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1.
1 Valmiki Ramayanam Sundara Kanda Parayanam Day-9
2.
2 Agenda ● Sundara Kanda
Ch-62 to Ch-68{217 Slokas} ● Mahabharata Tatparya Sundara Kanda Chapter-7-49 Slokas ● Yuddha Kanda-Sarga-128 ● -Ramapattabhisheka- 125 Slokas ● Total-391 slokas
3.
3 द्विषष्टितमस्सर्गः Guards of Madhuvanam
headed by Dadhimukha move to report to Sugriva 3
4.
4 तानुिाच हरिश्रेष्ठो, हनुमान्वानिर्षभः। अव्यग्रमनसो
यूयं ,मधु सेित वानिाः।।5.62.1।। अहमािारयिटिामम, युष्माक ं परिपन्न्िनः। श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं, हिीणां प्रविोऽङ्गदः।।5.62.2।। प्रत्िुिाच प्रसन्नात्मा ,विबन्तु हियो मधु। अवश्यं कृ तकायषस्य, वाक्यं हनुमतो मया।।5.62.3।। अकायषमपप कतषव्यं, ककमङ्ग पुनिीदृशम्। अङ्गदस्य मुखाच्छ्रुत्वा, वचनं वानिर्षभाः।।5.62.4।। साधुसान्ववतत संहृष्टा ,वानिाः प्रत्यपूजयन्। पूजतयत्वाङ्गदं सवे ,वानिा वानिर्षभम्।।5.62.5।।
5.
5 जग्मुमगधुवनं यत्र ,नदीवेग
इव द्रुमम ्। ते प्रपवष्टा मधुवनं, पालानाक्रम्य वीयषतः।।5.62.6।। अततसगाषच्छ्रच पटवो, दृष््वा श्रुत्वा च मैथिलीम ्। ििुस्सवे मधु तदा, िसवत्फलमाददुः।।5.62.7।। उत्पत्य च ततस्सवे, वनपालान ्समागतान ्। ताडिष्न्त स्म शतश-स्सक्तान्मधुवने तदा।।5.62.8।। मधूतन द्रोणमात्राणण, बाहुभभः परिगृह्य ते। विबष्न्त सहहतास्सवे, यनघ्नष्न्त स्म तिापिे।।5.62.9।। क े थचत्पीत्वा प्रविध्िष्न्त, मधूतन मधुपपङ्गलाः। मधून्च्छ्रिष्टेन क े थचच्छ्रच, जग्मुरन्योन्यमुत्कटाः।।5.62.10।।
6.
6 अपिे वृक्षमूले तु,
शाखां गृह्य व्यवन्स्िताः। अत्यिं च मदग्लानाः, पणाषन्यास्तीयष शेरते।।5.62.11।। उन्मत्तभूताः प्लवगा, मधुमत्ताश्च हृष्टवत्। क्षििष्न्त च तिान्योन्यं-स्खलन्न्त च तिाऽपिे।।5.62.12।। क े थचत्क्ष्वेलां प्रक ु िगष्न्त, क े थचत्क ू जष्न्त हृष्टवत्। हियोमधुना मत्ताः, क े थचत्सुप्ता महीतले।।5.62.13।। कृ त्वा क े थचद्धसन्त्िन्ये, क े थचत्क ु िगष्न्त चेतित्। कृ त्वा क े थचद्िदन्त्िन्ये, क े थचद्बुध्िष्न्त चेतित्।।14।। येऽप्यत्र मधुपालास्स्िुः, प्रेष्या दथधमुखस्य तु। तेऽपप तैवाषनिैभीमैः ,प्रततपर्द्धा हदशो गताः।।5.62.15।।
7.
7 जानुभभस्तु प्रकृ ष्टाश्च,
देवमागं प्रदभशषताः। अब्रुिन्पिमोद्पवग्ना, गत्वा दथधमुखं वचः।।5.62.16।। हनूमता दत्तविै-हषतं मधुवनं बलात्। वयं च जानुभभः कृ ष्टा, देवमागं च दभशषताः।।5.62.17।। ततो दथधमुख: क्र ु द्धो, वनपस्तत्र वानिः। हतं मधुवनं श्रुत्वा, सान्त्वयामास तान्हिीन्।।5.62.18।। इहार्च्छत र्च्छामो, वानिान्बलदपपषतान्। बलेन िारयिटिामो ,मधु भक्षयतो वयम्।।5.62.19।। श्रुत्वा दथधमुखस्येदं ,वचनं वानिर्षभाः। पुनवीिा मधुवनं ,तेनैव सहसा ययुः।।5.62.20।।
8.
8 मवये चैर्ां दथधमुखः,
प्रगृह्य तिसा तरुम ्। समभ्यधावद्वेगेन, ते च सवे प्लवङ्गमाः।।5.62.21।। ते भशलाः पादपांश्चापप, पवषतांश्चापप वानिाः। गृहीत्वाऽऽभ्यगमन् क्र ु द्धा, यत्र ते कपपक ु ञ्जजिाः।।22।। ते स्वाभमवचनं वीिा, हृदयेष्ववसज्य तत्। त्विया ह्यभ्यधावन्त, सालतालभशलायुधाः।।5.62.23।। वृक्षस्िांश्च तलस्िांश्च, वानिान्बलदपपषतान्। अभ्यक्रामंस्ततो वीिाः, पालास्तत्र सहस्रशः।।5.62.24।। अि दृष््वा दथधमुखं, क्र ु द्धं वानिपुङ्गवाः। अभ्यधावन्त वेगेन, हनुमत्प्रमुखास्तदा।।5.62.25।।
9.
9 तं सवृक्षं महाबाहु-मापतन्तं
महाबलम्। आयषक ं प्राहित्तत्र ,बाहुभ्यां क ु पपतोऽङ्गदः।।5.62.26।। मदान्धश्च न वेदैन-मायषकोऽयं ममेतत सः। अिैनं तनन्ष्पपेर्ाशु, वेगवद्वसुधातले।।5.62.27।। स भग्नबाहूरुभुजो, पवह्वलश्शोणणतोक्षक्षतः। मुमोह सहसा वीिो ,मुहूतं कपपक ु ञ्जजिः।।5.62.28।। स समाश्वस्य सहसा, सङ्कृ द्धो िाजमातुलः। वानिान्िारिामास, दण्डेन मधुमोहहतान्।।5.62.29।। स किन्ञ्जचद्पवमुक्तस्स्तै-वाषनिैवाषनिर्षभः। उिाचैकान्तमाथश्रत्य, भृत्यान्स्वान्समुपागतान्।।30।।
10.
10 एते यतटठन्तु र्च्छामो,
भताष नो यत्र वानिः। सुग्रीवो पवपुलग्रीवः, सह िामेण यतटठयत।।5.62.31।। सवं चैवाङ्गदे दोर्ं ,श्राियिटिामम पाथिषवे। अमर्ी वचनं श्रुत्वा, घातयिटियत वानिान्।।5.62.32।। इष्टं मधुवनं ह्येत-त्पाथिषवस्य महात्मनः। पपतृपैतामहं हदव्यं, देवैिपप दुिासदम्।।5.62.33।। स वानिातनमान्सवाषन्, मधुलुब्धान्गतायुर्ः। घातयिटियत दण्डेन ,सुग्रीवस्ससुहृज्जनान्।।5.62.34।। ववया ह्येते दुिात्मानो, नृपाज्ञापरिभापवनः। अमर्षप्रभवो िोर्-स्सफलो नो भविटियत।।5.62.35।। एवमुक्त्वा दथधमुखो, वनपालान्महाबलः।
11.
11 जर्ाम सहसोत्पत्य, वनपालैस्समन्न्वतः।।5.62.36।। तनमेर्ान्तिमात्रेण,
स हह प्राप्तो वनालयः। सहस्रांशुसुतो धीमान्, सुग्रीवो यत्र वानिः।।5.62.37।। िामं च लक्ष्मणं चैव, दृष््वा सुग्रीवमेव च। समप्रततष्ठां जगती-माकाशाष्न्नििात ह।।5.62.38।। सन्न्नपत्य महावीयष-स्सवैस्तै: परिवारितः। हरिदषथधमुखः पालैः, पालानां पिमेश्विः।।5.62.39।। स दीनवदनो भूत्वा, कृ त्वा भशिभस चाञ्जजभलम ्। सुग्रीवस्य शुभौ मूवनाष, चिणौ प्रत्ििीडित्*।।5.62.40।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे द्पवर्न्ष्टतमस्सगषः।
12.
12 त्रिषष्टितमस्सर्गः Sugriva tells Dadhimukha
not to worry about the destruction of Madhuvanam. He asked him to send Hanuman, Angada and others 12
13.
13 ततो मूवनाष तनपतततं,
वानिं वानिर्षभः। दृष््वैवोद्पवग्नहृदयो ,वाक्यमेतदुिाच ह।।5.63.1।। उविटठोविटठ कस्मात्त्वं ,पादयोः पतततो मम। अभयं ते भिेद्िीि, सवषमेवाभभधीयताम्।।5.63.2।। स तु पवश्वाभसतस्तेन, सुग्रीवेण महात्मना। उत्िाय सुमहाप्राज्ञो, वाक्यं दथधमुखोऽब्रिीत्।।5.63.3।। नैवक्षषिजसा िाज-न्न त्वया नापप वाभलना। वनं तनसृष्टपूवं हह, भक्षक्षतं तच्छ्रच वानिैः।।5.63.4।। एभभः प्रधपर्षताश्चैव, वानिा वनिक्षक्षभभः। मधून्यथचन्ततयत्वेमान्, भििष्न्त विबष्न्त च।।5.63.5।।
14.
14 भशष्टमिािविध्िष्न्त, भििष्न्त तिापिे। तनवायषमाणास्ते
सवे, भ्रुवो वै दशगिष्न्त हह।।5.63.6।। इमे हह संिब्धतिा-स्तिा तैस्सम्प्रधपर्षताः। वाियन्तो वनात्तस्मा-त्क्र ु द्धैवाषनिपुङ्गवैः।।5.63.7।। ततस्तैबषहुभभवीिै-वाषनिैवाषनिर्षभ। संिक्तनयनैः क्रोधा-द्धियः प्रपवचाभलताः।।5.63.8।। पाणणभभतनषहताः क े थच-त्क े थचज्जानुभभिाहताः। प्रकृ ष्टाश्च यिाकामं, देवमागं च दभशषताः।।5.63.9।। एवमेते हताश्शूिा-स्त्वतय यतटठयत भतषरि। कृ त्स्नं मधुवनं चैव, प्रकामं तैः प्रभक्ष्िते।।5.63.10।।
15.
15 एवं पवज्ञाप्यमानं तं,
सुग्रीवं वानिर्षभम्। अिृच्छिं महाप्राज्ञो, लक्ष्मणः पिवीिहा।।5.63.11।। ककमयं वानिो िाजन्, वनपः प्रत्युपन्स्ितः। क ं चािषमभभतनहदषश्य, दुःणखतो वाक्यमब्रिीत्।।5.63.12।। एवमुक्तस्तु सुग्रीवो, लक्ष्मणेन महात्मना। लक्ष्मणं प्रत्िुिाचेदं ,वाक्यं वाक्यपवशािदः।।5.63.13।। आयष लक्ष्मण सम्प्राह, वीिो दथधमुखः कपपः। अङ्गदप्रमुखैवीिै-भषक्षक्षतं मधु वानिैः।।5.63.14।। पवथचत्य दक्षक्षणामाशा-मागतैहषरिपुङ्गवैः। नैर्ामकृ तकायाषणा- मीदृश-स्स्यादुपक्रमः*।।5.63.15।।
16.
16 आगतैश्च प्रमथितं ,यिा
मधुवनं हह तैः। धपर्षतं च वनं कृ त्स्न-मुपयुक्तं च वानिैः।।5.63.16।। वनं यदाऽभभपन्नास्ते, साथधतं कमष वानिैः। दृष्टा देवी न सन्देहो, न चान्येन हनूमता।।5.63.17।। न ह्यन्यस्साधने हेतुः, कमषणोऽस्य हनूमतः। कायषभसद्थधमषततश्चैव, तन्स्मन्वानिपुङ्गवे।।5.63.18।। व्यवसायश्च वीयं च ,श्रुतं चापप प्रततन्ष्ठतम ्। जाम्बवान्यत्र नेता, स्यादङ्गदश्च महाबलः।।5.63.19।। हनुमांश्चाप्यथधष्ठाता, न तस्य गततिन्यिा। अङ्गदप्रमुखैवीिै-हषतं मधुवनं ककल।।5.63.20।।
17.
17 वाियन्तश्च सहहता-स्तदा जानुभभिाहताः। एतदिषमयं
प्राप्तो, वक्तुं मधुिवाथगह।।5.63.21।। नाम्ना दथधमुखो नाम, हरिः प्रख्यातपवक्रमः। दृष्टा सीता महाबाहो, सौभमत्रे िश्ि तत्त्वतः।।5.63.22।। अभभगम्य तिा सवे, विबष्न्त मधु वानिाः। न चाप्यदृष््वा वैदेहीं, पवश्रुताः पुरुर्र्षभ।।5.63.23।। वनं दत्तविं हदव्यं, धर्षयेयुवषनौकसः। ततः प्रहृष्टो धमाषत्मा, लक्ष्मणस्सह िाघवः।।5.63.24।। श्रुत्वा कणषसुखां वाणीं, सुग्रीववदनाच्छ्रच्छ्रयुताम्। प्राहृटित भृशं िामो, लक्ष्मणश्च महाबलः।।5.63.25।। श्रुत्वा दथधमुखस्येदं, सुग्रीवस्सम्प्रहृष्य च। वनपालं पुनवाषक्यं ,सुग्रीवः प्रत्िभाषत।।5.63.26।।
18.
18 प्रीतोऽष्स्म सोऽहं यद्भुक्तं,
वनं तैः कृ तकमषभभः। मपर्षतं मर्षणीयं च ,चेन्ष्टतं कृ तकमषणाम ्।।5.63.27।। इच्छामम शीघ्रं हनुमत्प्रधानान ्, शाखामृगांस्तान ्मृगिाजदपाषन ्। द्रष्टुं कृ तािाषन ्सह िाघवाभ्यां , श्रोतुं च सीताथधगमे प्रयत्नम ्।।28।। प्रीततस्फीताक्षौ सम्प्रहृष्टौ क ु मािौ , दृष््वा भसद्धािौ वानिाणां च िाजा। अङ्गैः संहृष्टैः कमषभसद्थधं पवहदत्वा बाह्वोिासन्नां सोऽततमात्रं ननन्द।।5.63.29।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे त्रत्रर्न्ष्टतमस्सगषः।।
19.
19 चतुःषष्टितमस्सर्गः Hanuman and Angada
along with others approach Sugriva -- Hanuman tells Rama about the discovery of Sita 19
20.
20 सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु, हृष्टो दथधमुखः
कपपः। िाघवं लक्ष्मणं चैव, सुग्रीवं चाभ्ििादित्।।5.64.1।। स प्रणम्य च सुग्रीवं, िाघवौ च महाबलौ। वानिैः सहहतः शूिै-हदषवमेिोत्ििात ह।।5.64.2।। स यिैवाऽगतः पूवं, तिैव त्वरितं गतः। तनपत्य गगनाद्भूमौ ,तद्वनं प्रवििेश ह।।5.64.3।। स प्रपवष्टो मधुवनं, ददशग हरियूिपान्। पवमदानुन्त्ितान्सवाषन्,मेहमानान्मधूदकम्।।5.64.4।। स तानुपागमद्वीिो ,बद्ववा किपुटाञ्जजभलम्। उिाच वचनं श्लक्ष्ण-भमदं हृष्टवदङ्गदम्।।5.64.5।।
21.
21 सौम्य िोर्ो न
कतषव्यो, यदेतत्परिवारितम ्। अज्ञानाद्रक्षक्षभभः क्रोधा-द्भवन्तः प्रततर्ेथधताः।।5.64.6।। युविाजस्त्वमीशश्च, वनस्यास्य महाबल। मौख्याषत्पूवं कृ तो दोर्-स्तं भवान्क्षन्तुमहगयत।।5.64.7।। आख्यातं हह मया गत्वा, पपतृव्यस्य तवानघ। इहोपयातं सवेर्ा-मेतेर्ां वनचारिणाम ्।।5.64.8।। स त्वदागमनं श्रुत्वा, सहैभभहषरियूिपैः। प्रहृष्टो न तु रुष्टोऽसौ, वनं श्रुत्वा प्रधपर्षतम ्।।5.64.9।। प्रहृष्टो मां पपतृव्यस्ते, सुग्रीवो वानिेश्विः। शीघ्रं प्रेषि सवांस्ता-तनतत होिाच पाथिषवः।।5.64.10।।
22.
22 श्रुत्वा दथधमुखस्येदं ,वचनं
श्लक्ष्णमङ्गदः। अब्रवीत्तान्हरिश्रेष्ठो, वाक्यं वाक्यपवशािदः।।5.64.11।। शङ्क े श्रुतोऽयं वृत्तान्तो, िामेण हरियूिपाः। तत्क्षमं नेह नः स्िातुं, कृ ते काये पिन्तपाः।।5.64.12।। पीत्वा मधु यिाकामं, पवश्रान्ता वनचारिणः। ककं शेर्ं गमनं तत्र ,सुग्रीवो यत्र मे गुरुः।।5.64.13।। सवे यिा मां वक्ष्यन्न्त, समेत्य हरियूिपाः। तिान्स्म कताष कतषव्ये, भवद्भभः पिवानहम्।।5.64.14।। नाज्ञापतयतुमीशोऽहं, युविाजोऽन्स्म यद्यपप। अयुक्तं कृ तकमाषणो, यूयं धर्षतयतुं मया।।5.64.15।।
23.
23 ब्रुवतश्चाङ्गदस्यैवं, श्रुत्वा वचनमव्ययम
्। प्रहृष्टमनसो वाक्य-भमदमूचुिगनौकसः।।5.64.16।। एवं िक्ष्ियत को िाजन्, प्रभुस्सन्वानिर्षभ। ऐश्वयषमदमत्तो हह, सवोऽहभमतत मन्िते।।5.64.17।। तव चेदं सुसदृशं ,वाक्यं नान्यस्य कस्यथचत्। सन्नततहहष तिाख्िायत ,भविटिच्छ ु भयोग्यताम ्।।18।। सवे वयमपप प्राप्ता-स्तत्र गन्तुं कृ तक्षणाः। स यत्र हरिवीिाणां, सुग्रीवः पततिव्ययः।।5.64.19।। त्वया ह्यनुक्तैहषरिभभ-नैव शक्यं पदात्पदम ्। क्वथचद्गन्तुं हरिश्रेष्ठ, ब्रूमः सत्यभमदं तु ते।।5.64.20।।
24.
24 एवं तु वदतां
तेर्ा-मङ्गदः प्रत्िुिाच ह। बाढं र्च्छाम इत्युक्त्वा, खमुत्पेतुमषहाबलाः।।5.64.21।। उत्पतन्तमनूत्िेतु-स्सवे ते हरियूिपाः। कृ त्वाकाशं तनिाकाशं, यन्त्रोन्त्क्षप्ता इवाचलाः।।5.64.22।। तेऽम्बिं सहसोत्पत्य, वेगवन्तः प्लवङ्गमाः। पवनदन्तो महानादं ,घना वातेरिता यिा।।5.64.23।। अङ्गदे ह्यननुप्राप्ते, सुग्रीवो वानिाथधपः। उिाच शोकोपहतं ,िामं कमललोचनम ्।।5.64.24।। समाश्िमसहह भद्रं, ते दृष्टा देवी न संशयः। नागन्तुभमह शक्यं तै-ितीते समये हह नः।।5.64.25।।
25.
25 न मत्सकाशमार्च्छे-त्कृ त्ये
हह पवतनपाततते। युविाजो महाबाहुः, प्लवतां प्रविोऽङ्गदः।।5.64.26।। यद्यप्यकृ तकृ त्याना-मीदृशस्स्यादुपक्रमः। भिेत्स दीनवदनो, भ्रान्तपवप्लुतमानसः।।5.64.27।। पपतृपैतामहं चैत-त्पूवषक ै िभभिक्षक्षतम ्। न मे मधुवनं हन्या-दहृष्टः प्लवगेश्विः।।5.64.28।। कौसल्यासुप्रजा िाम, समाश्िमसहह सुव्रत। दृष्टा देवी न सन्देहो, न चान्येन हनूमता।।5.64.29।। न ह्यन्यः कमषणो हेतु-स्साधनेऽस्य हनूमतः। हनूमतत हह भसद्थधश्च, मततश्च मततसत्तमः।।5.64.30।।
26.
26 व्यवसायश्च वीयं च
,सूये तेज इव ध्रुवम्। जाम्बवान्यत्र नेता स्या-दङ्गदश्च बलेश्विः।।5.64.31।। हनुमांश्चाप्यथधष्ठाता, न तस्य गततिन्यिा। मा भून्श्चन्तासमायुक्त-स्सम्प्रत्यभमतपवक्रमः।।5.64.32।। ततः ककलककलाशब्दं, शुश्रावासन्नमम्बिे। हनुमत्कमषदृप्तानां ,नाधषतां काननौकसाम्।।5.64.33।। ककन्ष्कन्धामुपयातानां, भसद्थधं कियताभमव। ततश्श्रुत्वा तननादं तं, कपीनां कपपसत्तमः।।5.64.34।। आयतान्ञ्जचतलाङ्गूलस्सो-ऽभिद्धृष्टमानसः। आजग्मुस्तेऽपप हियो, िामदशषनकांक्षक्षणः।।5.64.35।। अङ्गदं पुितः कृ त्वा ,हनूमन्तं च वानिम्। तेऽङ्गदप्रमुखा वीिाः, प्रहृष्ठाश्च मुदान्न्वताः।।5.64.36।।
27.
27 यनिेतुहगरििाजस्य, समीपे िाघवस्य
च। हनुमांश्च महाबाहुः, प्रणम्य भशिसा ततः।।5.64.37।। तनयतामक्षतां देवीं ,िाघवाय न्ििेदित्। दृष्टा देवीतत हनुम-द्वदनादमृतोपमम्।।5.64.38।। आकण्यष वचनं िामो, हर्षमाप सलक्ष्मणः। तनन्श्चतािं ततस्तन्स्मन्, सुग्रीवं पवनात्मजे।।5.64.39।। लक्ष्मणः प्रीततमान्प्रीतं, बहुमानादिैित। प्रीत्या च िममाणोऽि, िाघवः पिवीिहा।।5.64.40।। बहुमानेन महता, हनुमन्तमिैित। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे चतुःर्न्ष्टतमस्सगषः।।
28.
28 िञ्चषष्टितमस्सर्गः Hanuman apprises Sri
Rama of Sita's presence under the Simsupa tree 28
29.
29 ततः प्रस्रवणं शैलं,
ते गत्वा थचत्रकाननम्। प्रणम्य भशिसा िामं ,लक्ष्मणं च महाबलम्।।5.65.1।। युविाजं पुिस्कृ त्य, सुग्रीवमभभवाद्य च। प्रवृपत्तमि सीतायाः ,प्रवक्तुमुिचक्रमुः।।5.65.2।। िावणान्तः पुिे िोधं, िाक्षसीभभश्च तजषनम्। िामे समनुिागं च, यश्चायं समयः कृ तः।।5.65.3।। एतदाख्िाष्न्त ते सवे, हियो िामसन्न्नधौ। वैदेहीमक्षतां श्रुत्वा, िामस्तूत्तिमब्रिीत्।।5.65.4।। क्व सीता ितगते देवी, किं च मतय ितगते। एतन्मे सवषमाख्िात, वैदेहीं प्रतत वानिाः।।5.65.5।।
30.
30 िामस्य गहदतं श्रुत्वा,
हियो िामसन्न्नधौ। चोदिष्न्त हनूमन्तं ,सीतावृत्तान्तकोपवदम्।।5.65.6।। श्रुत्वा तु वचनं तेर्ां, हनुमान्मारुतात्मजः। प्रणम्य भशिसा देव्यै, सीतायै तां हदशं प्रतत।।5.65.7।। उिाच वाक्यं वाक्यज्ञ-स्सीताया दशषनं यिा। समुद्रं लङ्घतयत्वाहं ,शतयोजनमायतम्।।5.65.8।। अगच्छ्रिं जानकीं सीतां, मागषमाणो हददृक्षया। तत्र लङ्क े तत नगिी ,िावणस्य दुिात्मनः।।5.65.9।। दक्षक्षणस्य समुद्रस्य, तीिे िसयत दक्षक्षणे। तत्र दृष्टा मया सीता, िावणान्तः पुिे सती।।5.65.10।।
31.
31 सन्न्यस्य त्वतय जीवन्ती,
िामा िाम मनोििम्। दृष्टा मे िाक्षसीमवये, तज्यषमाना मुहुमुषहुः।।5.65.11।। िाक्षसीभभपवषरूपाभी, िक्षक्षता प्रमदावने। दुःखमासाद्िते देवी, तिाऽदुःखोथचता सती।।5.65.12।। िावणान्तः पुिे रुद्धा, िाक्षसीभभस्सुिक्षक्षता। एकवेणीधिा दीना, त्वतय थचन्तापिायणा।।5.65.13।। अधःशय्या पववणाषङ्गी ,पद्भमनीव हहमागमे। िावणाद्पवतनवृत्तािाष ,मतषव्यकृ ततनश्चया।।5.65.14।। देवी किन्ञ्जचत्काक ु त्स्ि, त्वन्मना माथगषता मया। इक्ष्वाक ु वंशपवख्याततं ,शनैः कीतषयतानघ।।5.65.15।।
32.
32 सा मया निशादूषल,
पवश्वासमुपपाहदता। ततस्सम्भापर्ता देवी, सवषमिं च दभशषता।।5.65.16।। िामसुग्रीवसख्यं च, श्रुत्वा प्रीततमुपागता। तनयतस्समुदाचािो, भन्क्तश्चास्यास्तिा त्वतय।।5.65.17।। एवं मया महाभागा, दृष्टा जनकनन्न्दनी। उग्रेण तपसा युक्ता, त्वद्भक्त्या पुरुर्र्षभ।।5.65.18।। अभभज्ञानं च मे दत्तं, यिा वृत्तं तवान्न्तक े । थचत्रक ू टे महाप्राज्ञ, वायसं प्रतत िाघव।।5.65.19।। पवज्ञाप्यश्च निव्याघ्रो, िामो वायुसुत त्वया। अणखलेनेह यद्धृष्ट-भमतत मामाह जानकी।।5.65.20।।
33.
33 अयं चास्मै प्रदातव्यो
,यत्नात्सुपरििक्षक्षतः। ब्रुवता वचनान्येवं, सुग्रीवस्योपशृण्वतः।।5.65.21।। एर् चूडामणणश्श्रीमान्, मया सुपरििक्षक्षतः। मनन्श्शलायान्स्तलको, गण्डपाश्वे तनवेभशतः।।5.65.22।। त्वया प्रणष्ठे ततलक े , तं ककल स्मतुषमहगमस। एर् तनयाषतततश्श्रीमा-न्मया ते वारि सम्भवः। एतं दृष््वा प्रहृटिामम ,व्यसने त्वाभमवानघ।।5.65.23।। जीपवतं धारयिटिामम ,मासं दशििात्मज। ऊववं मासान्न जीवेयं, िक्षसां वशमागता।।5.65.24।।
34.
34 इतत मामब्रिीत्सीता, कृ
शाङ्गी धमषचारिणी। िावणान्तः पुिे रुद्धा, मृगीवोत्फ ु ल्ललोचना।।5.65.25।। एतदेव मयाख्यातं, सवं िाघव यद्यिा। सवषिा सागिजले ,संतािः प्रविधीिताम्।।5.65.26।। तौ जाताश्वासौ िाजपुत्रौ पवहदत्वा, तच्छ्रचाभभज्ञानं िाघवाय प्रदाय। देव्या चाख्यातं सवषमेवानुपूव्याष- द्वाचा सम्पूणं वायुपुत्त्रश्शशंस।।5.65.27।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे पञ्जचर्न्ष्टतमस्सगषः।।
35.
35 षट्षष्टितमस्सर्गः Sri Rama wails
piteously after seeing the token chudamani 35
36.
36 एवमुक्तो हनुमता, िामो
दशििात्मज:। तं मणणं हृदये कृ त्वा, प्ररुरोद सलक्ष्मणः।।5.66.1।। तं तु दृष््वा मणणश्रेष्ठं, िाघवश्शोककभशषतः। नेत्राभ्यामश्रुपूणाषभ्यां ,सुग्रीवभमदमब्रिीत्।।5.66.2।। यिैव धेनुस्रियत, स्नेहाद्वत्सस्य वत्सला। तिा ममापप हृदयं, मणणित्नस्य दशषनात्।।5.66.3।। मणणित्नभमदं दत्तं, वैदेह्याश्श्वशुिेण मे। वधूकाले यिाबद्ध-मथधक ं मून्वनष शोभते।।5.66.4।। अयं हह जलसम्भूतो, मणणस्सज्जनपून्जतः। यज्ञे पिमतुष्टेन ,दत्तश्शक्र े ण धीमता।।5.66.5।।
37.
37 इमं दृष््वा मणणश्रेष्ठं,
यिा तातस्य दशषनम ्। अद्यास्म्यवगतस्सौम्य, वैदेहस्य तिा पवभोः।।5.66.6।। अयं हह शोभते तस्याः, पप्रयाया मून्वनष मे मणणः। अस्याद्य दशषने नाहं ,प्राप्तां ताभमव चचन्तिे।।5.66.7।। ककमाह सीता वैदेही, ब्रूहह सौम्य पुनः पुनः। पपपासुभमव तोयेन, भसञ्जचन्ती वाक्यवारिणा।।5.66.8।। इतस्तु ककं दुःखतिं ,यहदमं वारिसम्भवम ्। मणणं िश्िामम सौभमत्रे, वैदेहीमागतां पवना।।5.66.9।। थचिं जीियत वैदेही, यहद मासं धररटियत। क्षणं सौम्य न जीवेयं, पवना तामभसतेक्षणाम ्।।5.66.10।। नय मामपप तं देशं, यत्र दृष्टा मम पप्रया। न यतटठेयं क्षणमपप, प्रवृपत्तमुपलभ्य च।।5.66.11।।
38.
38 किं सा मम
सुश्रोणी, भीरुभीरुस्सती सदा। भयावहानां घोिाणां, मवये यतटठयत िक्षसाम्।।5.66.12।। शािदन्स्तभमिोन्मुक्तो ,नूनं चन्द्रं इवांबुधैः। आवृतं वदनं तस्या, न विराजयत िाक्षसैः।।5.66.13।। ककमाह सीता हनुमं-स्तत्त्वतः कथिाद्य मे। एतेन खलु जीविटिे ,भेर्जेनातुिो यिा।।5.66.14।। मधुिा मधुिालापा, ककमाह मम भाभमनी। मद्पवहीना विािोहा, हनुमन्कथिस्ि मे।।5.66.15।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे र््र्न्ष्टतमस्सगषः।।
39.
39 सप्तषष्टितमस्सर्गः Hanuman once again
narrates to Rama, Sita's condition 39
40.
40 एवमुक्तस्तु हनुमान्,िाघवेण महात्मना। सीताया
भापर्तं सवं, न्ििेदित िाघवे।।5.67.1।। इदमुक्तवती देवी, जानकी पुरुर्र्षभ। पूवष वृत्तमभभज्ञानं, थचत्रक ू टे यिातिम्।।5.67.2।। सुखसुप्ता त्वया साधं ,जानकी पूवषमुन्त्िता। वायसस्सहसोत्पत्य, विददार स्तनान्तिे।।5.67.3।। पयाषयेण च सुप्तस्त्वं ,देव्यङ्क े भिताग्रज। पुनश्च ककल पक्षी स, देव्या जनियत व्यिाम्।।5.67.4।। पुनः पुनरुपागम्य, विददार भृशं ककल। ततस्त्वं बोथधतस्तस्या-श्शोणणतेन समुक्षक्षतः।।5.67.5।।
41.
41 वायसेन च तेनैव,
सततं बावयमानया। बोथधतः ककल देव्या त्वं, सुखसुप्तः पिन्तप।।5.67.6।। तां तु दृष््वा महाबाहो, दारितां च स्तनान्तिे। आशीपवर् इव क्र ु द्धो, तनश्वसन्नभ्यभार्िाः।।5.67.7।। नखाग्रैः क े न ते भीरु, दारितं तु स्तनान्तिम ्। कः क्रीडयत सिोर्ेण, पञ्जचवक्त्रेण भोथगना।।5.67.8।। तनिीक्षमाणस्सहसा, वायसं समवैक्षिाः। नखैस्सरुथधिैस्तीक्ष्णै-स्तामेवाभभमुखं न्स्ितम ्।।5.67.9।। सुतः ककल स शक्रस्य, वायसः पततां विः। धिान्तिचिश्शीघ्रं, पवनस्य गतौ समः।।5.67.10।।
42.
42 ततस्तन्स्मन्महाबाहो, कोपसंवततषतेक्षणः। वायसे त्वं
कृ िाः क्र ू िां, मततं मततमतां वि।।5.67.11।। स दभं संस्तिाद्गृह्य ,ब्रह्मास्त्रेण ह्ययोजयः। स दीप्त इव कालान्ग्न-जगज्िालाभभमुखः खगम्।।5.67.12।। क्षक्षप्तवांस्त्वं प्रदीप्तं हह, दभं तं वायसं प्रतत। ततस्तु वायसं दीप्त-स्स दभोऽनुजर्ाम ह।।5.67.13।। स पपत्रा च परित्यक्त-स्सुिैश्च समहपर्षभभः। त्रीन्लोकान्सम्परिक्रम्य, त्रातािं नाचधर्च्छयत।।5.67.14।। पुनिेवागतस्त्रस्त-स्त्वत्सकाशमरिंदम। स तं तनपतततं भूमौ, शिण्यश्शिणागतम्।।5.67.15।।
43.
43 वधाहषमपप काक ु त्स्ि,
कृ पया पयषपालयः। मोघमस्त्रं न शक्यं तु, कतुषभमत्येव िाघव।।5.67.16।। भवांस्तस्याक्षक्ष काकस्य, हहनन्स्त स्म स दक्षक्षणम्। िाम त्वां स नमस्कृ त्य, िाज्ञे दशििाय च।।5.67.17।। पवसृष्टस्तु तदा काक, प्रयतिेदे स्वमालयम्। एवमस्त्रपवदां श्रेष्ठ-स्सत्त्ववान्शीलवानपप।।5.67.18।। ककमिषमस्त्रं िक्षस्सु, न िोजियत िाघवः। न नागा नापप गन्धवाष, नासुिा न मरुद्गणाः।।5.67.19।। न च सवे िणे शक्ता, िामं प्रततसमाभसतुम्। तस्य वीयषवतः कन्श्च-द्यद्िष्स्त मतय सम्भ्रमः।।5.67.20।।
44.
44 क्षक्षप्रं सुतनभशतैबाषणै-हषन्यतां युथध
िावणः। भ्रातुिादेशमाज्ञाय ,लक्ष्मणो वा पिन्तपः।।5.67.21।। स ककमिं निविो, न मां रियत िाघवः। शक्तौ तौ पुरुर्व्याघ्रौ, वाय्वन्ग्नसमतेजसौ ।।5.67.22।। सुिाणामपप दुधषर्ौ ,ककमिं मामुपेक्षतः। ममैव दुष्कृ तं ककन्ञ्जच-न्महदष्स्त न संशयः।।5.67.23।। समिौ सहहतौ यन्मां, नािेिेते पिन्तपौ। वैदेह्या वचनं श्रुत्वा ,करुणं साश्रु भापर्तम्।।5.67.24।। पुनिप्यहमायां ता-भमदं वचनमब्रुिम्। त्वच्छ्रिोकपवमुखो िामो, देपव सत्येन ते शिे।।5.67.25।।
45.
45 िामे दुःखाभभभूते तु,
लक्ष्मणः िररतप्िते। किन्ञ्जचद्भवती दृष्टा, न कालः परिशोथचतुम ्।।5.67.26।। अन्स्मन्मुहूते दुःखाना-मन्तं द्रक्ष्िमस भाभमतन। तावुभौ निशादूषलौ, िाजपुत्रावतनन्न्दतौ।।5.67.27।। त्वद्दशषनकृ तोत्साहौ ,लङ्कां भस्मीकरिष्यतः। हत्वा च समिे िौद्रं ,िावणं सह बान्धवम ्।।5.67.28।। िाघवस्त्वां विािोहे, स्वां पुिीं निते ध्रुवम ्। यत्तु िामो विजानीिा-दभभज्ञानमतनन्न्दते।।5.67.29।। प्रीततसञ्जजननं तस्य, प्रदातुं त्वभमहाहगमस। साभभवीक्ष्य हदशस्सवाष ,वेण्युद्ग्रथितमुत्तमम ्।।5.67.30।।
46.
46 मुक्त्वा वस्त्राद्ददौ मह्यं
,मणणमेतं महाबल। प्रततगृह्य मणणं हदव्यं, तव हेतो िघूद्वह।।5.67.31।। भशिसा तां प्रणम्यायाष-महमागमने त्विे। गमने च कृ तोत्साह-मवेक्ष्य विवणणषनी।।5.67.32।। पववधषमानं च हह मा-मुिाच जनकात्मजा। अश्रुपूणषमुखी दीना, बाष्पसन्न्दग्धभापर्णी।।5.67.33।। ममोत्पतनसम्भ्रान्ता ,शोकवेगसमाहता। हनुमन्भसंहसंकाशा-वुभौ तौ िामलक्ष्मणौ।।5.67.34।। सुग्रीवञ्जच सहामात्यं, सवाषन्ब्रूिा ह्यनामयम्। यिा च स महाबाहु-मां तारियत िाघवः।
47.
47 अस्माद्दुःखाम्बुसंिोधा-त्त्वं समाधातुमहगमस।।5.67.35।। इमं च
तीव्रं मम शोकवेगं , िक्षोभभिेभभः परिभत्सषनं च। ब्रूिास्तु िामस्य गतस्समीपम्, भशवश्च तेऽववास्तु हरिप्रवीि।।5.67.36।। एतत्तवायाष नृपिाजभसंह , सीता वचः प्राह पवर्ादपूवषम्। एतच्छ्रच बुद्ववा गहदतं मया त्वं, श्रद्धत्स्व सीतां क ु शलां समग्राम्।।5.67.37।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे सप्तर्न्ष्टतमस्सगषः।।
48.
48 अटिषष्टितमस्सर्गः Hanuman describes to
Rama the manner in which he warded off Sita's doubts regarding monkeys' crossing the ocean and rescuing her 48
49.
49 अिाहमुत्तिं देव्या ,पुनरुक्तस्ससम्भ्रमम्। तव
स्नेहान्निव्याघ्र ,सौहादाषदनुमान्य वै।।5.68.1।। एवं बहुपवधं वाच्छ्रयो ,िामो दाशिथिस्त्वया। यिा मामाप्नुिाच्छीघ्रं ,हत्वा िावणमाहवे।।5.68.2।। यहद वा मन्िसे वीि ,वसैकाहमरिन्दम। कन्स्मंन्श्चत्संवृते देशे, पवक्रान्तश्श्वो र्ममटिमस।।5.68.3।। मम चाप्यल्पभाग्याया-स्सान्न्नवयात्तव वीयषवन्। अस्य शोकपवपाकस्य, मुहूतं स्िाद्विमोक्षणम्।।5.68.4।। गते हह त्वतय पवक्रान्ते, पुनिागमनाय वै। प्राणानामपप सन्देहो, मम स्िान्नात्र संशयः।।5.68.5।।
50.
50 तवादशषनजश्शोको, भूयो मां
िररताििेत्। दुःखाद्दुःखपिाभूतां, दुगषतां दुःखभाथगनीम्।।5.68.6।। अयं च वीि सन्देह-ष्स्तटठतीव ममाग्रतः। सुमहांस्त्वत्सहायेर्ु, हयृषक्षेर्ु हिीश्वि।।5.68.7।। किं नु खलु दुष्पािं, तररटिष्न्त महोदथधम्। तातन हयृषक्षसैन्यातन, तौ वा निविात्मजौ।।5.68.8।। त्रयाणामेव भूतानां, सागिस्यास्य लङ्घने। शन्क्तस्स्याद्वैनतेयस्य, तव वा मारुतस्य वा।।5.68.9।। तदन्स्मन्कायषतनयोगे, वीिैवं दुिततक्रमे। ककं िश्िमस समाधानं, ब्रूहह कायषपवदां विः।।5.68.10।।
51.
51 काममस्य त्वमेवैकः, कायषस्य
परिसाधने। पयाषप्तः पिवीिघ्न, यशस्यस्ते बलोदयः।।5.68.11।। बलैस्समग्रैयषहद मां, हत्वा िावणमाहवे। पवजयी स्वां पुिीं िामो, निेित्स्याद्यशस्किम ्।।5.68.12।। यिाऽहं तस्य वीिस्य, वनादुपथधना हृता। िक्षसा तद्भयादेव, तिा नाहगयत िाघवः।।5.68.13।। बलैस्तु सङ्क ु लां कृ त्वा, लङ्कां पिबलादषनः। मां निेद्िहद काक ु त्स्ि-स्तत्तस्य सदृशं भिेत ्।।5.68.14।। तद्यिा तस्य पवक्रान्त-मनुरूपं महात्मनः। भिेदाहवशूिस्य, तिा त्वमुििादि।।5.68.15।।
52.
52 तदिोपहहतं वाक्यं, प्रथश्रतं
हेतुसंहहतम्। यनशम्िाहं ततश्शेर्ं, वाक्यमुत्तिमब्रुिम्।।5.68.16।। देपव हयृषक्षसैन्याना-मीश्विः प्लवतां विः। सुग्रीवस्सत्त्वसम्पन्न-स्तवािे कृ ततनश्चयः।।5.68.17।। तस्य पवक्रमसम्पन्ना-स्सत्त्ववन्तो महाबलाः। मनस्सङ्कल्पसम्पाता, तनदेशे हियः न्स्िताः।।5.68.18।। येर्ां नोपरि नाधस्ता-न्न ततयषक्सज्जते गततः। न च कमषसु सीदष्न्त ,महत्स्वभमततेजसः।।5.68.19।। असकृ त्तैमषहाभागै-वाषनिैबषलदपपषतैः। प्रदक्षक्षणीकृ ता भूभम-वाषयुमागाषनुसारिभभः।।5.68.20।।
53.
53 मद्पवभशष्टाश्च तुल्याश्च, सष्न्त
तत्र वनौकसः। मत्तः प्रत्यविः कन्श्च-न्नाष्स्त सुग्रीवसन्न्नधौ।।5.68.21।। अहं तावहदह प्राप्तः, ककं पुनस्ते महाबलाः। न हह प्रकृ ष्टाः प्रेटिन्ते*, प्रेटिन्ते हीतिे जनाः।।5.68.22।। तदलं परितापेन, देपव मन्युव्यषपैतु ते। एकोत्पातेन ते लङ्का-मेटिष्न्त हरियूिपाः।।5.68.23।। मम पृष्ठगतौ तौ च, चन्द्रसूयाषपववोहदतौ। त्वत्सकाशं महाभागे, नृभसंहावागभमष्यतः।।5.68.24।। अरिघ्नं भसंहसङ्काशं, क्षक्षप्रं द्रक्ष्िमस िाघवम ्। लक्ष्मणं च धनुष्पाणणं, लङ्काद्वािमुपन्स्ितम ्।।5.68.25।।
54.
54 नखदंष्रायुधान्वीिान्, भसंहशादूषलपवक्रमान्। वानिान्वािणोन्द्राभान्, क्षक्षप्रं
द्रिमस सङ्गतान्।।26।। शैलाम्बुदतनकाशानां, लङ्कामलयसानुर्ु। नदषतां कपपमुख्याना-मथचिाच्रोटिमस स्वनम ्।।5.68.27।। तनवृत्तवनवासं च, त्वया साधषमरिन्दमम्। अभभपर्क्तमयोवयायां, क्षक्षप्रं द्रक्ष्िमस िाघवम्।।5.68.28।। ततो मया वान्ग्भिदीनभापर्णा, भशवाभभरिष्टाभभिभभप्रसाहदता। जर्ाम शान्न्तं मम मैथिलात्मजा, तवापप शोक े न तदाभभपीडडता।।5.68.29।। इत्यार्े श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आहदकाव्ये सुन्दिकाण्डे अष्टर्न्ष्टतमस्सगषः।।
55.
55 श्रीमहाभारततात्ििगयन्गिे श्रीरामचररते हनूमत्प्रयतिानं नाम सप्तमोऽध्िािः 55
56.
56 िामाय शाश्वतसुपवस्तृतर्ड्गुणाय, सवेश्विाय सुखसािमहाणषवाय। नत्वा
भललङ्घतयर्ुिणषवमुत्ििात, तनष्पीड्य तं थगरिविं पवनस्य सूनुः।।१।। चुिोभ वारिथधरनुप्रििौ च शीघ्रं , यादोगणैः सह तदीयबलाभभकृ ष्टः । वृक्षाश्च पवषतगताः पवनेन पूवं , क्षक्षप्तोऽणषवे थगरिरुदागमदस्य हेतोः।।२।। स्यालो हिस्य थगरिपक्षपवनाशकाले, क्षक्षप्त्वाऽणषवे स मरुतोवषरितात्मपक्षः। हैमो थगरिः पवनजस्य तु पवश्रमािष- मुद्भभद्य वारिथधमवद्षधदनेकसानुः।।३।।
57.
57 नैवात्र पवश्रमणमैच्छत तनः
श्रमोऽसौ, तनः सीमपौरुर्गुणस्य क ु तः श्रमोऽस्य। आन्श्लष्य पवषतविं स ददशग गच्छ्रिन्, देवैस्तु नागजननीं प्रहहतां विेण ।।४।। न्जज्ञासुभभतनषजबलं तव भक्षमेतु , यद्यत्त्वममच्छमस तहदत्यमिोहदतायाः। आस्यं प्रपवश्य सपहद प्रपवतनः सृतोऽस्मा- द्देवाननन्दयदुत स्वृतमेर्ु िक्षन्।।५।। दृष््वा सुिप्रणतयतां बलमस्य चोग्रं , देवाः प्रतुष्टुवुिमुं सुमनोभभवृष््या। तैिादृतः पुनिसौ पवयतैव गच्छ्रिन्, िायाग्रहं प्रयतददशग च भसंहहकाख्यम ्।।६।।
58.
58 लङ्कावनाय सकलस्य च
तनग्रहेऽस्याः , सामर्थयषमप्रततहतं प्रददौ पवधाता। िायामवाक्षक्षपदसौ पवनात्मजस्य , सोऽस्याः शिीिमनुपवश्य त्रबभेद चाऽशु।।७।। तनस्सीममात्मबलभमत्यनुदशषयानो , हत्वैव तामपप पवधातृविाभभगुप्ताम ्। लम्बे स लम्बभशखिे यनििात लङ्का- प्राकािरूपकथगिावि सञ्चुकोच।।८।। भूत्वा त्रबलाळसभमतो तनभश तां पुिीं च, प्राप्स्यन्ददशग तनजरूपवतीं स लङ्काम ्। रुद्धोऽनयाऽश्वि पवन्जत्य च तां स्वमुन्ष्ट- पपष्टां तयाऽनुमत एव वििेश लङ्काम ्।।९।।
59.
59 मागषमाणो बहहश्चान्तः, सोऽशोकवतनकातळे। ददशग
भशंशपावृक्ष-मूलन्स्ितिमाकृ ततम ्।।१०।। निलोकपवडम्बस्य ,जानन्िामस्य हृद्गतम्। तस्य चेष्टानुसािेण, कृ त्वा चेष्टाश्च संपवदः। तादृक्चेष्टासमेताया ,अङ्गुलीयमदाितः।।११।। सीताया यातन चैवाऽस-न्नाकृ तेस्तातन सवषशः। भूर्णातनद्पवधा भूत्वा ,तान्येवाऽसंस्तिैव च।।१२।। अि चूडामणणं हदव्यं ,दातुं िामाय सा ददौ। यद्यप्येतन्न िश्िष्न्त, तनशाचिगणास्तु ते। द्युलोकचारिणः सवं, िश्िन्त्िृर्य एव च।।१३।।
60.
60 तेर्ां पवडम्बनायैव, दैत्यानां
वञ्जचनाय च। पश्यतां कभलमुख्यानां, पवडम्बोऽयं कृ तो भिेत ्।।१४।। कृ त्वा कायषभमदं सवं, पवशङ्कः पवनात्मजः। आत्मापवष्किणे थचत्तं, चक्र े मततमतां विः।।१५।। अि वनमणखलं त-द्रावणस्यावलुप्य क्षक्षततरुहभमममेक ं -वजषतयत्वाऽऽशु वीिः। िजतनचिपवनाशं ,काङ्क्षमाणोऽततवेलं मुहुिततिवनादी ,तोिणं चाऽऽरुरोह।।१६।। अथाशृ्ोद्दशाननः ,कपीन्द्रचेन्ष्टतं पिम ्। हददेश ककङ्किान् बहून्, कपपतनषगृह्यताभमतत।।१७।।
61.
61 समस्तशो पवमृत्यवो, विाद्धिस्य
ककङ्किाः। समासदन्महाबलं, सुिान्तिात्मनोऽङ्गजम ्।।१८।। अशीततकोहटयूिपं, पुिस्सिाष्टकायुतम ्। अनेकहेततसङ्क ु लं ,कपीन्द्रमािृ्ोद्बलम ्।।१९।। समावृतस्तिाऽयुधैः, स ताडडतश्च तैभृषशम ्। चकार तान्समस्त-शस्तळप्रहािचूणणषतान्।।२०।। पुनश्च मन्न्त्रपुत्रकान्, स िावणप्रचोहदतान्। ममदग सप्त पवषत-प्रभान्विाभभिक्षक्षतान्।।२१।। बलाग्रगाभमनस्तिा, सशवषवाक्सुगपवषतान्। तनहत्य सवषिक्षसां, तृतीयभागमक्षि्ोत्।।२२।।
62.
62 अनौपमं हिेबषलं, तनशम्य
िाक्षसाथधपः। क ु मािमक्षमात्मनः, समं सुतं न्ििोजित्।।२३।। स सवषलोकसाक्षक्षणः, सुतं शिैिगिषग ह। भशतैवषिास्त्रमन्न्त्रतै-नष चैनमभ्िचालित्।।२४।। स मण्डमवयकासुतं, समीक्ष्य िावणोपमम ्। तृतीय एर् चां शको, बलस्य हीत्यथचन्तयत्।।२५।। तनधायष एव िावणः, स िाघवस्य नान्यिा। यदीन्द्रन्जन्मया हतो, न चास्य शन्क्तिीक्ष्यते।।२६।। अतस्तयोः समो मया, तृतीय एर् हन्िते। पवचायष चैवमाशु तं, पदोः प्रगृह्य िुप्लुिे।।२७।
63.
63 स चक्रवद्भ्रमातुिं, पवधाय
िावणात्मजम ्। अपोियद्धिातळे, क्षणेन मारुती तनुः।।२८।। पवचूणणषते धिातळे, तनजे सुते स िावणः। तनशम्य शोकतापपत-स्तदग्रजं समाहदशत्।।२९।। अिेन्द्रन्जन्महाण्स-िैवषिास्त्रसम्प्रयोन्जतैः। तति वानिोत्तमं, न चाशकद्विचालने।।३०।। अिास्त्रमुत्तमं विधे-िुगिोज सवषदुष्र्हम ्। स तेन ताडडतो हरि-व्यषथचन्तयन्न्निाक ु लः।।३१।। मया विा पवलङ्तघता, ह्यनेकशः स्वयम्भुवः। स माननीय एव मे, ततोऽत्र मानिाम्िहम ्।।३२।।
64.
64 इमे च क ु
िुगरत्र ककं , प्रहृष्टिक्षसां गणाः। इतीह लक्ष्यमेव मे, स िावणश्च दृश्िते।।३३।। इदं समीक्ष्य बद्धव-न्त्स्ितं कपीन्द्रमाशु ते। बबन्धुरन्यपाशक ै -जगर्ाम चास्त्रमस्य तत्।।३४।। अि प्रगृह्य तं कपपं, समीपमानयंश्च ते। तनशाचिेश्विस्य तं, स पृष्टवांश्च िावणः।।३५।। कपे क ु तोऽमस कस्य ,वा ककमिषमीदृशं कृ तम ्। इतीरितः स चािद-त्प्रणम्य िाममीश्विम ्।।३६।। अिैहह दूतमागतं, दुिन्तपवक्रमस्य माम ्। िघूत्तमस्य मारुततं, क ु लक्षये तवेश्विम ्।।३७।।
65.
65 न चेत्प्रदास्िमस त्विन्,
िघूत्तमपप्रयां तदा। सपुत्रभमत्रबान्धवो, पवनाशमाशु िास्िमस।।३८।। न िामबाणधािणे, क्षमाः सुिेश्विा अपप। पवरिन्ञ्जचशवषपूवषकाः, ककमु त्वमल्पसािकः।।३९।। प्रकोपपतस्य तस्य कः, पुिन्स्ितौ क्षमो भिेत्। सुिासुिोिगाहदक े , जगत्यथचन्त्यकमषणः।।४०।। इतीरिते वधोद्यतं, न्यवाियद्पवभीर्णः। स पुच्छ्रिदाहकमषणण, न्ििोजिष्न्नशाचिान्।।४१।। अिास्य वस्त्रसञ्जचयैः, पपधाय पुच्छ्रिमग्नये। ददुदगदाह नास्य त-न्मरुत्सखो हुताशनः।।४२।।
66.
66 ममषग सवषचेन्ष्टतं, स
िक्षसां तनिामयः। बलोद्धतश्च कौतुका-त्प्रदग्धुमेव तां पुिीम ्।।४३।। ददाह चाणखलं पुिं,स्वपुच्छ्रिगेन वन्ह्नना। कृ ततस्तु पवश्वकमषणो-ऽप्यदह्यतास्य तेजसा।।४४।। सुवणषित्नकारितां ,स िाक्षसोत्तमैः सह। प्रदह्य सवषशः पुिीं, मुदाऽन्न्वतो जर्जग च।।४५।। स िावणं सपुत्रक ं , तृणोपमं पवधाय च। तयोः प्रपश्यतोः पुिं, पवधाय भस्मसाद्ििौ।।४६।। पवलङ्घ्य चाणषवं पुनः, स्वजाततभभः प्रपून्जतः। प्रभक्ष्य वानिेभशतु-मषधु प्रभुं समेतयवान्।।४७।।
67.
67 िामं सुिेश्विमगण्यगुणाभभिामं , सम्प्राप्य
सवषकपपवीिविैः समेतः। चूडामणणं पवनजः पदयोतनषधाय, सवाषङ्गक ै ः प्रणततमस्य चकार भक्त्या।।४८।। िामोऽपप नान्यदनुदातुममुष्य योग्य- मत्यन्तभन्क्तपिमस्य पवलक्ष्य ककन्ञ्जचत्। स्वात्मप्रदानमथधक ं पवनात्मजस्य, क ु वषन्समान्श्लर्दमुं पिमाभभतुष्टः।।४९।। इतत श्रीमदानन्दतीिषभगवत्पादाचायषपविथचते श्रीमहाभािततात्पयषतनणषये श्रीिामचरिते हनूमत्प्रततयानं नाम सप्तमोऽवयायः
68.
68 िुद्धकाण्डे अटिाविंशत्िचधकशततमः सर्गः Ramapattabhisheka *not there
in IIT-K Site 68
69.
69 भशिस्यञ्जजभलमादाय, क ै क े
यीनन्न्दवधषनः | बभाषे भितो ज्येष्ठन्, िामं सत्यपिाक्रमम्|| ६-१२८-१ पून्जता माभमका माता ,दत्तन्िाज्यभमदं मम | तद्ददामम पुनस्तुभ्यन्,यिा त्वमददा मम || ६-१२८-२ धुिमेकाककना न्यस्ता-मृर्भेण बलीयसा | ककशोिवद्गुरुं भािं ,न वोढुमहमुत्सहे || ६-१२८-३ वारिवेगेन महता ,भभन्नः सेतुरिव क्षिन्| दुबषन्धनभमदं मन्िे ,िाज्यन्च्छ्रिद्रमसंवृतम्|| ६-१२८-४ गततं खि इवाश्वस्य, हन्सस्येव च वायसः | नान्वेतुमुत्सहे देव, तव मागषमरिन्दम || ६-१२८-५
70.
70 यिा च िोपपतो
वृक्षो, जातश्चान्ततनषवेशने | महांश्च सुदुिािोहो*, महास्कन्धः प्रशाखवान ्|| ६-१२८-६ शीिेत पुन्ष्पतो भूत्वा, न फलातन प्रदशगिेत्* | तस्य नानुभिेदिषन ्,यस्य हेतोः स िोपपतः|| ६-१२८-७ एर्ोपमा महाबाहो, त्वमिं वेत्तुमहगमस | यद्यस्मान्मनुजेन्द्र त्वं ,भक्तान्भृत्यान्न* शाथध हह||६-१२८-८ जगदद्याभभपर्क्तं त्वा-मनुिश्ितु सवषतः* | प्रतपन्तभमवाहदत्यं ,मवयाह्ने दीप्ततेजसम ् || ६-१२८-९ तूयषसङ्घाततनघोर्ैः, काञ्जचीनूपुितनस्वनैः | मधुिैगीतशब्दैश्च, प्रततबुवयस्व शेष्व च || ६-१२८-१०
71.
71 यावदाितगते चक्र ं ,
यावती च वसुन्धिा | तावत्त्वभमह सवषस्य*, स्वाभमत्वममभितगि* || ६-१२८-११ भितस्य वचः श्रुत्वा, िामः पिपुिञ्जजयः | तिेतत प्रयतजग्राह, तनर्सादासने शुभे || ६-१२८-१२ ततः शत्रुघ्नवचना-न्न्नपुणाः श्मश्रुवधषकाः | सुखहस्ताः सुशीघ्राश्च, िाघवं ििुगिासत* || ६-१२८-१३ पूवं तु भिते स्नाते ,लक्ष्मणे च महाबले | सुग्रीवे वानिेन्द्रे च, िाक्षसेन्द्रे पवभीर्णे || ६-१२८-१४ पवशोथधतजटः स्नात-न्श्चत्रमाल्यानुलेपनः | महाहषवसनोपेत-स्तस्थौ तत्र थश्रया ज्वलन्|| ६-१२८-१५
72.
72 प्रततकमष च िामस्य
,कारिामास वीयषवान ्| लक्ष्मणस्य च लक्ष्मीवा-तनक्ष्वाक ु क ु लवधषनः || ६-१२८-१६ प्रततकमष च सीतायाः, सवाष दशििन्स्त्रयः | आत्मनैव तदा चक्र ु -मगनन्स्वन्यो मनोहिम ्|| ६-१२८-१७ ततो िाघवपत्नीनां ,सवाषसामेव शोभनम ्| चकार यत्नात्कौसल्या, प्रहृष्टा पुत्रवत्सला || ६-१२८-१८ ततः शत्रुघ्नवचना-त्सुमन्त्रो नाम सािथिः | योजतयत्िामभचक्राम ,ििन ्सवाषङ्गशोभनम ्|| ६-१२८-१९ अक ष मण्डलसङ्काशं*, हदव्यं दृष््वा ििं न्स्ितम ्| आरुरोह महाबाहू ,िामः सत्यपिाक्रमः* || ६-१२८-२०
73.
73 सुग्रीवो हनुमांश्चैव, महेन्द्रसदृशद्युती
| स्नातौ हदव्यतनभैवषस्त्रै-जगग्मतुः शुभक ु ण्डलौ || ६-१२८-२१ सवाषभिणजुष्टाश्च, ििुस्ताः शुभक ु ण्डलाः | सुग्रीवपत्न्याः सीता च, द्रष्टुं नगिमुत्सुकाः || ६-१२८-२२ अयोवयायान् तु सथचवा ,िाज्ञो दशििस्य च | पुिोहहतं पुिस्कृ त्य, मन्ििामासुरिषवत् || ६-१२८-२३ अशोको पवजयश्चैव, भसद्धािषश्च समाहहताः | मन्त्रयन्रामवृद्वयिषन्, वृत्त्यिं नगिस्य च || ६-१२८-२४ सवषमेवाभभर्ेकािषन्,जयाहषस्य महात्मनः | कतुषमहगथ िामस्य, यद्यन्मङ्गलपूवषकम ्|| ६-१२८-२५
74.
74 इतत ते मन्न्त्रणः
सवे, सन्न्दश्य तु पुिोहहतम ्* नगिान्न्नयषयुस्तूणं, िामदशषनबुद्धयः || ६-१२८-२६ हरियुक्तं सहस्राक्षो ,ििभमन्द्र इवानघः | प्रििौ ििमास्िाय, िामो नगिमुत्तमम ्|| ६-१२८-२७ जग्राह भितो िश्मी-ञ्जशत्रुघ्नश्ित्रमाददे | लक्ष्मणो व्यजनन्तस्य, मून्वनष सम्पयषवीजयत्* || २८ श्वेतं च वालव्यजनं ,सुग्रीवो* वानिेश्विः* | अपिं चन्द्रसङ्काशं, िाक्षसेन्द्रो पवभीर्णः || ६-१२८-२९ ऋपर्सङ्घैतषदाSSकाशे ,देवैश्च समरुद्गणैः | स्तूयमानस्य िामस्य ,शुश्रुिे मधुिववतनः || ६-१२८-३०
75.
75 ततः शत्रुञ्जजयं नाम
,क ु ञ्जजिं पवषतोपमम ्| आरुरोह महातेजाः, सुग्रीवो वानिेश्विः* || ६-१२८-३१ नव नागसहस्राणण, ििुरास्िाय वानिाः | मानुर्ं पवग्रहं कृ त्वा, सवाषभिणभूपर्ताः || ६-१२८-३२ शङ्खशब्दप्रणादैश्च, दुन्दुभीनां च तनस्वनैः | प्रययौ पुरुर्व्याघ्र-स्तां पुिीं हम्यषमाभलनीम ् || ६-१२८-३३ ददृशुस्ते समायान्तं, िाघवं सपुिःसिम ्| पविाजमानं वपुर्ा ,ििेनाततििं तदा || ६-१२८-३४ ते वधषतयत्वा काक ु त्स्िं ,िामेण प्रततनन्न्दताः | अनुजग्मुमगहात्मानं ,भ्रातृभभः परिवारितम ्|| ६-१२८-३५
76.
76 अमात्यैब्राषह्मणैश्चैव, तिा प्रकृ
ततभभवृषतः | थश्रया विरुरुचे िामो, नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः || ६-१२८-३६ स पुिोगाभमभभस्तूयै-स्तालस्वन्स्तकपाणणभभः | प्रव्याहिद्भभमुषहदतै-मषङ्गलातन ििौ वृतः* || ६-१२८-३७ अक्षतं जातरूपं च ,गावः कन्यास्तिा द्पवजाः* | निा मोदकहस्ताश्च, िामस्य पुितो ययुः || ६-१२८-३८ सख्यन्च िामः सुग्रीवे ,प्रभावं चातनलात्मजे | वानिाणां च तत्कमष, व्िाचचिेSि* मन्न्त्रणाम्|| ६-१२८-३९ श्रुत्वा च पवस्मयं जग्मु-रयोवयापुिवाभसनः | वानिाणां च तत्कमष, िाक्षसानां च तद्बलम्|
77.
77 पवभीर्णस्य संयोग-माचचिेऽि मन्न्त्रणाम
्||६-१२८-४० द्युततमानेतदाख्याय, िामो वानिसंवृतः* | हृष्टपुष्टजनाकीणाष-मयोवयां प्रवििेश ह* || ६-१२८-४१ ततो ह्यभ्युच्छ्ररयन्पौिाः, पताकास्ते गृहे गृहे | ऐक्ष्वाकावयुपर्तन्िम्य-माससाद पपतुगृषहम ्|| ६-१२८-४२ अथाब्रिीद्राजपुत्रो, भितं धभमषणां विम ्| अिोपहहतया वाचा, मधुिं िघुनन्दनः || ६-१२८-४३ पपतुभषवनमासाद्य, प्रपवश्य च महात्मनः | कौसल्यां च सुभमत्रां च ,क ै क े यीं चाभ्ििादित्|| ६-१२८-४४ तच्छ्रच मद्भवनं श्रेष्ठं ,साशोकवतनक ं महत्|
78.
78 मुक्तावैदूयषसङ्कीणषन्, सुग्रीवस्य यनिेदि
|| ६-१२८-४५ तस्य तद्वचनन्श्रुत्वा, भितः सत्यपवक्रमः | हस्ते गृहीत्वा सुग्रीवं, प्रवििेश तमालयम्|| ६-१२८-४६ ततस्तैलप्रदीपांश्च, पयषङ्कास्तिणातन च | गृहीत्वा पवपवशुः क्षक्षप्रं, शत्रुघ्नेन प्रचोहदताः || ६-१२८-४७ उिाच च महातेजाः, सुग्रीवं िाघवानुजः | अभभर्ेकाय िामस्य, दूतानाज्ञािि प्रभो || ६-१२८-४८ सौवणाषन्वानिेन्द्राणां , चतुणां चतुिो घटान्| ददौ क्षक्षप्रन्स सुग्रीवः, सवषित्नपवभूपर्तान्|| ६-१२८-४९ यिा प्रत्यूर्समये ,चतुणां सागिाम्भसाम्|
79.
79 पूणैघषटैः प्रतीक्षववन्, तिा
क ु रुत वानिाः || ६-१२८-५० एवमुक्ता महात्मानो ,वानिा वािणोपमाः | उत्िेतुर्गगनं शीघ्रं ,गरुडा इव शीघ्रगाः || ६-१२८-५१ जाम्बवांश्च हनूमांश्च ,वेगदशी च वानिः | ऋर्भश्चैव कलशा-ञ्जजलपूणाषनिानयन् || ६-१२८-५२ नदीशतानां पञ्जचानान्,जले क ु म्भैरुपाहिन्| पूवाषत्समुद्रात्कलशन्, जलपूणषमथानित्|| ६-१२८-५३ सुर्ेणः सत्त्वसम्पन्नः ,सवषित्नपवभूपर्तम ्| ऋर्भो दक्षक्षणात्तूणषन्,समुद्राज्जलमाहरत्* || ६-१२८-५४ िक्तचन्दनकपूषिैः ,सन्वृतन्काञ्जचनं घटम ्|
80.
80 गवयः पन्श्चमात्तोय-माजहार महाणषवात्||
६-१२८-५५ ित्नक ु म्भेन महता ,शीतं मारुतपवक्रमः | उत्तिाच्छ्रच जलं शीघ्रं ,गरुडातनलपवक्रमः || ६-१२८-५६ आजहार स धमाषत्मा ,नलः* सवषगुणान्न्वतः | ततसैवाषनिश्रेष्ठै-िानीतं प्रेक्ष्य तज्जलम्|| ६-१२८-५७ अभभर्ेकाय िामस्य ,शत्रुघ्नः सथचवैः सह | पुिोहहताय श्रेष्ठाय, सुहृद्भ्यश्च न्ििेदित्|| ६-१२८-५८ ततः स प्रयतो वृद्धो, वभसष्ठो ब्राह्मणैः सह | िामं ित्नमयो पीठे, ससीतं संन्ििेशित्|| ६-१२८-५९ वभसष्ठो वामदेवश्च, जाबाभलिि काश्यपः |
81.
81 कात्यायनः सुयज्ञश्च, गौतमो
पवजयस्तिा || ६-१२८-६० अभ्यपर्ञ्जचन्निव्याघ्रं ,प्रसन्नेन सुगन्न्धना | सभललेन सहस्राक्षं , वसवो वासवं यिा || ६-१२८-६१ ऋन्त्वन्ग्भब्राषह्मणैः पूवं, कन्याभभमषन्न्त्रभभस्तिा| योधैश्चैवाभ्यपर्ञ्जचन्स्ते ,सम्प्रहृष्टाःसनैगमैः ||६-१२८-६२ सवौर्थधिसैश्चापप, दैवतैनषभभस न्स्ितैः | चतुहहषलोकपालैश्च*, सवैदेवैश्च सङ्गतैः || ६-१२८-६३ ब्रह्मणा तनभमषतं पूवं, ककिीटं ित्नशोभभतम ्| अभभपर्क्तः पुिा येन ,मनुस्तं दीप्ततेजसम ्|| ६-१२८-६४ तस्यान्ववाये िाजानः, क्रमाद्येनाभभर्ेथचताः |
82.
82 सभायां हेमक्लुप्तायां, शोभभतायां
महाधनैः || ६-१२८-६५ ित्नैनाषनापवधैश्चैव, थचत्रत्रतायां सुशोभनैः | नानाित्नमये पीठे ,कल्पतयत्वा यिापवथध || ६-१२८-६६ ककिीटेन ततः पश्चा-द्वभसष्ठेन महात्मना | ऋन्त्वन्ग्भभूषर्णैश्चैव ,समिोक्ष्ित िाघवः || ६-१२८-६७ ित्रं तस्य च जग्राह, शत्रुघ्नः पाण्डुिं शुभम ्| श्वेतं च वालव्यजनं, सुग्रीवो वानिेश्विः || ६-१२८-६८ अपिन्चन्द्रसङ्काशं, िाक्षसेन्द्रो पवभीर्णः | मालां ज्वलन्तीं वपुर्ा, काञ्जचनीं शतपुष्किाम ्|| १२८-६९ िाघवाय ददौ वायु-वाषसवेन प्रचोहदतः |
83.
83 सवषित्नसमायुक्तं, मणणित्नपवभूपर्तम्*|| ६-१२८-७० मुक्ताहािं
निेन्द्राय, ददौ शक्रप्रचोहदतः | प्रजर्ुदेवगन्धवाष, ननृतुश्चाप्सिो गणाः || ६-१२८-७१ अभभर्ेक े तदहषस्य, तदा िामस्य धीमतः | भूभमः सस्यवती चैव, फलवन्तश्च पादपाः || ६-१२८-७२ र्न्धिष्न्त च पुष्पाणण, बभूिू िाघवोत्सवे | सहस्रशतमश्वानां ,धेनूनां च गवां तिा || ६-१२८-७३ ददौ शतवृर्ान्पूवषन्, द्पवजेभ्यो मनुजर्षभः | त्रत्रंशत्कोटीहहषिण्यस्य, ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुनः || ६-१२८-७४ नानाभिणवस्त्राणण ,महाहाषणण च िाघवः |
84.
84 अक ष िन्श्मप्रतीकाशां, काञ्जचनीं
मणणपवग्रहाम ्|| ६-१२८-७५ सुग्रीवाय स्रजं हदव्यां, प्रायच्छ्रिन्मनुजर्षभः* | वैदूयषमणणथचत्रे* च ,वज्रित्नपवभूपर्ते* || ६-१२८-७६ वाभलपुत्राय धृततमा-नङ्गदायाङ्गदे ददौ | मणणप्रविजुष्टं च, मुक्ताहािमनुत्तमम ् || ६-१२८-७७ सीतायै प्रददौ िाम-श्चन्द्रिन्श्मसमप्रभम ् | अिजे वाससी हदव्ये, शुभान्याभिणातन च || ६-१२८-७८ अवेक्षमाणा वैदेही, प्रददौ वायुसूनवे | अवमुच्छ्रयात्मनः कण्ठा-द्धािं जनकनन्न्दनी || ६-१२८-७९ अिैित हिीन्सवाष-न्भताषिं च मुहुमुषहुः |
85.
85 ताभमङ्थगतज्ञः सम्प्रेक्ष्य ,बभाषे
जनकात्मजाम्|| ६-१२८-८० प्रदेहह सुभगे हािन्, यस्य तुटिामस भाभमतन | ददौ सा वायुपुत्राय, तं हािमभसतेक्षणा || ६-१२८-८१ तेजो धृततयषशो दाक्ष्यं, सामर्थयं पवनयो नयः | पौरुर्ं पवक्रमो बुद्थध-यषन्स्मन्नेतातन तनत्यदा ||| ६-१२८-८२ हनूमान्स्तेन हािेण, शुशुभे वानिर्षभः | चन्द्रांशुचयगौिेण, श्वेताभ्रेण यिाचलः || ६-१२८-८३ सवे वानिवृद्धाश्च, ये चान्ये वानिोत्तमाः | वासोभभभूषर्णैश्चैव ,यिाहं प्रततपून्जताः || ६-१२८-८४
86.
86 पवभीर्णोऽि सुग्रीवो, हनुमान्जाम्बवांस्तिा
| सवषवानिवृद्धाश्च*, िामेणान्क्लष्टकमषणा |६-१२८-८५ यिाहं पून्जताः सवे, कामै ित्नैश्च पुष्कलै: | प्रहृष्टमनसः सवे ,जग्मुरेव यिागतम ्|| ६-१२८-८६ ततो द्पवपवद मैन्दाभ्यां, नीलाय च पिन्तपः | सवाषन्कामगुणान्वीक्ष्य, प्रददौ वसुधाथधपः | ६-१२८-८७ नत्वा* सवे महात्मान-स्ततस्ते वानिर्षभाः | पवसृष्टाः पाथिषवेन्द्रेण, ककन्ष्कन्धां समुपागमन्|| ८८ सुग्रीवो वानिश्रेष्ठो, दृष््वा िामाभभर्ेचनम ् | पून्जतश्चैव िामेण, ककन्ष्कन्धां प्राविशत्िुिीम ्|| ६-१२८-८९ पवभीर्णोऽपप धमाषत्मा, सह तैनैर् ष तर्षभैः |
87.
87 लब्ववा क ु लधनं
िाजा, लङ्कां प्रायान्महायशाः || ६-१२८-९० स िाज्यमणखलं शास-न्न्नहतारिमषहायशाः िाघवः पिमोदािः, शशास पिया मुदा | उिाच लक्ष्मणं िामो, धमषज्ञं धमषवत्सलः || ६-१२८-९१ आततष्ठ धमषज्ञ मया सहेमां गां पूवषिाजावयुपर्तां बलेन | तुल्यं मया त्वं पपतृभभधृषता या तां यौविाज्ये धुिमुद्िहस्ि || | ६-१२८-९२ सवाषत्मना पयषनुनीयमानो यदा न सौभमत्रत्ररुिैयत योगम्| तनयुज्यमानोऽ पप च याविाज्ये, ततोऽभ्यपर्ञ्जचद्भितं महात्मा || ६-१२८-९३
88.
88 पौण्डिीकाश्वमेधाभ्यां ,वाजपेयेन चासकृ
त्| अन्यैश्च पवपवधैयषज्ञै-ियजत्पाथिषवर्षभः || ६-१२८-९४ िाज्यन्दशसहस्राणण, प्राप्य वर्ाषणण िाघवः | शताश्वमेधानाजह्रे, सदश्वान्भूरिदक्षक्षणान् || ६-१२८- ९५ आजानुलन्म्बबाहुश्च, महास्कन्धः प्रतापवान्| लक्ष्मणानुचिो िामः, पृथिवीमन्ििालित्* || ६-१२८-९६ िाघवश्चापप धमाषत्मा, प्राप्य िाज्यमनुत्तमम ्| ईजे बहुपवधैयषज्ञैः, ससुतभ्रातृबान्धवः || ६-१२८-९७ न पयषदेवन्न्वधवा, न च व्यालकृ तं भयम ्| न व्याथधजं भयं वापप, िामे िाज्यं प्रशासयत || ६-१२८-९८
89.
89 तनदषस्युिभवल्लोको ,नानिषः कन्श्चदस्पृशत्| न
च स्म वृद्धा बालानां, प्रेतकायाषणण क ु िगते || ६-१२८-९९ सवं मुहदतमेिासी-त्सवो धमषपिोऽभित्| िाममेवानुपश्यन्तो ,नाभ्यहहन्सन्पिस्पिम् || ६-१२८-१०० आसन्वर्षसहस्राणण, तिा पुत्रसहभस्रणः | तनिामया पवशोकाश्च, िामे िाज्यं प्रशासयत || ६-१२८-१०१ िामो िामो िाम इतत, प्रजानामभिन्किाः | िामभूतं जगदभू-द्रामे िाज्यं प्रशासयत || ६-१२८-१०२ तनत्यपुष्पा* तनत्यफला-स्तिवः स्कन्धपवस्तृताः* | कालवर्ी* च पजषन्यः, सुखस्पशषश्च मारुतः || ६-१२८-१०३
90.
90 ब्राह्मणाः क्षत्रत्रया वैश्याः,
शूद्रा लोभपववन्जषताः | स्वकमषसु प्रितगन्ते, तुष्ठाः स्वैिेव कमषभभः || ६-१२८-१०४ आसन्प्रजा धमषपिा ,िामे शासयत नानृताः | सवे लक्षणसम्पन्नाः, सवे धमषपिायणाः || ६-१२८-१०५ दशवर्षसहस्राणण, दशवर्षशतातन च | भ्रातृभभःसहहतःश्रीमा-न्रामो िाज्यमकारित् |६-१२८-१०६ धम्यं यशस्यमायुष्यं, िाज्ञां च पवजयावहम ्| आहदकाव्यभमदं चार्ं ,पुिा वाल्मीककना कृ तम ्|| १०७ पठेद्यः शृणुयाल्लोक े *, निः पापात्प्रमुच्िते | पुत्रकामश्च पुत्रान्वै, धनकामो धनातन च || ६-१२८-१०८ लभते मनुजो लोक े , श्रुत्वा िामाभभर्ेचनम ् |
91.
91 महीं विजिते िाजा,
रिपूंश्चाप्िचधयतटठयत || ६-१२८-१०९ िाघवेण यिा माता, सुभमत्रा लक्ष्मणेन च | भितेन च क ै क े यी, न्जवपुत्रास्तिा न्स्त्रयः || ६-१२८-११० भविटिष्न्त सदानन्दाः, पुत्रपौत्रसमन्न्वताः | श्रुत्वा िामायणभमदं, दीघषमायुश्च विन्दयत || ६-१२८-१११ िामस्य पवजयं चैव ,सवषमन्क्लष्ठकमषणः | शृ्ोयत य इत्दं काव्यं, पुिा वाल्मीककना कृ तम्|| ६-१२८-११२ श्रद्दधानो न्जतक्रोधो, दुगाषण्ियततरत्िसौ | समागम्य प्रवासान्ते, रमन्ते सह बान्धवैः || ६-१२८-११३ शृण्िष्न्त य इदं काव्यं, पुिा वाल्मीककना कृ तम्|