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प्रसक्ताश्रुमुखीत्य िं, ब्रु न्ती जनकात्मजा।
आधोर्तमुखी बाला, व लप्तुमुपचक्रमे।।5.26.1।।
उन्मत्ते प्रमत्ते , र्भ्ान्तवचत्ते शोचती।
उपा ृत्ता वकशोरी , व ेष्टन्ती महीतले।।5.26.2।।
राघ स्य प्रमत्तस्य, रक्षसा कामरूवपणा।
रा णेन प्रमथ्याह-मानीता िोशती बलात्।।5.26.3।।
राक्षसी शमापन्ना, भर्त्स्गमाना सुदारुणम्।
वचन्तयन्ती सुदुःखाताग, नाहिं जीव तुमुर्त्ुर्े।।5.26.4।।
न वह मे जीव तेनार्ो, नै ार्ेनग च भूषणैः।
सन्त्ा राक्षसीमध्ये, व ना रामिं महारर्म्।।5.26.5।।
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अश्मसारवमदिं नून-मर् ाप्यजरामरम्।
हृदयिं मम येनेदिं, न दुःखेिाविीयतर्े।।5.26.6।।
वधङ्मामनायागमसतीिं, याहिं तेना व ना क
ृ ता।
मुहूतगमवप रक्षानम, जीव तिं पापजीव ता।।5.26.7।।
का च मे जीव ते श्रिा, सुखे ा तिं वप्रयिं व ना।
भतागरिं सार्रान्ताया, सुधायाः वप्रयिं दम्।।5.26.8।।
वभद्यतािं भक्ष्यतािं ावप, शरीरिं नवसृर्ाम्यहम्।
न चाप्यहिं वचरिं दुःखिं, सहेयिं वप्रय वजगता।।5.26.9।।
चरणेनावप सव्येन, न स्पृशेयिं वनशाचरम्।
रा णिं वक
िं पुनरहिं, काममेयिं व र्वहगतम्।।5.26.10।।