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जीवन म उठने वाले मौ लक न
​ जीवन म उठने वाले मौ लक न
गीता एक ऐसा ंथ है िजसके उपदेश हमारे रोजमरा के जीवन के लए अ तशय उपादेय ह, अजुन के मन म मानव
जीवन को लेकर तरह तरह के न उठ खड़े हुए थे उन न के भगवान ी कृ ण ने जो उ र दान कए ह, वह हमारे
लए भी अ यंत योजनीय है, न और उ र ह गीता शा का नमाण करते ह/
अजुन जीव का त न ध व करते ह, हम संसार म जीवनयापन करते ह, संसार म हमारे सामने अनेक सम याएं आती ह
और हमारे मन म अनेक न का उदय होता है, हम इन सम याओं का उ र पाना चाहते ह यह हमारे जीवन क मौ लक
सम याएं ह मनु य के वल रोट से ह संतु ट नह ं होता यह सह है क मनु य को रोट क ज रत होती है, उसे देने के लए
कपड़े क आव यकता होती है और अपना सर छु पाने के लए एक नवास एक छत का योजन होता है, पर जब यह
ज रत पूर हो जाती है तब मन के लए खा य जुटाना आव यक हो जाता है मान सक भोजन क पू त धा मक सं दाय
के वारा क जाती है हम देखते ह क संसार म अनेकानेक धम सं दाय का वकास हुआ है यह व भ न धम सं दाय
इस लए खड़े हुए ह क यह मनु य के मन क भूख हो तरह-तरह से मटा सके एक ह सं दाय सभी लोग के मन क भूख
को नह ं मटा सकता इस लए व भ न धम सं दाय का ज म हुआ है हम देखते ह क जब कोई नया सं दाय ग ठत होता
है तो अनेक लोग उसके अनुयायी हो जाते ह इसका ता पय है क पहले के सं दाय उनक मान सक भूख को शांत नह ं
कर सके थे नया सं दाय उनक मान सक रोग का समाधान तुत करता है यह कारण है क नए नए सं दाय प ल वत
और वक सत होते रहते ह,
मानव जीवन म जो ज टलताएं आ सकती ह, मनु य के मन म जीवन को लेकर जो न उ दत हो सकते ह वह ज टलताएं
और न अजुन के मा यम से गीता म अ भ य त है इस लए अजुन को जीव का त न ध कहा गया है भगवान कृ ण
उन न क मीमांसा करते ह/
अजुन महाबल है नर के अवतार कहे गए ह तथा उनका च ण से महनीय यि त के प म हुआ है पर यह अजुन भी
संशय से त होते ह जीवन क इस पहेल का या रह य है? संसार म आने जाने का यह म शा वत है? या इसका अंत
कया जा सकता है? हमारे जीवन का या योजन है? यह कु छ ऐसे न ह जो वाभा वक प से सबके मन म उठा
करते ह इन न का उठना बुरा नह ं है बि क य द एक न ना उठे तो समझना चा हए क मनु य क उ न त कह ं
अव ध हो रह है/
मानव जीवन या है? मानव जीवन इसी न को समझाने का यास है जब तक यि त के मन के न सुलझ नह ं
जाती तब तक वह आगे नह ं बढ़ पाता यह ज र नह ं क हमारे न दाश नक ह हो एक छोटा सा न भी हम आगे
बढ़ने क ेरणा दे सकता है एक छोटा सा न हमारे मन म जगा क हमारे जीवन का योजन या है? तो समझ ल िजए
क कृ त माता क कृ पा हो गई हम भले ह संसार के कम म डूबकर इन न को भुला देना चाहते ह पर कभी ना कभी
यह न हमारे मन म जगते ह और हम अपने आप से पूछते ह क हम आ खर या पाना चाहते ह? अंत म हम कहां
जाएंगे? इन न का उ र पाने के लए हमारा मन याकु ल हो जाता है के वल भारत जैसे अ या म वण देश के
यि तय के मन म ह यह न नह ं उठते बि क व ान क रोशनी से चकाच ध हुए पि चमी देश क जनता के मन म
भी ऐसे न उठा करते ह, ऐसे देश ह जहां व ान के सहारे मनु य कृ त के रह य म स य को उ घा टत कर रहा है इन
देश म भी एक न मनु य के मन म खलबल मचा रहा है, वह यह क मानव जीवन का अ भ ाय या है? हमारे जीवन
का योजन या है?
नोबेल पुर कार वजेता अलेि सस कै रल ने पु तक लखी है उसका नाम है "मैन द अननोन" इस ंथ म हुए मानव
मन म उठने वाले न का उ लेख करते ह वे बताते ह क मनु य के दोन का पहला प तो वह है जो जाना हुआ है जो
ात है और दूसरा प वह है जो अब तक जाना ह नह ं गया है मनु य का जाना हुआ प या है? यह क उसक लंबाई
कतनी है, उसक ऊं चाई कतनी है उसका रंग प और उसका बाहर न शा कै सा है या मनु य का जाना हुआ प है पर
यह प बहुत अ प है इसके अ त र त उसका अजाना प जो बहुत व तृत है हमारा बहुत सा भाग ऐसा है जो अजाना है
और इस अजाने प को जानने क या ह जीवन क या है जो अजाना है उसे जानने का यास ह जीवन है/
तो या हम अपने आपको नह ं जानते, नह ं हम अपने आपको नह ं जानते अलेि सस कै रल कहते ह क मनु य के वल
अपने एक अंश को ह जानता है, और वह अंश अ यंत ह छोटा या अ प है वह अपने बहुलांश को नह ं जानता वह अजाना
है इसी अजाने प को जानने का आ वान उप नषद करते ह/
भारत म इस न पर वचार कया गया है क अपने आप को हम कै से जाने अपनी इं य के सहारे हम अपने शर र का
ान ा त करते ह, हम आंख से देखते ह, कान से सुनते ह, वचा से पश करते ह, रसना सफ वाद लेते ह, नाक से
ाण लेते ह/ इन व भ न इं य के वारा हम मनु य के ात प को ह जानते ह, पर मनु य का अ ात प इं य से
नह ं जाना जा सकता, ऋ षय ने व लेषण कया क हम िजतना जानते ह, वह मन के वारा ह जानते ह पर मन को हम
नह ं जानते मन म वचार उ प न होते ह और उससे ान क ाि त होती है, पर मन या है? मन को जानो उसे टटोलो
उसे समझने का यास करो भारत म ऋ षय ने मन के वभाव को समझना चाहा उ ह ने उस मन को जानने का यास
कया िजससे सु त रहते सुख-दुख क वेदना नह ं होती और िजसके जागते ह सम त कार क संवेदनाएं होने लगते ह
वह नरंतर मन का शोध करते रहे और एक दन आया जब उ ह ने मन को समझ लया उ ह ने उस व ध का आ व कार
कर लया िजससे मन को जाना जा सकता है मन को जानने क इस व ध को योग कहा गया है।
गीता योगशा
​गीता योगशा
गीता मन को जानने क व या है उसे योगशा भी कहा गया है मह ष पतंज ल ने जब अपना यात योगसू लखा
तब पहले उ ह ने योग क प रभाषा द योग या है पतंज ल कहते ह "योग वह उपाय है िजससे च क वृ याँ न ध हो
जाती है " अभी तो हमारे मन क वृ यां वाह मान है, िजस कार न दया नाले म जल बहता है उसी कार मन भी
अ भराम ग त से बह रहा है हमारे जानते एक ण ऐसा नह ं आता जब मन वचार से शू य रहता हो/ जब हम सोते ह
और सपना देखते ह तब भी हमारा मन वाह मान रहता है हम सपने म जो य देखते ह वह मन के वाह के कारण ह
संभव हो पाता है, के वल सुषुि त क दशा म व न वह न गाढ़ न ा क दशा म ह हमारा मन कु छ समय के लए ि थर
और शांत होता है, अ छा जब सुसु त म हमारा मन शांत होता है जब मन का वाह कु छ देर के लए बंद होता है तब या
हम उसके वभाव को जान सकते ह नह ं य क जो जानने वाला बन है वह सोया रहता है सुषु त के अ त र त अ य
सभी समय मन का भाव अ भराम प से बहता रहता है मन के इस वाह को ान पूवक रोकना ह योग है/
बाहर से हम बहने वाल न दयां नाले के वाह क ती ता को नह ं जान पाते हम उसक ती ता और स य का बोध तब
होता है जब हम उसे बांधते ह, जो लोग नद या नाले के वाह को बांधते ह वह ं उसके भेद को जानते ह, इस कार हम
अपने मन के वाह क स य का बोध तब तक नह ं होता जब तक वह बहता रहता है, और उसके साथ हम भी बहते रहते
ह, हम तब तक या नह ं जानते क मन के इस वाह म कतनी शि त छपी हुई है/
एक बार म गंगा के तीर पर नान कर रहा था, म कोई तैराक नह ं था बचपन म गांव के तालाब म हाथ पैर मार लया
करता था, मने तीर पर ह थोड़ा पैर मार कर देखा मुझे लगा क म तो गंगा म अ छ तरह से तैर सकता हूं य क मुझे
आगे बढ़ने म कोई क ठनाई नह ं हुई म आगे बढ़ा थोड़ी दूर जाने पर कनारे पर खड़ा हुआ एक यि त च लाया आगे मत
जाओ बहुत गहराई है मने वहां पर जल क थाह ल पता चला क वहां तो जल अथाह है, म वापस लौटा और 5 मनट
तक हाथ पैर मारने पर भी म मुि कल से 1-2 गज वापस लौट सका इसका कारण यह था क जब म कनारे से गंगा म तैर
रहा था तब म वाह के साथ था पर वापस लौटते समय म वाह के वपर त पड़ गया था, जब म गंगा के वाह के साथ
बढ़ रहा था तब मुझे उसक ताकत का बोध नह ं हुआ पर जब म वापस लौटने का यास करने लगा तब पता चला क
वाह कतना तेज है, म वाह क उलट दशा म तैर ह न सका जब म फर से वाह के साथ आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे
वाह को काटते हुए कोई 100 गज क दूर पर कनारे लगा, यह बात मन के वाह के साथ लागू होती है/
योग मन के वाह को बांधने क व या
योग मन के वाह को बांधने क व या
योग मन के वाह को बांधने क व ध है। योग क प रभाषा म कहा गया है क च क वृ य के नरोध का नाम ह
योग है। च क वृ यां कभी ि थर नह ं रहती वह सदैव चंचल रहती ह इन वाह मान च वृ य को बांधना अ यंत
दु कर काय है तथा प च वृ य को बांधने पर ह मन को जाना जा सकता है इसके लए मन को रोकना होगा वचार के
सहारे वचार को काटना होगा। वचार के वारा ह वचार के ऊपर उठना होगा। यह व ध है। यह व ध सुनने म बड़ी
पहेल सी लगती है वचार के सहारे हम वचार को कै से काट सकते ह? भारतीय साधक ने इस पहेल को सुलझाया
उ ह ने कहा संसार म रहने पर मन सदैव चंचल बना रहता है वह वाभा वक प से बहता रहता है जब सांसा रक झमेले
आते ह तब उसका भाव और भी खर बन जाता है इस लए संसार म रहकर तुम मन को नह ं जान सकते अत एव तुम
जंगल क ओर चले जाओ ऐसे एकांत थल म नवास करो जहां संसार और उसक चंता तु हारे सामने ना हो तब तो
भोजन क कोई सम या ह नह ं थी कृ त परम दयामई थी नद व छ जल से भर हुई थी वृ फल से लदे रहते और
धरती म चुर मा ा म कं दमूल फल समाये रहते तब लोग मन को जानने के लए अर य वासी हो जाया करते और
कं दमूल खाकर आ म चंतन म लगे रहा करते वह वचार करते क मन का वभाव कै सा है? जीवन को इस पहेल का अथ
या है? ज म और मृ यु का ता पय या है? कृ त के अंतराल म जो मूलस ा है उसका व प या है।
परंतु मन म हमारे एक सवाल और उठता है क यह मन कतना शि तशाल है? पहले यह जान लया जाए उसी अनु प
इसक तैयार क जाए इसको जानने क एक सामा य सी व ध है जैसे एक कमरे म एक द पक जला ल िजए िजसक लव
से धुआं ना नकल रहा हो और को शश यह क िजए क उस समय वातावरण शांत हो अथात खूब सुबह का समय हो उसी
समय मन को एका च करके सफ उस लव को दे खए और उसके अलावा कसी और के बारे म वचार ना उठने ल िजए
आप पाएंगे क यह एक दो या 5 सेकं ड से यादा मन ि थर नह ं रह पाता। और कोई न कोई हमारे मन म वचार उठ
जाता है इससे आप उसको बार-बार लगाने क को शश करगे और बार-बार मन हटेगा ारंभ म यह बहुत क ठन लगेगा
कं तु एक बार यह साध लया जाए और मन को धीरे धीरे दो चार या 6 मह ने म इस यो य कर लया जाए क वह एका
हो सके तो उस समय अगर आप कोई वषय एका ह के पढ़ते ह तो वता ह व एक या दो बार म आपको याद हो जाएगा
और कभी भी भूलेगा नह ं यह व ध मने वामी ववेकानंद क एक छोट सी पु तक म पड़ी थी िजसका नाम "एका ता"
था िजसे म आपको यहां बता रहा हूं य क आजकल जंगल म जाना सभी के लए संभव नह ं है।
ाकृ तक शि तय का मानवीकरण देवताओं का उ भव
ाकृ तक शि तय का मानवीकरण देवताओं का उ भव
ारं भक मानव कृ त क शि तय क पूजा कया करता था। यह मानव का वभाव है क वह अपने से बल शि तय
क पूजा करता है जब वह देखता है क वह कसी शि त पर आ धप य ा त करने म सफल नह ं होता तो वह उसक पूजा
करने लगता है। वेद मानव के मन क वकास गाथा है मनु य का मन मशः िजन तूफान म से वक सत होता गया है
वेद उनक सुंदर कहानी कहते ह। वेद म पहले हम ऐसे मन को देखते ह जो अभी अ वक सत है फर वह धीरे-धीरे अपना
वकास करता है और कालांतर म वकास क उ चतम अव था को ा त कर लेता है। इसी लए म वेद को मानवीय मन
के वकास क गाथा कहता हूं।
ारं भक काल म मनु य कृ त क शि तय से डरा करता था वह देखता था क जब जोर क आंधी आती है तो वृ टूट
कर गर पड़ते ह, झोप ड़या गर जाती ह, और धन न ट हो जाता है। ारं भक मनु य ने क पना क क हो ना हो यह
आंधी कोई शि त है उसने उस स य का मानवीकरण कया यह मनु य का वभाव है क वह िजसक पूजा करता है उसे
मानवीय प दान कर देता है वह ई वर को भी मानवीय प दे देता है और उसे सम त मानवीय गुण से यु त कर देता
है इसका कारण यह है क मनु य क क पना उसके अपने मन से मया दत है। य द कोई मछल ई वर क क पना कर तो
वह ई वर को बहुत बड़ी मछल के प म देखेगी, य द कोई भस ई वर क क पना कर तो ई वर को वह बहुत बड़ी भस के
प म सोचेगी, इसी कार य द कोई प ी ई वर के बारे म सोच तो उसक क पना म ई वर एक बहुत बड़े प ी का प
धारण करेगा। अतः जब मनु य ई वर क क पना करता है तो वह उसे मानवीय गुण से यु त कर देता है यह मनु य का
वभाव है।
जब आ दम मानव ने आंधी क चंडता का अनुभव कया, तो उसने क पना क क यह एक मनावोप र शि त है इसे
उसने "म त्" कह कर पुकारा उसने सोचा क म त एक देवता है वह जब मनु य पर खुश होता है तब उ ह ाण दान
करता है और जब कु पत हो जाता है तब उनके ाण ले लेता है। इस लए वेद म म त क तु त करते हुए कहा गया है। हे
म त हम तु हार उपासना करते ह हम जो व तु सुंदर और य लगती ह वह हम तु ह दान करते ह तुम हम पर कृ पा
करो आं धय को मत भेजो। इस कार वेद क ऋचाओं का ज म होता है। मनु य ने देखा क जब अि न कु पत होती है
तो सारा कबीला जलकर राख हो जाता है सार संप वाहा हो जाती है इस लए उसने सोचा क अि न एक देवता है जब
वह संतु ट होता है तब हमार र ा करता है। इस लए अि न क तु त म ऋचाएं बनाई गई। इसी कार उसने देखा क
जब जोरो से वषा होती है तब संप और फसल न ट हो जाती है उसम क पना क क वषा का भी एक देवता है इस देवता
को उसने "व ण" कह कर पुकारा इस कार वेद म हम व भ न देवताओं का आ वभाव देखते हुए देखते ह। कृ त क
व वध शि तय को मानवीय प देने के कारण ह देवताओं का ज म हुआ है और इनका उदय मन क एक वाभा वक
या का प रणाम है।
वै दक कमका ड और ानकांड
वै दक कमका ड और ानकांड
इन देवताओं को कस कार स न कया जाय? आ दम मानव ने देखा क जहां आग लगती है वहां धुआं ऊपर क
ओर उठता है और आकाश म वल न हो जाता है। उसने सोचा क हमारे लोग के ऊपर एक देवलोक है जहां देवता रहते ह।
उसने क पना क इस धुएं के सहारे वग के देवताओं से अपना संबंध था पत कया जा सकता है। और उ ह अपना संदेश
भेजा जा सकता है। इस कार आहु तय का ज म होता है। मनु य क पना करता है क वह अि न, व ण, मा त इ या द
के लए आहु तयां डालकर उ ह स न कर लेगा। वह कहता है - 'हे धू शखा तुम ऊपर जाओ और अि न को हमारा यह
संदेश दो क हम अि न का स कार करते ह हम जो व तुएं य लगती ह जो सोम हमारे जीवन को पु ट बनाता है, उसे
हम अि न के लए सम पत करते ह। यहां यतर व तुओं क आहु त दे कर देवताओं को स न करने का भाव दखाई
देता है। बाद म आहु तय क व ध पर यापक और व तार पूवक वचार कया गया। सोचा गया क य कुं ड कस कार
के ह? उनम कस कार से और कतनी सीट लगाई जाएं? उ ह कस दशा म बनाया जाए? इ या द।
इस तरह कमकांड का ादुभाव होता है। मनु य सोचता है क देवता वग म रहते ह तथा उ ह आहु तयां देकर संतु ट
कया जा सकता है। देवताओं के संतु ट होने पर उसे भी मरने के बाद वग म थान ा त हो सकता है। वग ऐसा लोक
है जहां सभी कार के सुख ह, पर दुख का नतांत अभाव है, संसार म तो सुख के साथ दुख भी भोगना पड़ता है। बि क यूं
कह क सुख क तुलना म दुख ह अ धक भोगना पड़ता है। मनु य दुख वर हत सुख क चाह रखता है। इस लए वह वग
क क पना करता है और उसक ाि त के लए व भ न य का आ व कार करता है। फर वग क भी कई े णयां बन
जाती ह , और उनक ा त के लए बहु व ध या अनु ठान का चार होता है। कालांतर म ब ल और या अनु ठान
य के अ नवाय अंग बन जाते ह। और कमकांड अ त ज टल प धारण कर लेता है। य के धुएं से भारत का आकाश छा
जाता है और पपशु ब ल के र त से धरा सन जाती है। इस कार हम देखते ह क मानव मन म कृ त क शि तय के
पीछे अ ध ठाता देवताओं क क पना क । देवताओं को वग का नवासी बनाया और देवताओं को स न करने हेतु
व भ न ज टल य का आ व कार कया ।
पर तब तक समाज म ऐसे भी लोग ज म ले चुके थे। जो चंतक क म के थे। यह लोग बु ध और तक पर अ धक
जोर देते थे। उनक वृ वै ा नक थी, और यह कसी भी बात को तब तक मानने के लए तैयार न थे, जब तक युि त
क कसौट पर वह खर ना उतर जाए। उ ह ने वचार कया क आ खर यह वग या है? या यह शा वत है? और हम
चरका लक सुख दे सकगे। उ ह ने तक कया क वग तो य आ द कम के फल व प ा त होते ह। कम अपने आप
म सी मत होते ह और सी मत कम का असीम फल कै से ा त हो सकता है? इस लए उन वचारक क म के लोग ने
फटकार कर कहा-
पर य लोकान्कम चतान् ा हणो
नवदमायात्नाि त अकृ तं कृ तेन ।
त व ानाथ स गु मेवा भग छेत्
स म पा णः ो यं म न ठम्।। (मु डक उप नष )1/2/12
'कम से ा त लोक क पर ा करके ा मण को कम से वीतराग हो जाना चा हए, य क कृ त (सी मत और अ न य) से
अकृ त (असीम और न य) नह ं मल सकता। य द उसे असीम और न य को जानने क इ छा है, तो वह स म पा ण
होकर ो य म न ठ गु के पास व धपूवक जाए।
यहां ा मण का ता पय ा मण कु ल म ज म लेने वाले यि त से नह ं है बि क इसका ता पय है क " म का खोजी"।
जो म को खोजता है स य का अ वेषण करता है वह एक बार कम से ा त लोग क पर ा तो करके देख। इस कार
चंतक ने देखा क वग भी अपने कारण प य के समान ह वनाशी और अ न य है। वग म सदा के लए रहना
संभव नह ं है। यह ग णत का एक सामा य स धांत है, क य द कसी सं चत व तु का लगातार यय कया जाए तो एक
दन ऐसा भी आता है जब वह व तु समा त हो जाती है य द बक म धन जमा है तो उसे तभी तक चेक के वारा भुनाया
जा सकता है जब तक वह समा त नह ं हो जाता। जब सारा पैसा ख म हो जाता है, तब चेक वापस लौट आता है। य
वारा ा त पु य मानो बक म सं चत धन के समान है, इस पु य के बल पर हम वग जाते ह और पु य ीण होने पर
वापस आ जाते ह।
अतः ऐसे णभंगुर वग के क पना के वचारक को भा वत न कर सक । यह तो जीवन के स य को जानने के लए
आकु ल थे। व भ न योग के बाद उ ह ने देखा क इस वा य संसार म स य को खोजना न फल है य क बाहर सब
कु छ णभंगुर है। वनाशी है, सी मत है, स य तो वह है जो शा वत है अ वनाशी है असीम है। अतः णभंगुर वनाशी और
सी मत के सहारे शा वतं, अ वनाशी और असीम का अनुसंधान कै से कया जा सकता है? उ ह ने एक नई या पर
वचार कया उ ह ने वयं अपने आप को खोज का वषय बनाया िजस मन के सहारे अपने से बाहर का सारा संसार जाना
जाता है। उसी मन को अनुसंधान का क बनाया और एक दन उ ह ने स य को जान लया-
ते यानयोगानुगता अप यन्
देहात्शि तं वगुणै नगूढाम्। ( वेता वतर उप नष )1/3
'उ ह ने यान योग के अनुगत हो कर (मन को ह खोज का वषय बनाकर) अपने गुण म न हत म क शि त को देख
लया।' इस कार जगत क कारणीभूत उस महाशि त को जानकर हष ल सत क ठ से वे पुकार उठे-
ृ व तु व वे अमृत य पु ा
आ ये धामा न द या न त थुः।
वेदाहमेतं पु षं महा तम्
आ द यवण तमसः पर तात्।
तमेव व द वा अ तमृ युमे त
ना यः प था व यतेऽयनाय ।।( वेता वतरोप नषत्)2/5,3/8
'अहो व व के नवा सय ! अमृत के पु ! सुनो द य लोक म रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मने सूय के समान
चमक ले उस महान पु ष को जान लया है, जो सम त अ ान अंधकार से परे है। के वल उसी को जानकर मृ यु क
वभी षका को पार कया जा सकता है। इससे भ न दूसरा रा ता है ह नह ं।'
य के वारा हम मृ यु क खाई को पार नह ं कर सकते। के वल स य का ान ह मृ यु के च को काट सकता है। इस
कार यह चंतक स य के टा बन गए, ऋ ष बन जाए और उ ह ने कम के झमेले म पढ़ने वाले लोग को ध कारा।
वग ा त करने क कामना से य करने वाल को उ ह ने वाथ कहा मूख कहा-
लवा ह एते अ ढा य पा
अ टादशो तम्अवरं येषु कम ।
एतत् ेयो येऽ भन दि त मूढा
जरामृ युं ते पुनरेवा प यि त ।।(मु डक उप नष )1/2/5
'अरे मूख ! अगर तुमने य को भवसागर तरने क नौका माना है, तो बड़ी भूल म हो। यह य पी नौका तो जीण शीण
है। पता नह ं, कहां जाकर तु ह डुबो देगी। इस य पी नौका म जो 16 ऋि वज और यजमान एवं यजमान क प नी ऐसे
18 लोग बैठे ह, वह सब नीच कम करने वाले ह और सब के सब मझधार म डूबेग। जो मूढ इस य को क याणकार
मानते ह वह बुढ़ापा और मृ यु के फ दे म बारंबार फसते ह।'
यह एक नया वर वेद म सुनाई पड़ता है। यह स य टा का वर है जो सांसा रक सुख नह ं चाहता, जो शा वत क चाह
रखता है। इस वर म आकषण है और लोग ऐसे वचारक और स य टा ऋ षय के पीछे आने लगते है। ये ानमाग
कहलाते ह और कम क नंदा करते ह। यह जीवन के मूलभूत न पर वचार करते ह इनम न ल त होने क अजीब
मता है। संसार के आकषण इनके लए स य के आकषण के सम फ के पड़ जाते ह। वेद म इनके वचार उप नषद के
नाम से स ध है। यह वेदांत के नाम से भी पुकारे जाते ह। जहां पर वेद का, ान का अंत हो जाए, वह वेदांत है। इसी को
वेद का ानकांड भी कहा गया है।
कालांतर म वेद के दो भाग म - कमकांड और ानका ड म बड़ा झगड़ा मचता है। इससे भारत के समाज म वष फै लता
है। कम और ान म सम वय का थम यास ईशावा योप नषद वारा कया गया जाता है। वहां यह बताया जाता है क
य य प ान ह शि त क चरम अव था है, तथा प उस ान को ा त करने के लए मनु य एकबारगी अपने वाथ को,
अपनी दुबलता ओं को झटक कर दूर नह ं फक सकता। य द हम अपे ा कर क मनु य एकदम अपनी वासनाओं का
प र याग कर स य क खोज के लए लग जाए, तो यह भूल है। वाथ मनु य धीरे-धीरे ह स य क ओर उ मुख होता है।
वाथ यु त कम से मशः वह न वाथ कम करना सीखेगा और इस कार ान को धारण करने क यो यता ा त
करेगा। ईशावा योप नषद म ान और कम के संबंध का जो बीज दखाई देता है वह अंकु रत और प ल वत होकर
भगव गीता म वशाल वटवृ के प म प रव तत हो गया है। गीता ने मनु य के दुरा ह को, उसक हठवा दता को दूर
करने का यास कया है। सम त कम को छोड़ कर जंगल म जाने का भी योजन हो सकता है। जंगल म जाने से ह कम
छू ट नह ं जाते। असल म संसार हम से बाहर नह ं है, वह हमारे मन म है। जब तक मन संसार म लपटा रहता है, तब तक
कसी भी उपाय से संसार से छु टकारा नह ं मल सकता। गीता हम इसके लए एक उपाय बताती ह। वह हम कमयोग पी
ऐसा रसायन दान करती है, िजससे हम संसार म रहकर भी उसके पाश म नह ं बधते।
कमका ड और ानका ड का भेद
कमका ड और ानका ड का भेद
हम पछले भाग म पढ़ चुके ह क वेद मानव मन के वकास क गाथा तुत करते ह। हमने यह भी देखा क वेद को
दो भाग म वभािजत कर दया गया और उन दोन भाग म- कमकांड और ान कांड म- ववाद ारंभ हो गया। कमकांड
पूव मीमांसा के नाम से भी प र चत हुआ। य और या अनु ठान आ द ह कमकांड के ाण थे। ानकांड को उ र
मीमांसा के नाम से पुकारा गया, उसम वचार क धानता थी और इस व व के अंतराल म न हत स य को जानने का
आ ह था। जहां कमकांड य ो के वारा देवताओं को स न कर वग ाि त को ह जीवन का ल य मानता था। वहां
ानकांड वग को मृ युलोक क ह एक आवृ समझकर चंतन और मनन के वारा जीवन के आधारभूत शि तय को
पकड़ने के लए आकु ल था। अतः वाभा वक ह कमकांड के अनुया यय ने इस संसार को स य समझ कर इसी को
पकड़ने क को शश क , जब क ानकांड के अनुया यय ने संसार को पंच और बंधन व प माना। उनका कहना था क
वग आ द का आकषण जीवन के वा त वक स य को आंख से ओझल कर देता है। यह एक वै ा नक वृ थी जो
भारत क वसुंधरा पर अंकु रत हो रह थी।
हम पहले ह बता चुके ह क ानकांड अनुयाई चंतक क म के यि त थे। उ ह ने स य के अनुसंधान के लए नई-नई
णा लयां खोजी और एक दन उ ह ने स य को जान लया। उ ह ने घोषणा क क अ ान ह सम त दुख का कारण है।
अ ान मनु य को संसार और उसके भाग से बांध देता है। वग भी कारांतर से संसार का भोग ह है। अतः इस बंधन से
मुि त का उपाय उ ह ने ान म देखा।
ान काका ता पय यह है क जो न हत है, उसक अ भ यि त हो जाए ान का ता पय यह नह ं क जो नह ं है, उसे
जानने का यास कया जाए। जो है उसी को जानना ान का मुख काय है। जब तक हम कसी नयम को नह ं जानते
होते तब तक नयम हम चलाता है और जब हम नयम को जान लेते ह, तो हम वयं नयम पर हावी हो जाते ह। ान का
यह स दय है जब तक हम मशीन को नह ं जानते होते तब तक मशीन हम चलाती है, पर जब हम मशीन के कल पुज को
जान लेते ह तब हम मशीन को चलाने लगते ह। ान अपने आपको दो धरातल पर य त करता है- एक है वा य और
दूसरा आंतर। वा य धरातल पर ान के ाक य को हम व ान या साइंस कहते ह और आंतर धरातल पर ान क
अ भ यि त को आ याि मकता, या साधारणतः धम के नाम से पुकारते ह।
ान हम बंधन से मुि त दलाता है। जब तक यूटन ने गु वाकषण का स धांत नह ं खोज नकाला था, तब तक
गु वाकषण क शि त यूटन और हम सब पर हावी थी, और िजस दन यूटन ने कृ त क इस छु पी हुई शि त को
जान लया, वह उस पर हावी हो गया और उसने ह न के बारे म कतने त य खोल कर रख दए। जब तक हम
अंत र व ान को नह ं जानते थे तब तक वह हमारे लए बंधन था। पर जब वै ा नक ने अंत र के नयम को जान
लया है तब से वह अंत र म च कर मार सकते ह।
इसी कार आंत रक धरातल पर कट ान हमारे मनोगत बंधन को छ न कर देता है और हमारे सम चेतना के
नए आयाम तुत करता है । आंत रक धरातल पर ान को कट करने वाल व ध को योग के नाम से पुकारा गया है।
पछले चचा म इसका उ लेख करते हुए हमने कहा था क शा ीय अथ म "योग" का ता पय है- मन क वृ य का
नरोध। हमारा मन बड़ा चंचल है, वह ि थर नह ं हो पाता। मन म असीम संभावनाएं न हत है, पर उसक चंचलता के
कारण यह संभावनाएं य त नह ं हो पाती। य द मन कसी उपाय से अपने ह ऊपर एका हो जाए तो धीरे-धीरे वह अपनी
परतो का भेदन करने लगता है और इस कार अपनी व भ न परत म छपे नयम और शि तय को कट करने लगता
है। एक अव था ऐसी भी आती है जब मन अपनी परत का भेदन करता हुआ अपने आप को लांघ भी जाता है। यह स य
को देखने क अव था है। इसी को आ म सा ा कार या म अनुभू त कहते ह। इस अव था को 'अमनी मन' भी कहा
गया है।
जैसे, आलोक क सामा य करण। इस करण म भेजने क शि त नह ं होती; वह कसी व तु म अ धक गहराई तक
नह ं जा सकती। पर य द कसी करण क पंदन ग त ( वसी) को ती कर द, तो वह ए स-रे बन जाती है और कई
परत को भेद कर नकल जाती है। यह बात मन पर भी लागू है। जब तक वह चंचल है, तब तक उसम अंतर भेदन क
शि त नह ं होती, वह छछला और अपनी असीम शि त से अन भ होता है। पर िजस समय मन को उसके अपने ह
ऊपर एका कया जाता है, तो उसम अपने भीतर उतरने क मता आती है।
वैसे तो मन अपनी च के वषय म वाभा वक ह एका हो जाता है। पर मन क ऐसी एका ता को योग नह ं कहते।
िजस समय मन को अ य सब वषय से समेट कर उसके वयं के ऊपर क त कया जाता है, तब योग क साधना शु
होती है। चंतन, मनन और यान ह इस साधना के अंग उपांग ह।
तो, यह वचारधारा थी उन चंतक क , जो ानकांड के उ रमीमांसा के अनुयाई थे। उनके लए संसार म या और
व नवत था। अतः वाभा वक था क उनका कमकांड के अनुया यय से वरोध होता, य क कमकांड के लए यह संसार
ह उपभो य और वरे य था।
युगाचाय भगवान कृ ण
युगाचाय भगवान कृ ण
महाभारत काल न समाज म हम इसी वरोध का वर सुन पाते ह। ेय और ेय क यह दो वचारधाराएं आपस म जोर
से टकराती है। होना तो यह था क यह दोन वचारधाराय पर पर समि वत होकर मनु य को ऊपर उठाती, पर इसके
थान पर दोन म लड़ाई ठन जाती है। वेद के अथ म खींचतान क जाती है। तब, "य य नः व सतं वेदा यो वेदे योऽ खलं
जगत्" - िजन भगवान ने वेद को नः व सत कया और वेद के आधार पर अ खल जगत क रचना क वह इस खींचतान
को सहने म असमथ होकर मनु य के प म अवतीण होते ह। जब वह देखते ह क वेद के अथ का अनथ हो रहा है, तब
वह आते ह और अनथ को दूर करने के लए और अथ को ति ठत करने के लए। वे आते ह कृ ण के प म और गीता के
मा यम से वेद के मम का गायन करके चले जाते ह। अ य लोग तो वेद पर भा य से लखते ह, पर भगवान को भा य
नह ं लखना पड़ा, वह तो गायन करते ह। लेखन म यास होता है, और गायन म अनुभू त का उ वास। गीता भगवान
कृ ण क अनुभू त का उ वास है। वेद पर अनेक भा य और ट काएं मलती ह, पर म गीता को वेद क सव म ट का
कहता हूं।
भगवान कृ ण युगाचाय थे। जो युगाचाय होते ह, वह युग क मा यता के अनु प एक नया माग, एक नया उपाय
जनता के सामने रखते ह। हमने कहा क उस समय य का बोलबाला था। ऐसा माना जाता था क य करने से जब तक
जीवन यापन करगे, तब तक धनधा य क कसी कार क कमी नह ं होगी और मृ यु के उपरांत वग क ाि त होगी।
कं तु यह य एक ऐसा उपाय था, जो गर ब क पहुंच के बाहर था। जो यि त नधन है िजसके अ न व का कह ं कोई
ठकाना नह ं है ऐसा यि त भला य जैसे यय- सा य काय को कै से कर सकता है? तब तो, जो य नह ं कर सकता वह
देवताओं को स न भी नह ं कर सकता। ता पय यह क वह देवताओं क कृ पा से वं चत रहेगा। यह बड़ी अनु चत और
गलत बात थी। यह बात कृ ण को गवारा नह ं थी। क जो धनी है वह य कर सकता है और फल व प वग का और भू
संपदा का अ धकार हो सकता है, तथा नधन यि त य ना कर सकने के कारण भौ तक सुख और वग से वं चत रह
जाता है। इसी लए कृ ण गीता म एक ऐसा उपाय बताते ह जो धनी और नधन दोन के लए समान प से उपादेय ह। उस
युग म य क मा यता थी इस लए कृ ण ने 'य ' श द का योग तो कया पर उ ह ने उस श द को एक नया अथ दान
कया। युगाचाय ऐसा ह काय करते ह। वह श द तो हण करते ह पर उसके अथ को युग के अनु प बदल देते ह। ी
रामकृ ण परमहंस कहा करते थे क बादशाह अमल का स का अं ेजी राज म नह ं चलता। यह छोट सी बात तीत
होती है पर इसम गूढ़ अथ भरा हुआ है। बादशाह अमल का स का होता तो सोने का है और सोने के प म उसक क मत
भी होती है, पर वह अं ेजी राज म नह ं चलता। अं ेजी राज म चलाने के लए बादशाह अमल के स क को गलाना
पड़ता है और उसम अं ेजी राज क मोहर लगानी पड़ती है। य य प सोने म कोई फक नह ं होता पर उसके बाहर प म
ज र फक होता है। य द एक युग के स के को बना उसका बाहर प बदले दूसरे युग म चलाने क को शश क जाएगी,
तो वह ' डफ ट' हो जाएगा, खोटा हो जाएगा।
इसी कार जो शा वत त व होते ह, उनका ऊपर प भी कॉल वाह म खोटा हो जाता है। तब ऐसे महापु ष और
युगाचाय आते ह, जो उन त व को गलाते ह और उनके बाहर प को बदलकर युग के अनु प उ ह नया प दान करते
ह। कृ णा ने यह काय कया। उ ह ने य पी स के को गलाया और उसे युगानु प नया व प दान कया। पहले
य का ता पय आहु तय और ब लय से लगाया जाता था। य के नाम पर पशु ब ल का बड़ा जोर था। ीकृ ण ने जनता
को इस कु र त से छु टकारा दान कया। उ ह ने य का ह वरोध कया। भागवत म कथा आती है क जब नंद बाबा इं
क पूजा के लए य का वधान करते ह तब कृ ण इसका वरोध करते ह। न द उ ह समझाते ह क य द इं को आहु त
नह ं द जाएगी तो वह कु पत हो जाएंगे, उनके कोप से हम भयंकर परेशा नयां सहनी पड़ेगी, इं कु पत होकर हमारे धन
का नाश भी कर दगे, परंपरा से इं को य का भाग दया जाता रहा है। और हमारे लए यह उ चत है क हम इस परंपरा
को ना तोड़े। पर कृ ण परंपरा के वरोध म खड़े होते ह। वह कहते ह क जो इं दखाई नह ं देता उसक भला य पूजा क
जाए। इं क पूजा करने से बेहतर तो गोवधन क पूजा करना है। गोवधन हमार आंख से दखता तो है पर पवत हमार
गाय को चारा देता है और हमार भू म पर वषा कराता है। इस लए हम सब मलकर इस गोवधन क पूजा य न कर,
इसी क उपासना य न कर? कृ ण परंपरा पर कु ठाराघात कर गोवधन पूजा का आयोजन करते ह। भागवत के इस न
के मूल म यह अथ है क कृ ण ां तकार महापु ष और युगाचाय है। एक नया माग द शत करने के लए आते ह और
गीता के प म अपना अमर उपदेश दान कर जाते ह।
य का नया प कमयोग
य का नया प कमयोग
गीता हम कमयोग के प म एक ऐसा रसायन दान करती है जो कम के वाभा वक वष को सोख लेता है। हम तो
दन रात कम म जुटे रहते ह, हम जीने के लए खटराग और भागदौड़ करनी पड़ती है। हम भला इस कम संकु ल जीवन म
उ चतर त व का चंतन कै से कर सकते ह? भगवान कृ ण कहते ह क इस रसायन के वारा या भागदौड़, यह खटराग,
यह तल पश य तता ह मनु य को ऊपर उठाने का साधन बन सकती है। मजदूर कु दाल से जमीन खोलता है, कसान
खेत म हल चलाता है, अ यापक श ा देता है, यापार यापार करता है, ि यां घर म रसोई पकाती है, और अ धकार
नाना कार के शास नक काय करता है। यह सभी कार के कम गीतो त रसायन के मा यम से जीवन के ल य क
ाि त के साधन बन सकते ह।
ईशावा योप नषद म इस कार का एक संके त मा दखाई देता है, जहां गु श य के सम स धांत तपा दत करते
हुए कहते ह-
ईशावा यम्इदं सव यि कं च जग यां जगत्।
तेन य तेन भुंजीथा मा गृधः क य ि व धनम्।।
-'यह सारा संसार भगवान का बैठक खाना है यह भाव याग का मूल है; इस ान को जीवन म धारण कर सभी कत य
कम करते चले जाओ और कसी के धन का लालच मत करो।' ईशावा योप नषद म यह जो स धांत बीज दवा हुआ है,
उसी का व तार गीता म हुआ है। यहां हम य का नया प दखाई देता है। ी कृ ण के मतानुसार हमारे शर र क हर
या, हमारे मन का हर पंदन य का प धारण कर सकता है, य द इन याओं और वचार के पीछे ई वर के त
समपण क भावना हो। तभी तो येक काय को य बना लेने का नदश देते हुए हुए अजुन से कहते ह-
य ाथात्कमणोऽ य लोकोऽयं कमब धनः।
तदथ कम कौ तेय मु तसंगः समाचर ।। (3/9)
-'हे क तेय, य के अ भ ाय और भावना के बना जो भी कम कए जाते ह वह सभी बंधनकारक होते ह। इस लए तू जो भी
कम करेगा, उसे य क भावना से कर और इस कार आसि त र हत होकर वतन कर।' य क भावना से कम करने का
या ता पय है? -भगवत सम पत बु ध से कम करना। तो या सभी कार के कम य बन सकते ह? या दु कम भी
भगवान को सम पत करके कया जा सकता है? कृ ण इसका समाधान तुत करते हुए कहते ह-
कं कम कमकम त कवयोऽ य मो हताः।
त े कम व या म य ा वा मो यसेऽशुभात्।। (4/16)
-'हे पाथ! कम या है, अकम या है इस संबंध म मनीषी जन भी मत ह। अतः म कम का मम तुझे समझाता हूं, िजसे
जानकर तो अशुभ से मु त हो जाएगा।'
कमणो य प बो ध यं बो ध यं च वकमणः ।
अकमण च बो ध यं गहना कमणो ग तः ।। (4/17)
-'कम को समझो, वकम को समझो और अकम को भी समझो, य क कम क ग त गहन है।' यानी, कम के तीन प है-
कम, अकम और वकम। वकम शा नं दत और वपर त या अशुभ कम को कहते ह। िजस काय को समाज ठ क नह ं
समझता या िजसे हम नै तक ि ट से ठ क नह ं समझते, उसे वकम कहते ह। अकम उसे कहते ह िजसम जड़ता,
आल य और तमोगुण क धानता हो जहां शुभ कम का नतांत अभाव हो और यि त माद और नठ ला हो। कम वह
है जो शुभ, उ चत और करणीय हो। कृ ण कहते ह क वकम और अकम से बचो तथा कत य और करणीय कम करो। ऐसे
कम ना करो जो समाज और रा को त पहुंचाते हो, िजन से वयं क हा न होती हो। असल म जो समाज और रा को
ठगता है, वह सबसे पहले अपने आपको ठगता है। वह इस त य को नह ं जानता और अपने पैर पर आप कु हाड़ी मारता
है। ऐसा यि त अपने आप क हंसा करता है और आ मघाती होता है। यह एक अटल स य है क जो काय समाज और
रा वरोधी होते ह, वह सबसे पहले आ म वरोधी होते ह। इस लए कृ ण उपदेश देते ह-
उ धरेदा मना मानं ना मानमवसादयेत्।
आ मैव या मनो ब धुरा मैव रपुरा मनः ।। (6/5)
-'मनु य को चा हए क वह वयं अपना उ थान कर और अपने को गरने ना द; य क वह वयं अपना म है और श ु
भी।' वा तव म मनु य ह वयं को उठाता है और अपने को गराता भी ह। लोग अपनी असफलता का दोष प रि थ तय
और अपने प र चत के सर पर मढ दया करते ह। पर यह सच नह ं है। असल म हम ह अपने पतन के कारण होते ह और
हम वयं खुद को उठाते ह। जो यि त अपने आप को उठाता है वह अपने आपका म होता है और जो अपने आप को
गराता है वह अपना श ु। इस लए भगवान ऐसे कम को करने का उपदेश देते ह, जो करणीय है तथा ऐसे कम का
तर कार करने के लए कहते ह, िजनसे समाज और रा का नुकसान होता है। वह अकम और वकम से बचने क सलाह
देते ह। जो कम हम प रि थ तय से ा त होते ह उ ह ई वर के त सम पत बुध से करने से वे य बन जाते ह। ऐसे
कम बंधनकारक नह ं रह जाते बि क हम ऊपर उठाते ह। जब यह अ यास सधता है तब हमारे शर र क येक या य
मय बन जाती है-
प यन्शृ वन् पृशन्िज न्अ मन्ग छन् वपन् वसन्।
थम् वसृजन्गृ णन्उि मषन् न मषन्अ प ।। (5/8)
-हमारा देखना, सुनना, पश करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना, सांस लेना, बोलना, छोड़ना और हण करना, यह
सभी य मय बन जाते ह। यहां तक क हमार पलक का उठना और गरना जैसे सामा य काय भी, िजनक अनुभू त हम
नह ं होती, य प हो जाते ह। कृ ण कहते ह-
म याधाय कमा ण स गं य वा करो त यः ।
ल यते न स पापेन प मप मवा भसा ।। (5/10)
-'जो म को आ य और आधार मानकर, आसि त का याग करते हुए, कत य कम करता है, वह जल म कमलप वत
पाप से अ ल त रहता है।' यह गीता क चरम अव था है, यह म न ठ और ि थत ता क ि थ त है।
मनु य संसार म रहकर शां त क इ छा करता है और संसार तो ऐसी जगह है जहां अशां त के वा याच बहा करते ह।
अशां त क भंवर उठा करती है ऐसे दुख पूण संसार म यि त ऐसा सुख पाना चाहता है। जो उसका पीछा ना छोड़े ऐसी
प रि थ त म गीता आकर हम रा ता दखाती है। वह कहती है क यह संसार झमेला और झंझट ज र है फर भी अशां त
के वा याच से भरे इस संसार म तु ह शां त मल सकती है। पर इसके लए तु ह अपना ि टकोण बदलना पड़ेगा। तुम
आज िजस ि ट से अपने कम का संपादन कर रहे हो उसम आमूल प रवतन करना पड़ेगा। जब तुम भगवत सम पत
बु ध से, ई वर के त ेम से े रत होकर अपने काय करोगे, तो यह संसार झंझट या झमेला नह ं रहेगा। यह आनंद
और सुख क खान बन जाएगा।
पता बाजार के रा ते से घर लौटता है। बाजार म रंग- बरंगे कपड़ क दुकान है, उसका यान आकृ ट करती है, वह
सोचता है क दुकान म जाकर अपने पु के लए कोई चीज देखनी चा हए। वह दुकान म जाता है और अपने पु के लए
एक कपड़ा खर द लेता है, ब चे ने पता से वह खर दने के लए नह ं कहा था, अ पतु पता वयं अपने पु के ेम और
आकषण से खींचकर दुकान म जाता है और उसके लए कपड़ा खर द लेता है। सौदे पर अपनी गाढ़ कमाई का पैसा खच
करते हुए पता को लेश नह ं होता बि क उसे आनंद ह होता है। य क उसके पीछे नेह क ेरणा काम कर रह है।
य द ब चे ने पता से कहा होता, और पता ने उसे अपना कत य समझकर पूरा कया होता, तो उसे इतना आनंद ना
होता। अगर यि त कत य क भावना से कम का संपादन करता है, तो उस म भार पन आ जाता है। गीता के अनुसार
' यूट फार यूट ज सेक' या 'कत य के लए कत य' क भावना उ चत नह ं है। य क इसम एक खर च और संघषण का
बोध होता है। इसम बलात्काय करना पड़ता है और उससे सुख नह ं मलता। गीता कत य के लए कत य करने के थान
पर पूजा के भाव से, य के भाव से कम करने का उपदेश देती है। वह कहती है क तुम अपना सारा कम ई वर क
स नता ा त करने के लए करो। जब ई वर क संतुि ट के लए कम कया जाता है, तब कम बोझ तीत नह ं होता।
जीवन क गाड़ी म संघषण तब पैदा होता है, जब उसके च क म ेम पी तेल नह ं लगा होता। जब उसम ेम पी तेल
लग जाता है तो संघषण बंद हो जाता है। य द ऐसा ेमभाव ई वर के लए हो जाए, तो हमारा सारा काय उनक पूजा बन
जाता है। तब हम कहते ह क हे भु म तेर तेर ह स नता के लए यह कम कर रहा हूं। जो कम तूने मेरे लए नधा रत
कया है उसे म अपनी सार कु शलता और शि त के साथ क ं गा, पर उसका सारा फलाफल तेरे चरण म सम पत है। यह
योग क भाषा है।
गीता म योग क प रभाषाएं
गीता म योग क प रभाषाएं
योग या है? 'योगः कमसु कौशलम्'- कम करने क कु शलता ह योग है। जब हम अपनी सम त शि त और बु ध के
साथ काय करते ह तो वह योग हो जाता है। यह योग का एक प है। योग का दूसरा प है- 'सम वम्योग उ यते'- अथात
बु ध क समता का नाम योग है। जब योगः कमसु कौशलम्और सम वं योग उ यते को एक साथ जोड़ा जाता है तब
योग का संपूण व प हमारे सामने उपि थत होता है। हम अपनी सार कु शलता से, और अपनी बु ध को संतु लत
रखकर काय करना चा हए। यह कै से संभव है? ' म ण आधाय कमा ण स गं य वा करो त यः'- म को आ य और
आधार मानकर अपने काय को संप न करने से बु ध संतु लत बनी रहती है।
हमार बु ध असंतु लत तब होती है, जब काय करते समय हमारे मन म फल क चाह होती है। गीता इस त य को
जानती है, क मनु य कम फल क भावना से े रत होकर ह कम करता है, पर गीता यह भी कहती है क कम करना तो
तु हारे बस क बात है। कं तु कम का फल देने वाला एक ऐसा त व है, जो तु हारे अ धकार के बाहर ह। इस लए य द तुम
कमफल क चाह करोगे तो तु हारे मन म अशां त का उदय हो सकता है। य क संभव है, तुमने िजस फल को चाहा था,
वह ना मले, और िजसक तुमने अपे ा नह ं क थी, वह ा त हो जाय। तब तो तु हारा मन चंचल और व ु ध हो
जाएगा। अतएव, तुम अपनी पूर कु शलता के साथ कम तो करो, पर फल को ई वर के हाथ स प दो। यह कम का अटल
स धांत है, क तुम जो भी कम करोगे उसका फल तु ह अव य मलेगा। तुम जो भी अ छा बुरा कम करते हो, उसका
फल तु ह अ नवाय प से ा त होगा। गीता कम फल को अव य भावी बताती है और कहती है क जब तु ह अपने कम
के फल मलगे ह , तो तुम फल क चंता य करते हो? तुम यह कह कर क मुझे अपने कम का ऐसा ह फल मलना
चा हए, अ य पर जोर कै से डाल सकते हो? इस लए कम तो करो, पर फल के लए, ई वर पर नभरशील हो जाओ। यह
गीता क सबसे बड़ी मनोवै ा नक सीख है।
गीता हम भुलावे म नह ं रखती। कु छ लोग कहते ह क फल पर वचार न करना तो पलायनवाद है, जीवन से भागना है।
पर यह पलायनवाद नह ं है। यह एक मनोवै ा नक तक है। यह तक हमारे पैर को वपर त प रि थ तय म खड़े रहने क
शि त दान करता है। गीता का कम स धांत पूण पेण यवहा रक है। कृ ण यह जो कम और उसके फल को ई वर को
सम पत कर देने क बात कहते ह, वह एक मनोवै ा नक सुझाव है। उससे कम का वष हम हा न नह ं पहुंचा पाता।
कम करने के दो टांत
कम करने के दो टांत
मान ल िजए क दो यि त ह। एक यि त ई वर पर व वास करता है, और दूसरा यि त ई वर को नह ं मानता, वह
कहता है क म वयं कम करता हूं और वयं कम के फल को ा त भी करता हूं, ई वर कम फल दान नह ं करता, बि क
म वयं कमफल दाता हूं। पहला यि त सव ई वर को व यमान देखता है, वह कम तो करता है, पर उसके फल को
ई वर के चरण म सम पत कर देता है। अब दोन यि त काय े म पदापण करते ह। मान ल िजए दोन अपने काय म
सफल हो जाते ह। जो यि त ई वर पर व वास नह ं करता वह कहता है, क मने अपनी बु ध के बल पर इस काय को
साधा है। इस कार वचार कर वह अ धक अहंकार बन जाता है। कं तु दूसरा यि त जो ई वर म व वास रखता है,
सफल होने पर कहता है, क भु तु हार शि त और कृ पा के फल व प यह सफलता मुझे मल है। इस कार वह
अ धक वन और वनयी हो जाता है। बाहर से इन दोन यि तय म कोई अंतर दखाई नह ं देता। कं तु भीतर से देखने
पर एक के मन म तो अहंकार क वृ ध होती है, और दूसरे के मन म वनय का संचार होता है।
अब देख क जब दोन कसी काम म असफल हो जाते ह, तो उनम या या होती है? असफल होने पर ई वर को न
मानने वाला अहंकार यि त, दूसर को अपनी असफलता के लए दोषी ठहराता है। वह कहता है क मेरे दो त ने मुझे
दगा दया। असफलता क चोट से वह रोने लगता है, कई लोग असफलता को न सह सकने के कारण पागल हो जाते ह,
और अनेक आ मघात कर लेते ह। आजकल ऐसी घटनाएं बहुत दखाई देती ह। काम म असफल होने पर लोग जहर खा
लेते ह, रेल क पट रय पर सो जाते ह, आग लगा लेते ह, पानी म डूब कर मर जाया करते ह। पर जो यि त ई वर पर
व वास करता है, जो यह मानता है क कम के फल का दाता भगवान है। वह जब असफल होता है तो ई वर को
संबो धत करके कहता है, क यतम असफलता का दुख तो अव य है, पर मेरा यह ढ़ व वास है क तु हारे इस वधान
के पीछे, मेरा कोई मंगल साधन ह होगा। य य प मुझे अपने कम का वां छत फल आज नह ं मला है। पर तुम अव य
मेरा मंगल करोगे य क, तुम मंगलमय हो। म आज अपने अ ान के कारण तु हारे इस वधान को भले ह समझ नह ं
पा रहा हूं, पर मुझे पूरा व वास है क यह असफलता भी मेरे मंगल के लए ह है। ऐसा कह कर वह पुनः शि त एक त
कर, आगे के काय म जुट जाता है। जब अहंकार को एक छोट सी असफलता चकनाचूर करके रख देती है, वहां यह दूसरा
यि त भगवान पर व वास रखता, संकट का सामना करने के लए तैयार हो जाता है। वह संकट को भगवान क कृ पा
समझकर वीकार करता है। इस ि टकोण के आलंबन से उसका जीवन असंतु लत नह ं हो पाता, यह संतुलन ह योग
कहलाता है।
इस कार कम करते समय के वल यह दो कार के ि टकोण संभव ह। जहां अहंकार े रत होकर कम करने वाला
यि त, ई वर को न मानने वाला यि त, संसार क त नक सी चोट से उखड़ जाता है। टूट कर बखर जाता है। वह ई वर
म व वासी यि त संसार के आघात तघात को ई वर का मंगलमय वधान मान लेता है। और भ व य के लए कमर
बांध कर खड़ा हो जाता है, वह टूटता नह ं है, वह बखरता नह ं, बि क ई वर क कृ पा म व वासी होकर, अ धक उ साह के
साथ प रि थ तय का सामना करने के लए उ यत हो जाता है।
ई वर क पना नह ं परम स य
ई वर क पना नह ं परम स य
यहां पर कु छ लोग कहते ह क ई वर तो महज एक क पना है, इस लए ई वर पर व वास करना भी क पना है। यह
लोग कहते ह क तुम ई वर नाम का हौआ खड़ा कर देते हो। और यह मानने लगते हो क सफलता वफलता उसी क
कृ पा है। इस कार मन को दलासा देने क को शश करते हो, उसके उ र म कहा जा सकता है, क य द तक के लए
थोड़ी देर के लए मान भी लया जाए क ई वर एक क पना है, तो य द कोई क पना मनु य को टूटने से बखरने से
बचा सकती है, वप य के झंझावात से उसक र ा कर, उसे खड़ा रहने क शि त दान कर सकती है, तो ऐसी
क पना को हण करने म दोष या है? फर म पूछता हूं, या हमारा सारा जीवन ह एक लंबी क पना नह ं है? हम
सदैव क पना म ह तो वचरण करते रहते ह, हमारा जीवन क पना क एक लंबी गाथा है। थोड़ा वचार करके क, हम
कतने छड़ वतमान म रहते ह। हम देखगे क वतमान म हम ायः रहते ह नह ं या य द रहते ह, तो बहुत थोड़ा। शेष
समय या तो हम अतीत क मृ तय म डूबे होते ह, या फर भ व य के ताने-बाने बुनते रहते ह। और अतीत और
भ व य दोन ह क पनाएं ह। अतीत इस लए क वह बीत गया, और भ व य इस लए क वह आ जाना है। अतः य द
कोई कहे क तुम ई वर को छोड़ दो य क, वह एक क पना है तो उससे कहा जा सकता है, क य द तुम भूत और
भ व य का चंतन छोड़ सको तभी तुम ऐसा कहने के अ धकार हो।
फर एक प और भी है। य द कसी क पना से ठोस लाभ होता हो तो वह ा य है। सामा य यवहार एवं व ान
के े म भी क पनाओं का वीकरण हुआ है, अ ांश और देशांतर रेखाएं आ खर या है? या महज क पना नह ं है?
वह पृ वी पर कह ं खींची तो नह ं है, पर उनक सहायता से हम म थल को पार करते ह, और हवाई जहाज म उड़कर
अपने गंत य को पहुंचते ह। दशाएं भी के वल क पना ह ह, पर हम दशाओं क सहायता से वशाल समु को पार कर
जाते ह। व ान म हम बंदु और सरल रेखा क प रभाषाएं पढ़ाई जाती ह, तो या जो बंदु हम बनाते ह या जो सरल
रेखा खींचते ह, वह प रभाषा के अनुसार ठ क है, नह ं बंदु वह है िजसम ना लंबाई है ना चौड़ाई, और सरल रेखा वह है,
िजसम लंबाई तो है पर चौड़ाई नह ं। अब कसी से कहो क वैसा बंदु बना द और वैसी रेखा खींच दे, तो वह नह ं कर
सकता। यहां पर भी हम क पना करनी पड़ती है, मानलेना पड़ता है, क यह बंदु है और यह सरल रेखा। इसी क पना
क भ पर व ान का इतना बड़ा शोध खड़ा है। अतः क पना से उसे ठोस लाभ होता देखा जाता है। तो अगर ई वर
पी क पना से मनु य बखरने से बच सकता है, हताशा से अपनी र ा कर, फर से उ साह पूवक जीवन सं ाम म
उतर सकता है, तो उसम दोष या है?
और हम तो कहते ह, बंधु ई वर क पना नह ं है। वह जीवन का परम स य है, उसे छोड़कर बाक सब क पना है। वह
अतीत म भी स य था, वतमान म भी स य है, और भ व य म भी स य रहेगा। वह कालाबा धत स य है। शेष िज ह
हम स य कहते ह, वह व तुतः स य नह ं होते। वह कु छ समय तक के लए अि त ववान् तीत होते ह, पर उसके बाद
उनका नाश हो जाता है। ई वर ह शा वत और अ वनाशी है।
इस कार गीता कम के फल के वषय म हम जो सीख देती है, वह हम पलायनवाद नह ं बनाती। वह कहती है क
हम फल के त आ ह नह ं रखना चा हए, य क आ ह का भाव मन को चंचल बना देता है। इस पर यह कहा जा
सकता है क जब हम बना कम फल क चाह के कम कर ह नह ं सकते, तब अनास त होकर कम करने का,
फल क चाह न रखकर कम करने का या मतलब है।
न काम कम का ता पय
न काम कम का ता पय
गीता कहती है क फल के चंतन म अपने समय और शि त का नाश मत करो। फल तो तु ह मलेगा ह । जो समय और
शि त तुम फल के चंतन म लगाते हो, उसका उपयोग तुम कम करने म करो। गीता का यह त व ान है। गीता कहती है
क अपना पूरा समय और अपनी सार शि त कम म लगा दो। फल का चंतन मत करो। जब तुम बेहतर काम करोगे, तो
तु ह कम के अटल स धांत से बेहतर फल मलेगा। इस लए भु सम पत भाव से अपने दै नक जीवन के कम करते हुए
कहो,- यतम, मेरे सभी कम तु हार पूजा बन जाएं, म खेत ख लहान म जाता हूं, रसोई का काम करता हूं, द तर और
बाजार जाता हूं, मेरे यह सभी कम तेर पूजा ह पूजा है। जब यह भाव ढ़ होता है, तब जीवन म गीता का योग अवत रत
होता है।
गीता का कम योग
​ गीता का कम योग
गीता का कमयोग इस बात पर जोर देता है क ई वर पर व वास करो और अपने जीवन क सम त ेरणाओं का उ स
उसी को मानो। पूर शि त के साथ हाथ का काम करो, पर फल का अ धकार वयं न लो, िजसका है उसी के पास रहने दो।
कम करने का अ धकार तु हारा है और फल देने का अ धकार ई वर का है। इस म को उ टा ना होने दो म उलट जाए
तभी सार वप है, और हमम से अ धकांश के जीवन म यह म उ टा रहता है। कम करने का अ धकार हम ई वर को दे
देते ह और वयं नठ ले पड़े रहते ह। कहते ह क ई वर क मज हो तो वह करा लेगा, परंतु फल के लए हम आ हवान
होते ह। इससे संतुलन बगड़ जाता है और योग स ध नह ं हो पाता। तो हम या कर? म को कसी भी कार उलट ने
ना द। जब कम कर, तो पूर त परता और कु शलता के साथ, यह मानकर क कम करने का पूरा अ धकार हमारा है। पर
फल के संबंध म सार चंता ई वर पर छोड़ द। ई वर से कह क तुम ह कमफल दाता हो तु हार जो मज हो करो। हम
तु हारा हर कया मंजूर है। यह उ चत ि टकोण है और गीताभगवती इसी ि टकोण क श ा देते हुए कहती ह-
कम ण एव अ धकार ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कमफलहेतुभूमा ते संगोऽ वकम ण ।। (2/47)
-'तेरा अ धकार कम करने म ह है, फल म कभी नह ं। तू कम फल का हेतु मत बन। अकम के त तेरा लगाव न हो।'
ीकृ ण अजुन से कहते ह क तू कमफल का हेतु मत बन। या ता पय है इस कथन का? मनु य कम तो करता है, पर
उसके फल का हेतु भी वयं बन जाना चाहता है। मनु य वयं य द कम फल को ा त करने का कारण बन जाए, तो वह
कम से बंध जाता है। कोई व तु हम कब बांधती है? जब उसक चाह हमम होती है तब। कमफल हम कब बांधता है? जब
हम उसके लए आ हवान होते ह तब। गीता कहती है क कम का फल तो कम के अटल स धांत से तु ह मलेगा ह ,
तु ह इसके लए कारण बनने क आव यकता नह ं। जो चीज तु ह वयं होकर मलने वाल है, उसके लए छ ना झपट
य ? कमफल का हेतु तो कम म न हत 'अपूव' नामक शि त है। तुम इस 'अपूव' का थान लेकर य कमपाश नेह
बंधना चाहते हो?
यह एक नया ि टकोण है, जो गीता से ा त होता है। कम करो फल के त लगाव ना हो। हम कमफल का कारण न
बने और अकम से भी दूर रहे। मनु य सोच सकता है क जब मुझे कमफल से कोई योजन नह ं है, तो कम फर क ं ह
य ? इस लए गीता माता कहती ह क नह ं, कम करने का योजन है। बना कम कए जीवन का चरम ल य नह ं ा त
होता। अ त एवं नि य मत बनो, अकम यता से दूर रहो। कम को भगवत सम पत बु ध से करो। इससे कम का वष
सूख जाता है। कम म वाभा वक प से रहने वाल बंधन शि त ख लत हो जाती है। यह कम करने का कौशल है, यह
योग है, य क योग को कम करने का कौशल कहा गया है- 'योगः कमसु कौशलम्।
ी रामकृ ण देव से भ त ने पूछा, "महाराज! योग को कम क कु शलता कहा है। इसका या मतलब? ी रामकृ ण
देव ने उ र म दो उदाहरण दए। कटहल काटने क कु शलता कसम है? इसम क हम कटहल तो कांटे, पर इस कार काटे
क उसका दूध हाथ म ना चपक जाए। शहद के छ े से शहद नकालने क कु शलता कसने है? इसम क हम शहद
नकाल, पर मधुमि खयां हम काट ना खाएं। इस कार कम करने क कु शलता इसम है क हम कम तो कर पर कम म
वभाव से जो बांधने क शि त है वह हम लपेट न ल, कम म जो वष नैस गक प से भरा है वह हम वषा त न कर द।
यह 'योग' श द का ता पय है। 'योगः कमसु कौशलम्' तथा 'सम वं योग उ यते' इन दोन प रभाषाओं का यह मला
जुला अथ है।
वधम का पालन
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Geeta

  • 1. जीवन म उठने वाले मौ लक न ​ जीवन म उठने वाले मौ लक न गीता एक ऐसा ंथ है िजसके उपदेश हमारे रोजमरा के जीवन के लए अ तशय उपादेय ह, अजुन के मन म मानव जीवन को लेकर तरह तरह के न उठ खड़े हुए थे उन न के भगवान ी कृ ण ने जो उ र दान कए ह, वह हमारे लए भी अ यंत योजनीय है, न और उ र ह गीता शा का नमाण करते ह/ अजुन जीव का त न ध व करते ह, हम संसार म जीवनयापन करते ह, संसार म हमारे सामने अनेक सम याएं आती ह और हमारे मन म अनेक न का उदय होता है, हम इन सम याओं का उ र पाना चाहते ह यह हमारे जीवन क मौ लक सम याएं ह मनु य के वल रोट से ह संतु ट नह ं होता यह सह है क मनु य को रोट क ज रत होती है, उसे देने के लए कपड़े क आव यकता होती है और अपना सर छु पाने के लए एक नवास एक छत का योजन होता है, पर जब यह ज रत पूर हो जाती है तब मन के लए खा य जुटाना आव यक हो जाता है मान सक भोजन क पू त धा मक सं दाय के वारा क जाती है हम देखते ह क संसार म अनेकानेक धम सं दाय का वकास हुआ है यह व भ न धम सं दाय इस लए खड़े हुए ह क यह मनु य के मन क भूख हो तरह-तरह से मटा सके एक ह सं दाय सभी लोग के मन क भूख को नह ं मटा सकता इस लए व भ न धम सं दाय का ज म हुआ है हम देखते ह क जब कोई नया सं दाय ग ठत होता है तो अनेक लोग उसके अनुयायी हो जाते ह इसका ता पय है क पहले के सं दाय उनक मान सक भूख को शांत नह ं कर सके थे नया सं दाय उनक मान सक रोग का समाधान तुत करता है यह कारण है क नए नए सं दाय प ल वत और वक सत होते रहते ह, मानव जीवन म जो ज टलताएं आ सकती ह, मनु य के मन म जीवन को लेकर जो न उ दत हो सकते ह वह ज टलताएं और न अजुन के मा यम से गीता म अ भ य त है इस लए अजुन को जीव का त न ध कहा गया है भगवान कृ ण उन न क मीमांसा करते ह/ अजुन महाबल है नर के अवतार कहे गए ह तथा उनका च ण से महनीय यि त के प म हुआ है पर यह अजुन भी संशय से त होते ह जीवन क इस पहेल का या रह य है? संसार म आने जाने का यह म शा वत है? या इसका अंत कया जा सकता है? हमारे जीवन का या योजन है? यह कु छ ऐसे न ह जो वाभा वक प से सबके मन म उठा करते ह इन न का उठना बुरा नह ं है बि क य द एक न ना उठे तो समझना चा हए क मनु य क उ न त कह ं अव ध हो रह है/ मानव जीवन या है? मानव जीवन इसी न को समझाने का यास है जब तक यि त के मन के न सुलझ नह ं जाती तब तक वह आगे नह ं बढ़ पाता यह ज र नह ं क हमारे न दाश नक ह हो एक छोटा सा न भी हम आगे बढ़ने क ेरणा दे सकता है एक छोटा सा न हमारे मन म जगा क हमारे जीवन का योजन या है? तो समझ ल िजए क कृ त माता क कृ पा हो गई हम भले ह संसार के कम म डूबकर इन न को भुला देना चाहते ह पर कभी ना कभी यह न हमारे मन म जगते ह और हम अपने आप से पूछते ह क हम आ खर या पाना चाहते ह? अंत म हम कहां जाएंगे? इन न का उ र पाने के लए हमारा मन याकु ल हो जाता है के वल भारत जैसे अ या म वण देश के यि तय के मन म ह यह न नह ं उठते बि क व ान क रोशनी से चकाच ध हुए पि चमी देश क जनता के मन म भी ऐसे न उठा करते ह, ऐसे देश ह जहां व ान के सहारे मनु य कृ त के रह य म स य को उ घा टत कर रहा है इन
  • 2. देश म भी एक न मनु य के मन म खलबल मचा रहा है, वह यह क मानव जीवन का अ भ ाय या है? हमारे जीवन का योजन या है? नोबेल पुर कार वजेता अलेि सस कै रल ने पु तक लखी है उसका नाम है "मैन द अननोन" इस ंथ म हुए मानव मन म उठने वाले न का उ लेख करते ह वे बताते ह क मनु य के दोन का पहला प तो वह है जो जाना हुआ है जो ात है और दूसरा प वह है जो अब तक जाना ह नह ं गया है मनु य का जाना हुआ प या है? यह क उसक लंबाई कतनी है, उसक ऊं चाई कतनी है उसका रंग प और उसका बाहर न शा कै सा है या मनु य का जाना हुआ प है पर यह प बहुत अ प है इसके अ त र त उसका अजाना प जो बहुत व तृत है हमारा बहुत सा भाग ऐसा है जो अजाना है और इस अजाने प को जानने क या ह जीवन क या है जो अजाना है उसे जानने का यास ह जीवन है/ तो या हम अपने आपको नह ं जानते, नह ं हम अपने आपको नह ं जानते अलेि सस कै रल कहते ह क मनु य के वल अपने एक अंश को ह जानता है, और वह अंश अ यंत ह छोटा या अ प है वह अपने बहुलांश को नह ं जानता वह अजाना है इसी अजाने प को जानने का आ वान उप नषद करते ह/ भारत म इस न पर वचार कया गया है क अपने आप को हम कै से जाने अपनी इं य के सहारे हम अपने शर र का ान ा त करते ह, हम आंख से देखते ह, कान से सुनते ह, वचा से पश करते ह, रसना सफ वाद लेते ह, नाक से ाण लेते ह/ इन व भ न इं य के वारा हम मनु य के ात प को ह जानते ह, पर मनु य का अ ात प इं य से नह ं जाना जा सकता, ऋ षय ने व लेषण कया क हम िजतना जानते ह, वह मन के वारा ह जानते ह पर मन को हम नह ं जानते मन म वचार उ प न होते ह और उससे ान क ाि त होती है, पर मन या है? मन को जानो उसे टटोलो उसे समझने का यास करो भारत म ऋ षय ने मन के वभाव को समझना चाहा उ ह ने उस मन को जानने का यास कया िजससे सु त रहते सुख-दुख क वेदना नह ं होती और िजसके जागते ह सम त कार क संवेदनाएं होने लगते ह वह नरंतर मन का शोध करते रहे और एक दन आया जब उ ह ने मन को समझ लया उ ह ने उस व ध का आ व कार कर लया िजससे मन को जाना जा सकता है मन को जानने क इस व ध को योग कहा गया है। गीता योगशा ​गीता योगशा गीता मन को जानने क व या है उसे योगशा भी कहा गया है मह ष पतंज ल ने जब अपना यात योगसू लखा तब पहले उ ह ने योग क प रभाषा द योग या है पतंज ल कहते ह "योग वह उपाय है िजससे च क वृ याँ न ध हो जाती है " अभी तो हमारे मन क वृ यां वाह मान है, िजस कार न दया नाले म जल बहता है उसी कार मन भी अ भराम ग त से बह रहा है हमारे जानते एक ण ऐसा नह ं आता जब मन वचार से शू य रहता हो/ जब हम सोते ह और सपना देखते ह तब भी हमारा मन वाह मान रहता है हम सपने म जो य देखते ह वह मन के वाह के कारण ह संभव हो पाता है, के वल सुषुि त क दशा म व न वह न गाढ़ न ा क दशा म ह हमारा मन कु छ समय के लए ि थर और शांत होता है, अ छा जब सुसु त म हमारा मन शांत होता है जब मन का वाह कु छ देर के लए बंद होता है तब या हम उसके वभाव को जान सकते ह नह ं य क जो जानने वाला बन है वह सोया रहता है सुषु त के अ त र त अ य सभी समय मन का भाव अ भराम प से बहता रहता है मन के इस वाह को ान पूवक रोकना ह योग है/
  • 3. बाहर से हम बहने वाल न दयां नाले के वाह क ती ता को नह ं जान पाते हम उसक ती ता और स य का बोध तब होता है जब हम उसे बांधते ह, जो लोग नद या नाले के वाह को बांधते ह वह ं उसके भेद को जानते ह, इस कार हम अपने मन के वाह क स य का बोध तब तक नह ं होता जब तक वह बहता रहता है, और उसके साथ हम भी बहते रहते ह, हम तब तक या नह ं जानते क मन के इस वाह म कतनी शि त छपी हुई है/ एक बार म गंगा के तीर पर नान कर रहा था, म कोई तैराक नह ं था बचपन म गांव के तालाब म हाथ पैर मार लया करता था, मने तीर पर ह थोड़ा पैर मार कर देखा मुझे लगा क म तो गंगा म अ छ तरह से तैर सकता हूं य क मुझे आगे बढ़ने म कोई क ठनाई नह ं हुई म आगे बढ़ा थोड़ी दूर जाने पर कनारे पर खड़ा हुआ एक यि त च लाया आगे मत जाओ बहुत गहराई है मने वहां पर जल क थाह ल पता चला क वहां तो जल अथाह है, म वापस लौटा और 5 मनट तक हाथ पैर मारने पर भी म मुि कल से 1-2 गज वापस लौट सका इसका कारण यह था क जब म कनारे से गंगा म तैर रहा था तब म वाह के साथ था पर वापस लौटते समय म वाह के वपर त पड़ गया था, जब म गंगा के वाह के साथ बढ़ रहा था तब मुझे उसक ताकत का बोध नह ं हुआ पर जब म वापस लौटने का यास करने लगा तब पता चला क वाह कतना तेज है, म वाह क उलट दशा म तैर ह न सका जब म फर से वाह के साथ आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे वाह को काटते हुए कोई 100 गज क दूर पर कनारे लगा, यह बात मन के वाह के साथ लागू होती है/ योग मन के वाह को बांधने क व या योग मन के वाह को बांधने क व या योग मन के वाह को बांधने क व ध है। योग क प रभाषा म कहा गया है क च क वृ य के नरोध का नाम ह योग है। च क वृ यां कभी ि थर नह ं रहती वह सदैव चंचल रहती ह इन वाह मान च वृ य को बांधना अ यंत दु कर काय है तथा प च वृ य को बांधने पर ह मन को जाना जा सकता है इसके लए मन को रोकना होगा वचार के सहारे वचार को काटना होगा। वचार के वारा ह वचार के ऊपर उठना होगा। यह व ध है। यह व ध सुनने म बड़ी पहेल सी लगती है वचार के सहारे हम वचार को कै से काट सकते ह? भारतीय साधक ने इस पहेल को सुलझाया उ ह ने कहा संसार म रहने पर मन सदैव चंचल बना रहता है वह वाभा वक प से बहता रहता है जब सांसा रक झमेले आते ह तब उसका भाव और भी खर बन जाता है इस लए संसार म रहकर तुम मन को नह ं जान सकते अत एव तुम जंगल क ओर चले जाओ ऐसे एकांत थल म नवास करो जहां संसार और उसक चंता तु हारे सामने ना हो तब तो भोजन क कोई सम या ह नह ं थी कृ त परम दयामई थी नद व छ जल से भर हुई थी वृ फल से लदे रहते और धरती म चुर मा ा म कं दमूल फल समाये रहते तब लोग मन को जानने के लए अर य वासी हो जाया करते और कं दमूल खाकर आ म चंतन म लगे रहा करते वह वचार करते क मन का वभाव कै सा है? जीवन को इस पहेल का अथ या है? ज म और मृ यु का ता पय या है? कृ त के अंतराल म जो मूलस ा है उसका व प या है। परंतु मन म हमारे एक सवाल और उठता है क यह मन कतना शि तशाल है? पहले यह जान लया जाए उसी अनु प इसक तैयार क जाए इसको जानने क एक सामा य सी व ध है जैसे एक कमरे म एक द पक जला ल िजए िजसक लव से धुआं ना नकल रहा हो और को शश यह क िजए क उस समय वातावरण शांत हो अथात खूब सुबह का समय हो उसी
  • 4. समय मन को एका च करके सफ उस लव को दे खए और उसके अलावा कसी और के बारे म वचार ना उठने ल िजए आप पाएंगे क यह एक दो या 5 सेकं ड से यादा मन ि थर नह ं रह पाता। और कोई न कोई हमारे मन म वचार उठ जाता है इससे आप उसको बार-बार लगाने क को शश करगे और बार-बार मन हटेगा ारंभ म यह बहुत क ठन लगेगा कं तु एक बार यह साध लया जाए और मन को धीरे धीरे दो चार या 6 मह ने म इस यो य कर लया जाए क वह एका हो सके तो उस समय अगर आप कोई वषय एका ह के पढ़ते ह तो वता ह व एक या दो बार म आपको याद हो जाएगा और कभी भी भूलेगा नह ं यह व ध मने वामी ववेकानंद क एक छोट सी पु तक म पड़ी थी िजसका नाम "एका ता" था िजसे म आपको यहां बता रहा हूं य क आजकल जंगल म जाना सभी के लए संभव नह ं है। ाकृ तक शि तय का मानवीकरण देवताओं का उ भव ाकृ तक शि तय का मानवीकरण देवताओं का उ भव ारं भक मानव कृ त क शि तय क पूजा कया करता था। यह मानव का वभाव है क वह अपने से बल शि तय क पूजा करता है जब वह देखता है क वह कसी शि त पर आ धप य ा त करने म सफल नह ं होता तो वह उसक पूजा करने लगता है। वेद मानव के मन क वकास गाथा है मनु य का मन मशः िजन तूफान म से वक सत होता गया है वेद उनक सुंदर कहानी कहते ह। वेद म पहले हम ऐसे मन को देखते ह जो अभी अ वक सत है फर वह धीरे-धीरे अपना वकास करता है और कालांतर म वकास क उ चतम अव था को ा त कर लेता है। इसी लए म वेद को मानवीय मन के वकास क गाथा कहता हूं। ारं भक काल म मनु य कृ त क शि तय से डरा करता था वह देखता था क जब जोर क आंधी आती है तो वृ टूट कर गर पड़ते ह, झोप ड़या गर जाती ह, और धन न ट हो जाता है। ारं भक मनु य ने क पना क क हो ना हो यह आंधी कोई शि त है उसने उस स य का मानवीकरण कया यह मनु य का वभाव है क वह िजसक पूजा करता है उसे मानवीय प दान कर देता है वह ई वर को भी मानवीय प दे देता है और उसे सम त मानवीय गुण से यु त कर देता है इसका कारण यह है क मनु य क क पना उसके अपने मन से मया दत है। य द कोई मछल ई वर क क पना कर तो वह ई वर को बहुत बड़ी मछल के प म देखेगी, य द कोई भस ई वर क क पना कर तो ई वर को वह बहुत बड़ी भस के प म सोचेगी, इसी कार य द कोई प ी ई वर के बारे म सोच तो उसक क पना म ई वर एक बहुत बड़े प ी का प धारण करेगा। अतः जब मनु य ई वर क क पना करता है तो वह उसे मानवीय गुण से यु त कर देता है यह मनु य का वभाव है। जब आ दम मानव ने आंधी क चंडता का अनुभव कया, तो उसने क पना क क यह एक मनावोप र शि त है इसे उसने "म त्" कह कर पुकारा उसने सोचा क म त एक देवता है वह जब मनु य पर खुश होता है तब उ ह ाण दान करता है और जब कु पत हो जाता है तब उनके ाण ले लेता है। इस लए वेद म म त क तु त करते हुए कहा गया है। हे म त हम तु हार उपासना करते ह हम जो व तु सुंदर और य लगती ह वह हम तु ह दान करते ह तुम हम पर कृ पा करो आं धय को मत भेजो। इस कार वेद क ऋचाओं का ज म होता है। मनु य ने देखा क जब अि न कु पत होती है तो सारा कबीला जलकर राख हो जाता है सार संप वाहा हो जाती है इस लए उसने सोचा क अि न एक देवता है जब वह संतु ट होता है तब हमार र ा करता है। इस लए अि न क तु त म ऋचाएं बनाई गई। इसी कार उसने देखा क जब जोरो से वषा होती है तब संप और फसल न ट हो जाती है उसम क पना क क वषा का भी एक देवता है इस देवता
  • 5. को उसने "व ण" कह कर पुकारा इस कार वेद म हम व भ न देवताओं का आ वभाव देखते हुए देखते ह। कृ त क व वध शि तय को मानवीय प देने के कारण ह देवताओं का ज म हुआ है और इनका उदय मन क एक वाभा वक या का प रणाम है। वै दक कमका ड और ानकांड वै दक कमका ड और ानकांड इन देवताओं को कस कार स न कया जाय? आ दम मानव ने देखा क जहां आग लगती है वहां धुआं ऊपर क ओर उठता है और आकाश म वल न हो जाता है। उसने सोचा क हमारे लोग के ऊपर एक देवलोक है जहां देवता रहते ह। उसने क पना क इस धुएं के सहारे वग के देवताओं से अपना संबंध था पत कया जा सकता है। और उ ह अपना संदेश भेजा जा सकता है। इस कार आहु तय का ज म होता है। मनु य क पना करता है क वह अि न, व ण, मा त इ या द के लए आहु तयां डालकर उ ह स न कर लेगा। वह कहता है - 'हे धू शखा तुम ऊपर जाओ और अि न को हमारा यह संदेश दो क हम अि न का स कार करते ह हम जो व तुएं य लगती ह जो सोम हमारे जीवन को पु ट बनाता है, उसे हम अि न के लए सम पत करते ह। यहां यतर व तुओं क आहु त दे कर देवताओं को स न करने का भाव दखाई देता है। बाद म आहु तय क व ध पर यापक और व तार पूवक वचार कया गया। सोचा गया क य कुं ड कस कार के ह? उनम कस कार से और कतनी सीट लगाई जाएं? उ ह कस दशा म बनाया जाए? इ या द। इस तरह कमकांड का ादुभाव होता है। मनु य सोचता है क देवता वग म रहते ह तथा उ ह आहु तयां देकर संतु ट कया जा सकता है। देवताओं के संतु ट होने पर उसे भी मरने के बाद वग म थान ा त हो सकता है। वग ऐसा लोक है जहां सभी कार के सुख ह, पर दुख का नतांत अभाव है, संसार म तो सुख के साथ दुख भी भोगना पड़ता है। बि क यूं कह क सुख क तुलना म दुख ह अ धक भोगना पड़ता है। मनु य दुख वर हत सुख क चाह रखता है। इस लए वह वग क क पना करता है और उसक ाि त के लए व भ न य का आ व कार करता है। फर वग क भी कई े णयां बन जाती ह , और उनक ा त के लए बहु व ध या अनु ठान का चार होता है। कालांतर म ब ल और या अनु ठान य के अ नवाय अंग बन जाते ह। और कमकांड अ त ज टल प धारण कर लेता है। य के धुएं से भारत का आकाश छा जाता है और पपशु ब ल के र त से धरा सन जाती है। इस कार हम देखते ह क मानव मन म कृ त क शि तय के पीछे अ ध ठाता देवताओं क क पना क । देवताओं को वग का नवासी बनाया और देवताओं को स न करने हेतु व भ न ज टल य का आ व कार कया । पर तब तक समाज म ऐसे भी लोग ज म ले चुके थे। जो चंतक क म के थे। यह लोग बु ध और तक पर अ धक जोर देते थे। उनक वृ वै ा नक थी, और यह कसी भी बात को तब तक मानने के लए तैयार न थे, जब तक युि त क कसौट पर वह खर ना उतर जाए। उ ह ने वचार कया क आ खर यह वग या है? या यह शा वत है? और हम चरका लक सुख दे सकगे। उ ह ने तक कया क वग तो य आ द कम के फल व प ा त होते ह। कम अपने आप म सी मत होते ह और सी मत कम का असीम फल कै से ा त हो सकता है? इस लए उन वचारक क म के लोग ने फटकार कर कहा- पर य लोकान्कम चतान् ा हणो नवदमायात्नाि त अकृ तं कृ तेन ।
  • 6. त व ानाथ स गु मेवा भग छेत् स म पा णः ो यं म न ठम्।। (मु डक उप नष )1/2/12 'कम से ा त लोक क पर ा करके ा मण को कम से वीतराग हो जाना चा हए, य क कृ त (सी मत और अ न य) से अकृ त (असीम और न य) नह ं मल सकता। य द उसे असीम और न य को जानने क इ छा है, तो वह स म पा ण होकर ो य म न ठ गु के पास व धपूवक जाए। यहां ा मण का ता पय ा मण कु ल म ज म लेने वाले यि त से नह ं है बि क इसका ता पय है क " म का खोजी"। जो म को खोजता है स य का अ वेषण करता है वह एक बार कम से ा त लोग क पर ा तो करके देख। इस कार चंतक ने देखा क वग भी अपने कारण प य के समान ह वनाशी और अ न य है। वग म सदा के लए रहना संभव नह ं है। यह ग णत का एक सामा य स धांत है, क य द कसी सं चत व तु का लगातार यय कया जाए तो एक दन ऐसा भी आता है जब वह व तु समा त हो जाती है य द बक म धन जमा है तो उसे तभी तक चेक के वारा भुनाया जा सकता है जब तक वह समा त नह ं हो जाता। जब सारा पैसा ख म हो जाता है, तब चेक वापस लौट आता है। य वारा ा त पु य मानो बक म सं चत धन के समान है, इस पु य के बल पर हम वग जाते ह और पु य ीण होने पर वापस आ जाते ह। अतः ऐसे णभंगुर वग के क पना के वचारक को भा वत न कर सक । यह तो जीवन के स य को जानने के लए आकु ल थे। व भ न योग के बाद उ ह ने देखा क इस वा य संसार म स य को खोजना न फल है य क बाहर सब कु छ णभंगुर है। वनाशी है, सी मत है, स य तो वह है जो शा वत है अ वनाशी है असीम है। अतः णभंगुर वनाशी और सी मत के सहारे शा वतं, अ वनाशी और असीम का अनुसंधान कै से कया जा सकता है? उ ह ने एक नई या पर वचार कया उ ह ने वयं अपने आप को खोज का वषय बनाया िजस मन के सहारे अपने से बाहर का सारा संसार जाना जाता है। उसी मन को अनुसंधान का क बनाया और एक दन उ ह ने स य को जान लया- ते यानयोगानुगता अप यन् देहात्शि तं वगुणै नगूढाम्। ( वेता वतर उप नष )1/3 'उ ह ने यान योग के अनुगत हो कर (मन को ह खोज का वषय बनाकर) अपने गुण म न हत म क शि त को देख लया।' इस कार जगत क कारणीभूत उस महाशि त को जानकर हष ल सत क ठ से वे पुकार उठे- ृ व तु व वे अमृत य पु ा आ ये धामा न द या न त थुः। वेदाहमेतं पु षं महा तम् आ द यवण तमसः पर तात्। तमेव व द वा अ तमृ युमे त ना यः प था व यतेऽयनाय ।।( वेता वतरोप नषत्)2/5,3/8 'अहो व व के नवा सय ! अमृत के पु ! सुनो द य लोक म रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मने सूय के समान चमक ले उस महान पु ष को जान लया है, जो सम त अ ान अंधकार से परे है। के वल उसी को जानकर मृ यु क वभी षका को पार कया जा सकता है। इससे भ न दूसरा रा ता है ह नह ं।' य के वारा हम मृ यु क खाई को पार नह ं कर सकते। के वल स य का ान ह मृ यु के च को काट सकता है। इस कार यह चंतक स य के टा बन गए, ऋ ष बन जाए और उ ह ने कम के झमेले म पढ़ने वाले लोग को ध कारा। वग ा त करने क कामना से य करने वाल को उ ह ने वाथ कहा मूख कहा- लवा ह एते अ ढा य पा अ टादशो तम्अवरं येषु कम । एतत् ेयो येऽ भन दि त मूढा जरामृ युं ते पुनरेवा प यि त ।।(मु डक उप नष )1/2/5 'अरे मूख ! अगर तुमने य को भवसागर तरने क नौका माना है, तो बड़ी भूल म हो। यह य पी नौका तो जीण शीण है। पता नह ं, कहां जाकर तु ह डुबो देगी। इस य पी नौका म जो 16 ऋि वज और यजमान एवं यजमान क प नी ऐसे
  • 7. 18 लोग बैठे ह, वह सब नीच कम करने वाले ह और सब के सब मझधार म डूबेग। जो मूढ इस य को क याणकार मानते ह वह बुढ़ापा और मृ यु के फ दे म बारंबार फसते ह।' यह एक नया वर वेद म सुनाई पड़ता है। यह स य टा का वर है जो सांसा रक सुख नह ं चाहता, जो शा वत क चाह रखता है। इस वर म आकषण है और लोग ऐसे वचारक और स य टा ऋ षय के पीछे आने लगते है। ये ानमाग कहलाते ह और कम क नंदा करते ह। यह जीवन के मूलभूत न पर वचार करते ह इनम न ल त होने क अजीब मता है। संसार के आकषण इनके लए स य के आकषण के सम फ के पड़ जाते ह। वेद म इनके वचार उप नषद के नाम से स ध है। यह वेदांत के नाम से भी पुकारे जाते ह। जहां पर वेद का, ान का अंत हो जाए, वह वेदांत है। इसी को वेद का ानकांड भी कहा गया है। कालांतर म वेद के दो भाग म - कमकांड और ानका ड म बड़ा झगड़ा मचता है। इससे भारत के समाज म वष फै लता है। कम और ान म सम वय का थम यास ईशावा योप नषद वारा कया गया जाता है। वहां यह बताया जाता है क य य प ान ह शि त क चरम अव था है, तथा प उस ान को ा त करने के लए मनु य एकबारगी अपने वाथ को, अपनी दुबलता ओं को झटक कर दूर नह ं फक सकता। य द हम अपे ा कर क मनु य एकदम अपनी वासनाओं का प र याग कर स य क खोज के लए लग जाए, तो यह भूल है। वाथ मनु य धीरे-धीरे ह स य क ओर उ मुख होता है। वाथ यु त कम से मशः वह न वाथ कम करना सीखेगा और इस कार ान को धारण करने क यो यता ा त करेगा। ईशावा योप नषद म ान और कम के संबंध का जो बीज दखाई देता है वह अंकु रत और प ल वत होकर भगव गीता म वशाल वटवृ के प म प रव तत हो गया है। गीता ने मनु य के दुरा ह को, उसक हठवा दता को दूर करने का यास कया है। सम त कम को छोड़ कर जंगल म जाने का भी योजन हो सकता है। जंगल म जाने से ह कम छू ट नह ं जाते। असल म संसार हम से बाहर नह ं है, वह हमारे मन म है। जब तक मन संसार म लपटा रहता है, तब तक कसी भी उपाय से संसार से छु टकारा नह ं मल सकता। गीता हम इसके लए एक उपाय बताती ह। वह हम कमयोग पी ऐसा रसायन दान करती है, िजससे हम संसार म रहकर भी उसके पाश म नह ं बधते। कमका ड और ानका ड का भेद कमका ड और ानका ड का भेद हम पछले भाग म पढ़ चुके ह क वेद मानव मन के वकास क गाथा तुत करते ह। हमने यह भी देखा क वेद को दो भाग म वभािजत कर दया गया और उन दोन भाग म- कमकांड और ान कांड म- ववाद ारंभ हो गया। कमकांड पूव मीमांसा के नाम से भी प र चत हुआ। य और या अनु ठान आ द ह कमकांड के ाण थे। ानकांड को उ र मीमांसा के नाम से पुकारा गया, उसम वचार क धानता थी और इस व व के अंतराल म न हत स य को जानने का आ ह था। जहां कमकांड य ो के वारा देवताओं को स न कर वग ाि त को ह जीवन का ल य मानता था। वहां ानकांड वग को मृ युलोक क ह एक आवृ समझकर चंतन और मनन के वारा जीवन के आधारभूत शि तय को पकड़ने के लए आकु ल था। अतः वाभा वक ह कमकांड के अनुया यय ने इस संसार को स य समझ कर इसी को पकड़ने क को शश क , जब क ानकांड के अनुया यय ने संसार को पंच और बंधन व प माना। उनका कहना था क वग आ द का आकषण जीवन के वा त वक स य को आंख से ओझल कर देता है। यह एक वै ा नक वृ थी जो भारत क वसुंधरा पर अंकु रत हो रह थी।
  • 8. हम पहले ह बता चुके ह क ानकांड अनुयाई चंतक क म के यि त थे। उ ह ने स य के अनुसंधान के लए नई-नई णा लयां खोजी और एक दन उ ह ने स य को जान लया। उ ह ने घोषणा क क अ ान ह सम त दुख का कारण है। अ ान मनु य को संसार और उसके भाग से बांध देता है। वग भी कारांतर से संसार का भोग ह है। अतः इस बंधन से मुि त का उपाय उ ह ने ान म देखा। ान काका ता पय यह है क जो न हत है, उसक अ भ यि त हो जाए ान का ता पय यह नह ं क जो नह ं है, उसे जानने का यास कया जाए। जो है उसी को जानना ान का मुख काय है। जब तक हम कसी नयम को नह ं जानते होते तब तक नयम हम चलाता है और जब हम नयम को जान लेते ह, तो हम वयं नयम पर हावी हो जाते ह। ान का यह स दय है जब तक हम मशीन को नह ं जानते होते तब तक मशीन हम चलाती है, पर जब हम मशीन के कल पुज को जान लेते ह तब हम मशीन को चलाने लगते ह। ान अपने आपको दो धरातल पर य त करता है- एक है वा य और दूसरा आंतर। वा य धरातल पर ान के ाक य को हम व ान या साइंस कहते ह और आंतर धरातल पर ान क अ भ यि त को आ याि मकता, या साधारणतः धम के नाम से पुकारते ह। ान हम बंधन से मुि त दलाता है। जब तक यूटन ने गु वाकषण का स धांत नह ं खोज नकाला था, तब तक गु वाकषण क शि त यूटन और हम सब पर हावी थी, और िजस दन यूटन ने कृ त क इस छु पी हुई शि त को जान लया, वह उस पर हावी हो गया और उसने ह न के बारे म कतने त य खोल कर रख दए। जब तक हम अंत र व ान को नह ं जानते थे तब तक वह हमारे लए बंधन था। पर जब वै ा नक ने अंत र के नयम को जान लया है तब से वह अंत र म च कर मार सकते ह। इसी कार आंत रक धरातल पर कट ान हमारे मनोगत बंधन को छ न कर देता है और हमारे सम चेतना के नए आयाम तुत करता है । आंत रक धरातल पर ान को कट करने वाल व ध को योग के नाम से पुकारा गया है। पछले चचा म इसका उ लेख करते हुए हमने कहा था क शा ीय अथ म "योग" का ता पय है- मन क वृ य का नरोध। हमारा मन बड़ा चंचल है, वह ि थर नह ं हो पाता। मन म असीम संभावनाएं न हत है, पर उसक चंचलता के कारण यह संभावनाएं य त नह ं हो पाती। य द मन कसी उपाय से अपने ह ऊपर एका हो जाए तो धीरे-धीरे वह अपनी परतो का भेदन करने लगता है और इस कार अपनी व भ न परत म छपे नयम और शि तय को कट करने लगता है। एक अव था ऐसी भी आती है जब मन अपनी परत का भेदन करता हुआ अपने आप को लांघ भी जाता है। यह स य को देखने क अव था है। इसी को आ म सा ा कार या म अनुभू त कहते ह। इस अव था को 'अमनी मन' भी कहा गया है। जैसे, आलोक क सामा य करण। इस करण म भेजने क शि त नह ं होती; वह कसी व तु म अ धक गहराई तक नह ं जा सकती। पर य द कसी करण क पंदन ग त ( वसी) को ती कर द, तो वह ए स-रे बन जाती है और कई परत को भेद कर नकल जाती है। यह बात मन पर भी लागू है। जब तक वह चंचल है, तब तक उसम अंतर भेदन क शि त नह ं होती, वह छछला और अपनी असीम शि त से अन भ होता है। पर िजस समय मन को उसके अपने ह ऊपर एका कया जाता है, तो उसम अपने भीतर उतरने क मता आती है। वैसे तो मन अपनी च के वषय म वाभा वक ह एका हो जाता है। पर मन क ऐसी एका ता को योग नह ं कहते। िजस समय मन को अ य सब वषय से समेट कर उसके वयं के ऊपर क त कया जाता है, तब योग क साधना शु होती है। चंतन, मनन और यान ह इस साधना के अंग उपांग ह। तो, यह वचारधारा थी उन चंतक क , जो ानकांड के उ रमीमांसा के अनुयाई थे। उनके लए संसार म या और व नवत था। अतः वाभा वक था क उनका कमकांड के अनुया यय से वरोध होता, य क कमकांड के लए यह संसार ह उपभो य और वरे य था। युगाचाय भगवान कृ ण
  • 9. युगाचाय भगवान कृ ण महाभारत काल न समाज म हम इसी वरोध का वर सुन पाते ह। ेय और ेय क यह दो वचारधाराएं आपस म जोर से टकराती है। होना तो यह था क यह दोन वचारधाराय पर पर समि वत होकर मनु य को ऊपर उठाती, पर इसके थान पर दोन म लड़ाई ठन जाती है। वेद के अथ म खींचतान क जाती है। तब, "य य नः व सतं वेदा यो वेदे योऽ खलं जगत्" - िजन भगवान ने वेद को नः व सत कया और वेद के आधार पर अ खल जगत क रचना क वह इस खींचतान को सहने म असमथ होकर मनु य के प म अवतीण होते ह। जब वह देखते ह क वेद के अथ का अनथ हो रहा है, तब वह आते ह और अनथ को दूर करने के लए और अथ को ति ठत करने के लए। वे आते ह कृ ण के प म और गीता के मा यम से वेद के मम का गायन करके चले जाते ह। अ य लोग तो वेद पर भा य से लखते ह, पर भगवान को भा य नह ं लखना पड़ा, वह तो गायन करते ह। लेखन म यास होता है, और गायन म अनुभू त का उ वास। गीता भगवान कृ ण क अनुभू त का उ वास है। वेद पर अनेक भा य और ट काएं मलती ह, पर म गीता को वेद क सव म ट का कहता हूं। भगवान कृ ण युगाचाय थे। जो युगाचाय होते ह, वह युग क मा यता के अनु प एक नया माग, एक नया उपाय जनता के सामने रखते ह। हमने कहा क उस समय य का बोलबाला था। ऐसा माना जाता था क य करने से जब तक जीवन यापन करगे, तब तक धनधा य क कसी कार क कमी नह ं होगी और मृ यु के उपरांत वग क ाि त होगी। कं तु यह य एक ऐसा उपाय था, जो गर ब क पहुंच के बाहर था। जो यि त नधन है िजसके अ न व का कह ं कोई ठकाना नह ं है ऐसा यि त भला य जैसे यय- सा य काय को कै से कर सकता है? तब तो, जो य नह ं कर सकता वह देवताओं को स न भी नह ं कर सकता। ता पय यह क वह देवताओं क कृ पा से वं चत रहेगा। यह बड़ी अनु चत और गलत बात थी। यह बात कृ ण को गवारा नह ं थी। क जो धनी है वह य कर सकता है और फल व प वग का और भू संपदा का अ धकार हो सकता है, तथा नधन यि त य ना कर सकने के कारण भौ तक सुख और वग से वं चत रह जाता है। इसी लए कृ ण गीता म एक ऐसा उपाय बताते ह जो धनी और नधन दोन के लए समान प से उपादेय ह। उस युग म य क मा यता थी इस लए कृ ण ने 'य ' श द का योग तो कया पर उ ह ने उस श द को एक नया अथ दान कया। युगाचाय ऐसा ह काय करते ह। वह श द तो हण करते ह पर उसके अथ को युग के अनु प बदल देते ह। ी रामकृ ण परमहंस कहा करते थे क बादशाह अमल का स का अं ेजी राज म नह ं चलता। यह छोट सी बात तीत होती है पर इसम गूढ़ अथ भरा हुआ है। बादशाह अमल का स का होता तो सोने का है और सोने के प म उसक क मत भी होती है, पर वह अं ेजी राज म नह ं चलता। अं ेजी राज म चलाने के लए बादशाह अमल के स क को गलाना पड़ता है और उसम अं ेजी राज क मोहर लगानी पड़ती है। य य प सोने म कोई फक नह ं होता पर उसके बाहर प म ज र फक होता है। य द एक युग के स के को बना उसका बाहर प बदले दूसरे युग म चलाने क को शश क जाएगी, तो वह ' डफ ट' हो जाएगा, खोटा हो जाएगा। इसी कार जो शा वत त व होते ह, उनका ऊपर प भी कॉल वाह म खोटा हो जाता है। तब ऐसे महापु ष और युगाचाय आते ह, जो उन त व को गलाते ह और उनके बाहर प को बदलकर युग के अनु प उ ह नया प दान करते ह। कृ णा ने यह काय कया। उ ह ने य पी स के को गलाया और उसे युगानु प नया व प दान कया। पहले य का ता पय आहु तय और ब लय से लगाया जाता था। य के नाम पर पशु ब ल का बड़ा जोर था। ीकृ ण ने जनता को इस कु र त से छु टकारा दान कया। उ ह ने य का ह वरोध कया। भागवत म कथा आती है क जब नंद बाबा इं
  • 10. क पूजा के लए य का वधान करते ह तब कृ ण इसका वरोध करते ह। न द उ ह समझाते ह क य द इं को आहु त नह ं द जाएगी तो वह कु पत हो जाएंगे, उनके कोप से हम भयंकर परेशा नयां सहनी पड़ेगी, इं कु पत होकर हमारे धन का नाश भी कर दगे, परंपरा से इं को य का भाग दया जाता रहा है। और हमारे लए यह उ चत है क हम इस परंपरा को ना तोड़े। पर कृ ण परंपरा के वरोध म खड़े होते ह। वह कहते ह क जो इं दखाई नह ं देता उसक भला य पूजा क जाए। इं क पूजा करने से बेहतर तो गोवधन क पूजा करना है। गोवधन हमार आंख से दखता तो है पर पवत हमार गाय को चारा देता है और हमार भू म पर वषा कराता है। इस लए हम सब मलकर इस गोवधन क पूजा य न कर, इसी क उपासना य न कर? कृ ण परंपरा पर कु ठाराघात कर गोवधन पूजा का आयोजन करते ह। भागवत के इस न के मूल म यह अथ है क कृ ण ां तकार महापु ष और युगाचाय है। एक नया माग द शत करने के लए आते ह और गीता के प म अपना अमर उपदेश दान कर जाते ह। य का नया प कमयोग य का नया प कमयोग गीता हम कमयोग के प म एक ऐसा रसायन दान करती है जो कम के वाभा वक वष को सोख लेता है। हम तो दन रात कम म जुटे रहते ह, हम जीने के लए खटराग और भागदौड़ करनी पड़ती है। हम भला इस कम संकु ल जीवन म उ चतर त व का चंतन कै से कर सकते ह? भगवान कृ ण कहते ह क इस रसायन के वारा या भागदौड़, यह खटराग, यह तल पश य तता ह मनु य को ऊपर उठाने का साधन बन सकती है। मजदूर कु दाल से जमीन खोलता है, कसान खेत म हल चलाता है, अ यापक श ा देता है, यापार यापार करता है, ि यां घर म रसोई पकाती है, और अ धकार नाना कार के शास नक काय करता है। यह सभी कार के कम गीतो त रसायन के मा यम से जीवन के ल य क ाि त के साधन बन सकते ह। ईशावा योप नषद म इस कार का एक संके त मा दखाई देता है, जहां गु श य के सम स धांत तपा दत करते हुए कहते ह- ईशावा यम्इदं सव यि कं च जग यां जगत्। तेन य तेन भुंजीथा मा गृधः क य ि व धनम्।। -'यह सारा संसार भगवान का बैठक खाना है यह भाव याग का मूल है; इस ान को जीवन म धारण कर सभी कत य कम करते चले जाओ और कसी के धन का लालच मत करो।' ईशावा योप नषद म यह जो स धांत बीज दवा हुआ है, उसी का व तार गीता म हुआ है। यहां हम य का नया प दखाई देता है। ी कृ ण के मतानुसार हमारे शर र क हर या, हमारे मन का हर पंदन य का प धारण कर सकता है, य द इन याओं और वचार के पीछे ई वर के त समपण क भावना हो। तभी तो येक काय को य बना लेने का नदश देते हुए हुए अजुन से कहते ह- य ाथात्कमणोऽ य लोकोऽयं कमब धनः। तदथ कम कौ तेय मु तसंगः समाचर ।। (3/9) -'हे क तेय, य के अ भ ाय और भावना के बना जो भी कम कए जाते ह वह सभी बंधनकारक होते ह। इस लए तू जो भी कम करेगा, उसे य क भावना से कर और इस कार आसि त र हत होकर वतन कर।' य क भावना से कम करने का
  • 11. या ता पय है? -भगवत सम पत बु ध से कम करना। तो या सभी कार के कम य बन सकते ह? या दु कम भी भगवान को सम पत करके कया जा सकता है? कृ ण इसका समाधान तुत करते हुए कहते ह- कं कम कमकम त कवयोऽ य मो हताः। त े कम व या म य ा वा मो यसेऽशुभात्।। (4/16) -'हे पाथ! कम या है, अकम या है इस संबंध म मनीषी जन भी मत ह। अतः म कम का मम तुझे समझाता हूं, िजसे जानकर तो अशुभ से मु त हो जाएगा।' कमणो य प बो ध यं बो ध यं च वकमणः । अकमण च बो ध यं गहना कमणो ग तः ।। (4/17) -'कम को समझो, वकम को समझो और अकम को भी समझो, य क कम क ग त गहन है।' यानी, कम के तीन प है- कम, अकम और वकम। वकम शा नं दत और वपर त या अशुभ कम को कहते ह। िजस काय को समाज ठ क नह ं समझता या िजसे हम नै तक ि ट से ठ क नह ं समझते, उसे वकम कहते ह। अकम उसे कहते ह िजसम जड़ता, आल य और तमोगुण क धानता हो जहां शुभ कम का नतांत अभाव हो और यि त माद और नठ ला हो। कम वह है जो शुभ, उ चत और करणीय हो। कृ ण कहते ह क वकम और अकम से बचो तथा कत य और करणीय कम करो। ऐसे कम ना करो जो समाज और रा को त पहुंचाते हो, िजन से वयं क हा न होती हो। असल म जो समाज और रा को ठगता है, वह सबसे पहले अपने आपको ठगता है। वह इस त य को नह ं जानता और अपने पैर पर आप कु हाड़ी मारता है। ऐसा यि त अपने आप क हंसा करता है और आ मघाती होता है। यह एक अटल स य है क जो काय समाज और रा वरोधी होते ह, वह सबसे पहले आ म वरोधी होते ह। इस लए कृ ण उपदेश देते ह- उ धरेदा मना मानं ना मानमवसादयेत्। आ मैव या मनो ब धुरा मैव रपुरा मनः ।। (6/5) -'मनु य को चा हए क वह वयं अपना उ थान कर और अपने को गरने ना द; य क वह वयं अपना म है और श ु भी।' वा तव म मनु य ह वयं को उठाता है और अपने को गराता भी ह। लोग अपनी असफलता का दोष प रि थ तय और अपने प र चत के सर पर मढ दया करते ह। पर यह सच नह ं है। असल म हम ह अपने पतन के कारण होते ह और हम वयं खुद को उठाते ह। जो यि त अपने आप को उठाता है वह अपने आपका म होता है और जो अपने आप को गराता है वह अपना श ु। इस लए भगवान ऐसे कम को करने का उपदेश देते ह, जो करणीय है तथा ऐसे कम का तर कार करने के लए कहते ह, िजनसे समाज और रा का नुकसान होता है। वह अकम और वकम से बचने क सलाह देते ह। जो कम हम प रि थ तय से ा त होते ह उ ह ई वर के त सम पत बुध से करने से वे य बन जाते ह। ऐसे कम बंधनकारक नह ं रह जाते बि क हम ऊपर उठाते ह। जब यह अ यास सधता है तब हमारे शर र क येक या य मय बन जाती है- प यन्शृ वन् पृशन्िज न्अ मन्ग छन् वपन् वसन्। थम् वसृजन्गृ णन्उि मषन् न मषन्अ प ।। (5/8) -हमारा देखना, सुनना, पश करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना, सांस लेना, बोलना, छोड़ना और हण करना, यह सभी य मय बन जाते ह। यहां तक क हमार पलक का उठना और गरना जैसे सामा य काय भी, िजनक अनुभू त हम नह ं होती, य प हो जाते ह। कृ ण कहते ह- म याधाय कमा ण स गं य वा करो त यः । ल यते न स पापेन प मप मवा भसा ।। (5/10) -'जो म को आ य और आधार मानकर, आसि त का याग करते हुए, कत य कम करता है, वह जल म कमलप वत पाप से अ ल त रहता है।' यह गीता क चरम अव था है, यह म न ठ और ि थत ता क ि थ त है। मनु य संसार म रहकर शां त क इ छा करता है और संसार तो ऐसी जगह है जहां अशां त के वा याच बहा करते ह। अशां त क भंवर उठा करती है ऐसे दुख पूण संसार म यि त ऐसा सुख पाना चाहता है। जो उसका पीछा ना छोड़े ऐसी प रि थ त म गीता आकर हम रा ता दखाती है। वह कहती है क यह संसार झमेला और झंझट ज र है फर भी अशां त के वा याच से भरे इस संसार म तु ह शां त मल सकती है। पर इसके लए तु ह अपना ि टकोण बदलना पड़ेगा। तुम आज िजस ि ट से अपने कम का संपादन कर रहे हो उसम आमूल प रवतन करना पड़ेगा। जब तुम भगवत सम पत
  • 12. बु ध से, ई वर के त ेम से े रत होकर अपने काय करोगे, तो यह संसार झंझट या झमेला नह ं रहेगा। यह आनंद और सुख क खान बन जाएगा। पता बाजार के रा ते से घर लौटता है। बाजार म रंग- बरंगे कपड़ क दुकान है, उसका यान आकृ ट करती है, वह सोचता है क दुकान म जाकर अपने पु के लए कोई चीज देखनी चा हए। वह दुकान म जाता है और अपने पु के लए एक कपड़ा खर द लेता है, ब चे ने पता से वह खर दने के लए नह ं कहा था, अ पतु पता वयं अपने पु के ेम और आकषण से खींचकर दुकान म जाता है और उसके लए कपड़ा खर द लेता है। सौदे पर अपनी गाढ़ कमाई का पैसा खच करते हुए पता को लेश नह ं होता बि क उसे आनंद ह होता है। य क उसके पीछे नेह क ेरणा काम कर रह है। य द ब चे ने पता से कहा होता, और पता ने उसे अपना कत य समझकर पूरा कया होता, तो उसे इतना आनंद ना होता। अगर यि त कत य क भावना से कम का संपादन करता है, तो उस म भार पन आ जाता है। गीता के अनुसार ' यूट फार यूट ज सेक' या 'कत य के लए कत य' क भावना उ चत नह ं है। य क इसम एक खर च और संघषण का बोध होता है। इसम बलात्काय करना पड़ता है और उससे सुख नह ं मलता। गीता कत य के लए कत य करने के थान पर पूजा के भाव से, य के भाव से कम करने का उपदेश देती है। वह कहती है क तुम अपना सारा कम ई वर क स नता ा त करने के लए करो। जब ई वर क संतुि ट के लए कम कया जाता है, तब कम बोझ तीत नह ं होता। जीवन क गाड़ी म संघषण तब पैदा होता है, जब उसके च क म ेम पी तेल नह ं लगा होता। जब उसम ेम पी तेल लग जाता है तो संघषण बंद हो जाता है। य द ऐसा ेमभाव ई वर के लए हो जाए, तो हमारा सारा काय उनक पूजा बन जाता है। तब हम कहते ह क हे भु म तेर तेर ह स नता के लए यह कम कर रहा हूं। जो कम तूने मेरे लए नधा रत कया है उसे म अपनी सार कु शलता और शि त के साथ क ं गा, पर उसका सारा फलाफल तेरे चरण म सम पत है। यह योग क भाषा है। गीता म योग क प रभाषाएं गीता म योग क प रभाषाएं योग या है? 'योगः कमसु कौशलम्'- कम करने क कु शलता ह योग है। जब हम अपनी सम त शि त और बु ध के साथ काय करते ह तो वह योग हो जाता है। यह योग का एक प है। योग का दूसरा प है- 'सम वम्योग उ यते'- अथात बु ध क समता का नाम योग है। जब योगः कमसु कौशलम्और सम वं योग उ यते को एक साथ जोड़ा जाता है तब योग का संपूण व प हमारे सामने उपि थत होता है। हम अपनी सार कु शलता से, और अपनी बु ध को संतु लत रखकर काय करना चा हए। यह कै से संभव है? ' म ण आधाय कमा ण स गं य वा करो त यः'- म को आ य और आधार मानकर अपने काय को संप न करने से बु ध संतु लत बनी रहती है। हमार बु ध असंतु लत तब होती है, जब काय करते समय हमारे मन म फल क चाह होती है। गीता इस त य को जानती है, क मनु य कम फल क भावना से े रत होकर ह कम करता है, पर गीता यह भी कहती है क कम करना तो तु हारे बस क बात है। कं तु कम का फल देने वाला एक ऐसा त व है, जो तु हारे अ धकार के बाहर ह। इस लए य द तुम कमफल क चाह करोगे तो तु हारे मन म अशां त का उदय हो सकता है। य क संभव है, तुमने िजस फल को चाहा था, वह ना मले, और िजसक तुमने अपे ा नह ं क थी, वह ा त हो जाय। तब तो तु हारा मन चंचल और व ु ध हो जाएगा। अतएव, तुम अपनी पूर कु शलता के साथ कम तो करो, पर फल को ई वर के हाथ स प दो। यह कम का अटल
  • 13. स धांत है, क तुम जो भी कम करोगे उसका फल तु ह अव य मलेगा। तुम जो भी अ छा बुरा कम करते हो, उसका फल तु ह अ नवाय प से ा त होगा। गीता कम फल को अव य भावी बताती है और कहती है क जब तु ह अपने कम के फल मलगे ह , तो तुम फल क चंता य करते हो? तुम यह कह कर क मुझे अपने कम का ऐसा ह फल मलना चा हए, अ य पर जोर कै से डाल सकते हो? इस लए कम तो करो, पर फल के लए, ई वर पर नभरशील हो जाओ। यह गीता क सबसे बड़ी मनोवै ा नक सीख है। गीता हम भुलावे म नह ं रखती। कु छ लोग कहते ह क फल पर वचार न करना तो पलायनवाद है, जीवन से भागना है। पर यह पलायनवाद नह ं है। यह एक मनोवै ा नक तक है। यह तक हमारे पैर को वपर त प रि थ तय म खड़े रहने क शि त दान करता है। गीता का कम स धांत पूण पेण यवहा रक है। कृ ण यह जो कम और उसके फल को ई वर को सम पत कर देने क बात कहते ह, वह एक मनोवै ा नक सुझाव है। उससे कम का वष हम हा न नह ं पहुंचा पाता। कम करने के दो टांत कम करने के दो टांत मान ल िजए क दो यि त ह। एक यि त ई वर पर व वास करता है, और दूसरा यि त ई वर को नह ं मानता, वह कहता है क म वयं कम करता हूं और वयं कम के फल को ा त भी करता हूं, ई वर कम फल दान नह ं करता, बि क म वयं कमफल दाता हूं। पहला यि त सव ई वर को व यमान देखता है, वह कम तो करता है, पर उसके फल को ई वर के चरण म सम पत कर देता है। अब दोन यि त काय े म पदापण करते ह। मान ल िजए दोन अपने काय म सफल हो जाते ह। जो यि त ई वर पर व वास नह ं करता वह कहता है, क मने अपनी बु ध के बल पर इस काय को साधा है। इस कार वचार कर वह अ धक अहंकार बन जाता है। कं तु दूसरा यि त जो ई वर म व वास रखता है, सफल होने पर कहता है, क भु तु हार शि त और कृ पा के फल व प यह सफलता मुझे मल है। इस कार वह अ धक वन और वनयी हो जाता है। बाहर से इन दोन यि तय म कोई अंतर दखाई नह ं देता। कं तु भीतर से देखने पर एक के मन म तो अहंकार क वृ ध होती है, और दूसरे के मन म वनय का संचार होता है। अब देख क जब दोन कसी काम म असफल हो जाते ह, तो उनम या या होती है? असफल होने पर ई वर को न मानने वाला अहंकार यि त, दूसर को अपनी असफलता के लए दोषी ठहराता है। वह कहता है क मेरे दो त ने मुझे दगा दया। असफलता क चोट से वह रोने लगता है, कई लोग असफलता को न सह सकने के कारण पागल हो जाते ह, और अनेक आ मघात कर लेते ह। आजकल ऐसी घटनाएं बहुत दखाई देती ह। काम म असफल होने पर लोग जहर खा लेते ह, रेल क पट रय पर सो जाते ह, आग लगा लेते ह, पानी म डूब कर मर जाया करते ह। पर जो यि त ई वर पर व वास करता है, जो यह मानता है क कम के फल का दाता भगवान है। वह जब असफल होता है तो ई वर को संबो धत करके कहता है, क यतम असफलता का दुख तो अव य है, पर मेरा यह ढ़ व वास है क तु हारे इस वधान के पीछे, मेरा कोई मंगल साधन ह होगा। य य प मुझे अपने कम का वां छत फल आज नह ं मला है। पर तुम अव य मेरा मंगल करोगे य क, तुम मंगलमय हो। म आज अपने अ ान के कारण तु हारे इस वधान को भले ह समझ नह ं पा रहा हूं, पर मुझे पूरा व वास है क यह असफलता भी मेरे मंगल के लए ह है। ऐसा कह कर वह पुनः शि त एक त कर, आगे के काय म जुट जाता है। जब अहंकार को एक छोट सी असफलता चकनाचूर करके रख देती है, वहां यह दूसरा यि त भगवान पर व वास रखता, संकट का सामना करने के लए तैयार हो जाता है। वह संकट को भगवान क कृ पा
  • 14. समझकर वीकार करता है। इस ि टकोण के आलंबन से उसका जीवन असंतु लत नह ं हो पाता, यह संतुलन ह योग कहलाता है। इस कार कम करते समय के वल यह दो कार के ि टकोण संभव ह। जहां अहंकार े रत होकर कम करने वाला यि त, ई वर को न मानने वाला यि त, संसार क त नक सी चोट से उखड़ जाता है। टूट कर बखर जाता है। वह ई वर म व वासी यि त संसार के आघात तघात को ई वर का मंगलमय वधान मान लेता है। और भ व य के लए कमर बांध कर खड़ा हो जाता है, वह टूटता नह ं है, वह बखरता नह ं, बि क ई वर क कृ पा म व वासी होकर, अ धक उ साह के साथ प रि थ तय का सामना करने के लए उ यत हो जाता है। ई वर क पना नह ं परम स य ई वर क पना नह ं परम स य यहां पर कु छ लोग कहते ह क ई वर तो महज एक क पना है, इस लए ई वर पर व वास करना भी क पना है। यह लोग कहते ह क तुम ई वर नाम का हौआ खड़ा कर देते हो। और यह मानने लगते हो क सफलता वफलता उसी क कृ पा है। इस कार मन को दलासा देने क को शश करते हो, उसके उ र म कहा जा सकता है, क य द तक के लए थोड़ी देर के लए मान भी लया जाए क ई वर एक क पना है, तो य द कोई क पना मनु य को टूटने से बखरने से बचा सकती है, वप य के झंझावात से उसक र ा कर, उसे खड़ा रहने क शि त दान कर सकती है, तो ऐसी क पना को हण करने म दोष या है? फर म पूछता हूं, या हमारा सारा जीवन ह एक लंबी क पना नह ं है? हम सदैव क पना म ह तो वचरण करते रहते ह, हमारा जीवन क पना क एक लंबी गाथा है। थोड़ा वचार करके क, हम कतने छड़ वतमान म रहते ह। हम देखगे क वतमान म हम ायः रहते ह नह ं या य द रहते ह, तो बहुत थोड़ा। शेष समय या तो हम अतीत क मृ तय म डूबे होते ह, या फर भ व य के ताने-बाने बुनते रहते ह। और अतीत और भ व य दोन ह क पनाएं ह। अतीत इस लए क वह बीत गया, और भ व य इस लए क वह आ जाना है। अतः य द कोई कहे क तुम ई वर को छोड़ दो य क, वह एक क पना है तो उससे कहा जा सकता है, क य द तुम भूत और भ व य का चंतन छोड़ सको तभी तुम ऐसा कहने के अ धकार हो। फर एक प और भी है। य द कसी क पना से ठोस लाभ होता हो तो वह ा य है। सामा य यवहार एवं व ान के े म भी क पनाओं का वीकरण हुआ है, अ ांश और देशांतर रेखाएं आ खर या है? या महज क पना नह ं है? वह पृ वी पर कह ं खींची तो नह ं है, पर उनक सहायता से हम म थल को पार करते ह, और हवाई जहाज म उड़कर अपने गंत य को पहुंचते ह। दशाएं भी के वल क पना ह ह, पर हम दशाओं क सहायता से वशाल समु को पार कर जाते ह। व ान म हम बंदु और सरल रेखा क प रभाषाएं पढ़ाई जाती ह, तो या जो बंदु हम बनाते ह या जो सरल रेखा खींचते ह, वह प रभाषा के अनुसार ठ क है, नह ं बंदु वह है िजसम ना लंबाई है ना चौड़ाई, और सरल रेखा वह है, िजसम लंबाई तो है पर चौड़ाई नह ं। अब कसी से कहो क वैसा बंदु बना द और वैसी रेखा खींच दे, तो वह नह ं कर सकता। यहां पर भी हम क पना करनी पड़ती है, मानलेना पड़ता है, क यह बंदु है और यह सरल रेखा। इसी क पना क भ पर व ान का इतना बड़ा शोध खड़ा है। अतः क पना से उसे ठोस लाभ होता देखा जाता है। तो अगर ई वर
  • 15. पी क पना से मनु य बखरने से बच सकता है, हताशा से अपनी र ा कर, फर से उ साह पूवक जीवन सं ाम म उतर सकता है, तो उसम दोष या है? और हम तो कहते ह, बंधु ई वर क पना नह ं है। वह जीवन का परम स य है, उसे छोड़कर बाक सब क पना है। वह अतीत म भी स य था, वतमान म भी स य है, और भ व य म भी स य रहेगा। वह कालाबा धत स य है। शेष िज ह हम स य कहते ह, वह व तुतः स य नह ं होते। वह कु छ समय तक के लए अि त ववान् तीत होते ह, पर उसके बाद उनका नाश हो जाता है। ई वर ह शा वत और अ वनाशी है। इस कार गीता कम के फल के वषय म हम जो सीख देती है, वह हम पलायनवाद नह ं बनाती। वह कहती है क हम फल के त आ ह नह ं रखना चा हए, य क आ ह का भाव मन को चंचल बना देता है। इस पर यह कहा जा सकता है क जब हम बना कम फल क चाह के कम कर ह नह ं सकते, तब अनास त होकर कम करने का, फल क चाह न रखकर कम करने का या मतलब है। न काम कम का ता पय न काम कम का ता पय गीता कहती है क फल के चंतन म अपने समय और शि त का नाश मत करो। फल तो तु ह मलेगा ह । जो समय और शि त तुम फल के चंतन म लगाते हो, उसका उपयोग तुम कम करने म करो। गीता का यह त व ान है। गीता कहती है क अपना पूरा समय और अपनी सार शि त कम म लगा दो। फल का चंतन मत करो। जब तुम बेहतर काम करोगे, तो तु ह कम के अटल स धांत से बेहतर फल मलेगा। इस लए भु सम पत भाव से अपने दै नक जीवन के कम करते हुए कहो,- यतम, मेरे सभी कम तु हार पूजा बन जाएं, म खेत ख लहान म जाता हूं, रसोई का काम करता हूं, द तर और बाजार जाता हूं, मेरे यह सभी कम तेर पूजा ह पूजा है। जब यह भाव ढ़ होता है, तब जीवन म गीता का योग अवत रत होता है। गीता का कम योग
  • 16. ​ गीता का कम योग गीता का कमयोग इस बात पर जोर देता है क ई वर पर व वास करो और अपने जीवन क सम त ेरणाओं का उ स उसी को मानो। पूर शि त के साथ हाथ का काम करो, पर फल का अ धकार वयं न लो, िजसका है उसी के पास रहने दो। कम करने का अ धकार तु हारा है और फल देने का अ धकार ई वर का है। इस म को उ टा ना होने दो म उलट जाए तभी सार वप है, और हमम से अ धकांश के जीवन म यह म उ टा रहता है। कम करने का अ धकार हम ई वर को दे देते ह और वयं नठ ले पड़े रहते ह। कहते ह क ई वर क मज हो तो वह करा लेगा, परंतु फल के लए हम आ हवान होते ह। इससे संतुलन बगड़ जाता है और योग स ध नह ं हो पाता। तो हम या कर? म को कसी भी कार उलट ने ना द। जब कम कर, तो पूर त परता और कु शलता के साथ, यह मानकर क कम करने का पूरा अ धकार हमारा है। पर फल के संबंध म सार चंता ई वर पर छोड़ द। ई वर से कह क तुम ह कमफल दाता हो तु हार जो मज हो करो। हम तु हारा हर कया मंजूर है। यह उ चत ि टकोण है और गीताभगवती इसी ि टकोण क श ा देते हुए कहती ह- कम ण एव अ धकार ते मा फलेषु कदाचन । मा कमफलहेतुभूमा ते संगोऽ वकम ण ।। (2/47) -'तेरा अ धकार कम करने म ह है, फल म कभी नह ं। तू कम फल का हेतु मत बन। अकम के त तेरा लगाव न हो।' ीकृ ण अजुन से कहते ह क तू कमफल का हेतु मत बन। या ता पय है इस कथन का? मनु य कम तो करता है, पर उसके फल का हेतु भी वयं बन जाना चाहता है। मनु य वयं य द कम फल को ा त करने का कारण बन जाए, तो वह कम से बंध जाता है। कोई व तु हम कब बांधती है? जब उसक चाह हमम होती है तब। कमफल हम कब बांधता है? जब हम उसके लए आ हवान होते ह तब। गीता कहती है क कम का फल तो कम के अटल स धांत से तु ह मलेगा ह , तु ह इसके लए कारण बनने क आव यकता नह ं। जो चीज तु ह वयं होकर मलने वाल है, उसके लए छ ना झपट य ? कमफल का हेतु तो कम म न हत 'अपूव' नामक शि त है। तुम इस 'अपूव' का थान लेकर य कमपाश नेह बंधना चाहते हो? यह एक नया ि टकोण है, जो गीता से ा त होता है। कम करो फल के त लगाव ना हो। हम कमफल का कारण न बने और अकम से भी दूर रहे। मनु य सोच सकता है क जब मुझे कमफल से कोई योजन नह ं है, तो कम फर क ं ह य ? इस लए गीता माता कहती ह क नह ं, कम करने का योजन है। बना कम कए जीवन का चरम ल य नह ं ा त होता। अ त एवं नि य मत बनो, अकम यता से दूर रहो। कम को भगवत सम पत बु ध से करो। इससे कम का वष सूख जाता है। कम म वाभा वक प से रहने वाल बंधन शि त ख लत हो जाती है। यह कम करने का कौशल है, यह योग है, य क योग को कम करने का कौशल कहा गया है- 'योगः कमसु कौशलम्। ी रामकृ ण देव से भ त ने पूछा, "महाराज! योग को कम क कु शलता कहा है। इसका या मतलब? ी रामकृ ण देव ने उ र म दो उदाहरण दए। कटहल काटने क कु शलता कसम है? इसम क हम कटहल तो कांटे, पर इस कार काटे क उसका दूध हाथ म ना चपक जाए। शहद के छ े से शहद नकालने क कु शलता कसने है? इसम क हम शहद नकाल, पर मधुमि खयां हम काट ना खाएं। इस कार कम करने क कु शलता इसम है क हम कम तो कर पर कम म वभाव से जो बांधने क शि त है वह हम लपेट न ल, कम म जो वष नैस गक प से भरा है वह हम वषा त न कर द। यह 'योग' श द का ता पय है। 'योगः कमसु कौशलम्' तथा 'सम वं योग उ यते' इन दोन प रभाषाओं का यह मला जुला अथ है। वधम का पालन