें जकड़कय नहीॊ यहना चाहती, वह इन फन्धनों को तोड़कय खुरे आसभान भें स्वतॊर हवा रेना चाहती है। रेककन सभाज क े सड़े – गरे यीतत-रयवाज़ों से उसे हभेशा रड़ना ऩड़ती है। इससरए नायी की कोभर एवॊ कठोय दोनों बावनाएॉ उनकी कववता भें व्मक्त हुई है। ’पनीचय ’ कववता भें नायी की तुरना पनीचय से की है । कवतमरी ने वस्तु औय स्री जीवन का आऩसी सम्फन्ध फतामा है। भहहराएॉ क्जस तयह पनोचय को साप कयती है, उसी तयह ऩुरुष बी नायी को देखता है। रेककन क्स्रमों ऩुरुष का सम्भान कयती है औय जीवनसाथी भानकय देखबार कयती है, रेककन ऩुरुष
  • 3. -3- उसक े साथ सही ढॊग से व्मवहाय नहीॊ कय ऩाता है। स्री क े प्रतत ऩुरुष का वचषस्व वादी दृक्ष्टकोण महाॉ हदखाई देता है – “भैं उनको योज झाडती हूॉ ऩय वे ही है इस ऩूये घय भें जो भुझको कबी नहीॊ झाडते! यात को जफ सफ सो जाते है – अऩने इन फयपते ऩाॉवों ऩय आमोडडन भरती हुई सोचती हूॉ भैं ककसी जनभ भें भेये प्रेभी यहे होंगे पनीचय कठाआ गए होंगी ककसी शाऩ से मे।’’ 3 अऩने ऩरयवाय भें सभाज भें स्री क े प्रतत क्मा दृक्ष्टकोण है, उसको ककन – ककन कहठनाइमों को झोरवा ऩड़ा यहा है। इस ज्वरॊत आवाज़ है अनासभका की कववताएॉ। अनाभका की कववता क े फाये भें यचनाकाय हदववक यभेश का कथन ऐसा है - “एक छोटी सी घटना माकक एक छोटा – सा स्भृतत खॊड अनासभका की कववताओॊ भें एक वैचारयक भनक्स्थतत का प्रेयक होकय आता है। मे कववताएॉ बीतय से फाहय औय तनजता से सभाज की ओय प ै रती है।’’ 4 स्री होने क े नाते क्जन-क्जन भुसीफतों का साभना कयना ऩड़ा, इसका कयाह है – ’फेजगह ’। बायतीम ऩरयवाय भें रड़क े की तुरना भें रडकी को हभेशा कभ भहत्व हदमा जाता है। रड़का – रड़की क े फीच अरगाव घय – ऩरयवाय से शुरु होता है। रड़क े को ऩढ़ने, खाने औय सोने की सुववधा दी जाती है। रेककन रड़की हवा, धूऩ, सभट्टी भें ही सरप्त यहते क े सरए असबशप्त है। कववता की ऩॊक्क्तमाॉ इस प्रकाय है “याभ, ऩाठशारा जा! याधा, खाना ऩका! याभ, आ फताशा खा!
  • 4. -4- याधा झाडू रगा। बैमा, अफ सोएगा। जाकय बफस्तय बफछा। अहा, नमा घय है। याभ, देख, मह तेया कभया है। ’औय भेया’ ’ओ ऩगरी, रड़ककमाॉ हवा, धूऩ, सभट्टी होती है उनका कोई घय नहीॊ होता।’’ 5 अनासभका की कववताएॉ स्री ऩऺा की कववताएॉ नहीॊ फक्कक स्री की कववताएॉ है। सचभुच अनासभका अऩने सभकारीनों भें अरग से जानी जाती है। उन्होंने अऩनी कववताओॊ क े भाध्मभ से स्री चेतना को ववस्ताय से फतामा है। उनकी कववताओॊ भें औयत होने क े मथाथष की असबव्मक्क्त है। ‘क्स्रमाॉ’ कववता भें नायी क े दु्ख का र्चरण है। ऩुरुषवचषस्व सभाज भें तनयॊतय प्रताड़नव औय उऩेऺा सहते सहते स्री – सभाज भहत्वहीन औय राचाय हो गमा है। उनकी भूक वेदना को आवाज़ देना भार नहीॊ इस उऩेऺा क े खखराप ववद्रोह का आह्वान देना बी कवतमरी का रक्ष्म है। कववता की स्री अऩने ववचायों को सभाज भें खुरेआभ व्मक्त कयती है। एक इनसान की तयह वह जीना चाहती है। ‘क्स्रमाॉ’ स्री को एक उऩबोग वस्तु क े रूऩ भें देखनेवारे ऩुरुषवादी सभाज ऩय प्रहाय है। ऩॊक्क्तमाॉ इस प्रकाय है – “बोगा हुआ हभको फहुत दूय क े रयश्तेदायों क े दु्ख की तयह एक हदन हभने कहा
  • 5. -5- हभ बी इॊसान है। हभें कामदे से ऩढ़ो एक – एक अऺय जैसे ऩढ़ा होगा फी ए क े फाद नौकयी का ऩहरा ववऻाऩन।’’ 6 अनासभका की कववताएॉ हभेशा ककसी ववसशष्ट ववचायधाया की कववता न यहकय जीवन औय सभाज की सभग्रता को र्चबरत कयती है। अनासभका की कववता क े सॊफन्ध भें सभीऺक प्रो.अजम ततवायी कहते है - ’अनासभका का यचना-सॊसाय वास्तववकता क े साॉच भें तनजता को ढारने का यास्ता नहीॊ चुनना क्मोंकक उनक े अनुसाय फहहजषगत ऩुरुषसत्ता का ऺेर है। स्वबावत् वे नमे सॊघषष औय टकयाव क े यास्ते ऩय जाती है, न सभाज भें रड़ती हुई स्री की अनेक छववमाॉ उबयती है। वे अऩनी असबव्मक्क्त क े सरए सॊवेदशीरता का ऺेर चुनती है इससरए उनका स्वय प्रधानत् अॊतभुषखी है – रगबग एकाकीऩन की तयह औय उनक े वहाॉ क ु छ फड़े भासभषक दृश्म उऩक्स्थत होते हैं।’’ 7 ‘ऩववरता ’ कववता ऩरयवाय भें ऩुरुष अऩनी ऩत्नी ऩय ककस तयह से फचषस्व यखता है इसक े फतामा गमा है। कवतमरी एक ऩरयरता की वास्तववक क्स्थतत का र्चरण कयते हुए फताती है कक वह हदन- यात अऩने कतषव्म भें रीन यहती है, कपय बी उसक े हहस्से ऩतत की गासरमाॉ ही आती है, प्माय नहीॊ। “स्वाभी जहाॉ नहीॊ बी होते थे होते थे उनक े वहाॉ ऩॊजे, भुहय, तौसरए, डॊडे, स्टैंऩ – ऩेऩय, चप्ऩर – जूते हहचककमाॉ – डकायें खयहट औय त्मौरयमाॉ – छभककमाॉ – गासरमाॉ खचाखच। घय भें धुसने ही
  • 6. -6- जाये से दहाड़ते थे भासरक औय ही डाॉट ऩय एकदभ ऩट्ट रेट जाती थीॊ वे दभ साधकय।’’ 8 सभकारीन कववता भें अनासभका ने भाॉ औय फच्चे की कोभर बावनाओॊ को स्ऩशष ककमा है। ’ब्राउज ’ शीषषक कववता भें भाॉ औय फच्चे क े कोभर रयश्ते है, जो टूटने से बी नहीॊ टूटते हैं। स्री को ब्राउज का सम्फन्ध अऩने फच्चों से होता है। ‘ब्राउज’ अनासभका की अप्रततभ ककऩना है। ऩृथ्वी की ऩरयक्रभा भें जफ तक सूयज औय चाॉद यहेंगे औय हदन औय यात होंगे, तफ तक भाॉ औय फच्चे क े रयश्ते अटूट यहेंगे। इसभें नटखट फारक की भानससकता औय कतषव्मतनष्ठ एक भभताभमी भाॉ का वात्सकम का वणषन है – “भेया ब्राउज भेये फच्चे का गुकरक है फेचाये ब्राउज की नन्हीॊ सी जान डयकय र्चऩक जाती है भुझसे’’ 9 इस प्रकाय अनासभका ने नायी की क्स्थतत उसकी अक्स्भता, उसक े अर्धकाय, ऩुरुष का नायी क े प्रतत दृक्ष्टकोण तथा भाॉ औय फच्चे की सॊवेदनाओॊ को फड़ी सहजता से असबव्मक्त ककमा है। तनष्कषष रूऩ भें कहा जा सकता है कक अनासभक अऩनी कववता भें स्रीत्व की ववडम्फनाओॊ औय ववसॊगततमों क े मथाथषऩयक, अक्रोशऩूणष, प्रबाव र्चर प्रस्तुत कय ऩुरुषसत्ता की नीॊव हहरा देती है। उन्होंने स्र्ती जीवन क े अधूयेऩन, नौततकता क े दोहयेऩन को हभेशा भुख्मता दी है। उनकी कववताएॉ गहये साभाक्जक
  • 7. -7- सयोकाय से ओतप्रोत है। इस प्रकाय अनासभका जी ऩुरुषसत्ता क े भकड़जार को करभ क े भाध्मभ से प्रततयोध कय अऩना अरग भानर्चर फनाती है। 1. वागथष, भाचष 1998 ऩृ.52 2. अनासभका, कवव ने कहा, (दयवाजा), ऩृ.121 3. अनासभका, कवव ने कहा (पनीचय), ऩृ.13 4. गगनाॊचर, अप्रैर – जून 2007, ऩृ. 40 5. अनासभका, कवव ने कहा, ऩृ. 11, 12 6. अनासभका, कवव ने कहा, ऩृ. 9 7. तनजता भें साभाक्जकता का यचाव, www.angatha.com 8. अनासभका, कवव ने कहा (ऩरयव्रता) ऩृ. 19 9. अनासभका, कवव ने कहा ऩृ. 107