ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
Man changa to kathouti me ganga - Brahmachari Girish
1. मन चंगा तो कठोती में गंगा
श्रीमद्भागवत में भगवान को प्रसन्न करने के जो 30 लक्षण बताए गये हैं। अब हमारा
ववषय है- ‘शौच’ जो वक पववत्रता का एक पयाायवाची है और ईश्वर उपासना का मुख्य
तत्व है। वजस प्रकार एक स्वस्थ शरीर में एक
स्वस्थ आत्मा का वास होता है, ठीक उसी
प्रकार एक स्वच्छ तन-मन, एक स्वच्छ ववचार
को जन्म देता है। महवषा ने सदैव
‘‘मनसावाचाकमाणा” अथाात् तन, मन और
वचन की शुद्धि को जीवन में सवोपरर बताया
है। एक प्राचीन कथा भी इस बात को समझने
में हमारी सहायता करती है। यह कथा दो
समकालीन संत तुलसीदासजी एवं रववदासजी
से जुड़ी है। तुलसीदास जी उच्चवगा से थे तो उनकी मान-प्रवतष्ठा अविक थी वहीं एक
ववशेष वगा में संत रववदास जी भी पूज्यनीय थे। जब एक भक्त के रूप में संत रववदासजी
की भद्धक्त की प्रवसद्धि तुलसीदास जी तक पहंची तो वह संत रववदासजी को वमलने
उनके गांव पहंचे। तुलसीदासजी अपने साथ अपने सहायक एवं वशष्य ‘बुद् िू’ को भी ले
गए। जब तुलसीदासजी एवं ‘बुद् िु’ संत रववदास के वनकट पहंचे तब संत रववदास मृत
जानवर को उसके बाह्य आवरण अथाात् त्वचा से पृथक कर रहे थे और उनके हाथ रक्त
से सने हए थे। यह दृष्य देख तुलसीदास जी अचंवभत रह गये वक ऐसा कृ त्य करने वाला
व्यद्धक्त ईश्वर का कृ पापात्र कै से हो सकता है? साथ ही उनके हृदय में रववदास के प्रवत
घृवणत भाव उद् घृत हो गये। उिर अपने काया में मग्न संत रववदास जी की दृवि जब
तुलसीदास जी पर पड़ी तो वह भावववभोर हो गये और अिीर भाव से उनके चरणों को
छु ने दौड़ पड़े। भावुकता में संत रववदास को यह भी भान न रहा वक उनके हाथ रक्त से
सने हए हैं। यह देख व्यवथत होकर तुलसीदास जी पीछे हट गये और जब संत रववदास
जी ने इसका कारण पूछा तो उन्ोंने कहा - ‘रक्तरंवजत हाथों से आप मुझे नहीं छू
सकते। सवाप्रथम आप गंगा स्नान कर आयें क्ोंवक आप मृत जानवर का आवरण उतार
रहे थे और गंगा स्नान के पश्चात ही आप मुझे छू ने के अविकारी होंगे।’ तब तुलसीदास जी
के दशानमात्र से स्वयं को अभीभूत मान रहे रववदास के मुंह बरबस वनकला ‘मन चंगा तो
कठौती में गंगा’। संत रववदास का इतना कहना ही था वक वहां रखी कठौती में से गंगाजी
की िारा फू ट पड़ी और रववदासजी ने उसमें स्नान कर तुलसीदास जी से आशीवााद
वलया। वहां से लौटते समय ‘बुद् िू’ को तुलसीदास की िोती पर पशु के रक्त के कु छ
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2. िब्बे वदखाई वदये और उसने िोती को गंगाघाट पर िोने की इच्छा जताई, फलस्वरूप
दोनों ने घर न जाकर गंगाघाट की ओर प्रस्थान वकया। वस्त्ों को िोते समय जब रक्त के
िब्बे अनेक प्रयास करने पर भी नहीं छू टे तो अज्ञानता व गुरूभद्धक्तवश बुद् िू ने रक्त का
स्पशा वकया परंतु उसके भाव में भी गुरूभद्धक्त वजसने उसकी आत्मा को ऐसी पववत्रता
प्रदान की वक उसी क्षण भगवान की कृ पा से गुरूभक्त बुद् िू वत्रकालदशी हो गया।
भारतीय वैवदक परंपरा में कथाओं का अपना एक ववशेष स्थान है। कथा की ववद्या गूढ़
रहस्ों को भी सरल-सुलभ और मनोरंजक बनाते हए वववभन्न रसों से सराबोर मानव मे
बुद्धिस्तर को कथानक के अनुरूप ढाल देती है व कथा का सार मानव मद्धस्तष्क को
प्रखरता प्रदान करता है। कथाएं मानवीय जीवन में वैवदक सांस्कृ वतक मूल्ों की
साथाकता को समझने का माध्यम भी हैं। महवषा सदैव ही वनष्छल पववत्रता को प्रवतपावदत
करते थे इसवलए भारतीय वैवदक परंपरा के ‘ध्यान’ को सरल और परद्धष्कत करके संपूणा
मानव जावत को समवपात वकया वजससे सपूणा मानव जावत और संपूणा प्रकृ वत एक दू सरे
के प्रवतद्वंद्वी न होकर एक दू सरे के अनुगामी हों।
ब्रह्मचारी गगरीश
कु लाविपवत, महवषा महेश योगी वैवदक ववश्वववद्यालय
एवं महावनदेशक, महवषा ववश्व शांवत की वैवश्वक राजिानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, वजला कटनी (पूवा में जबलपुर), मध्य प्रदेश