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चित्त प्रसादन क
े उपाय
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाां सुखिुुःखपुण्यापुण्यदिषयाणाां
भािनातदित्तप्रसािनम्' (योगसूत्र 1/33)
• महचषि पतंजचि ने बताया है चक मैत्री, करुणा, मुचदता और उपेक्षा इन िार
प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृचत्तचनरोध मे
समर्ि होता है
• सुसम्पन्न/सकारात्मक व्यक्तियों में चमत्रता की भावना करनी िाचहए
• दुुःखी जनों पर दया की भावना करनी िाचहए।
• पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी िाचहए
• तर्ा पाप कमि करने क
े स्वभाव वािे पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे।
• इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त
होता है।
• साधक इस प्रकार चवचभन्न व्यक्तियों क
े प्रचत अपनी उि भावना को जागृत
रखकर चित्त को चनमिि, स्वच्छ और प्रसन्न बनाये रखने में सफि रहता है, जो
सम्प्रज्ञात योग की क्तथर्चत को प्राप्त करने क
े चिये अत्यन्त उपयोगी है।
• उपरोि िार साधनों से चित्त चनमिि होता है पर चित्त को एकाग्र करना भी
आवश्ययक है। महचषि पतंजचि ने चनम्न॑चिक्तखत उपाय चित्त को एकाग्र तर्ा
शुद्ध करने क
े चिये बताये है। महचषि पतंजचि ने समाचध पाद में कहा है
• 1. प्रच्छिदन नदिधारणाभ्ाां िा प्राणस्य (योग सूत्र 1/34)
• अर्ाित उदथर् वायु को नाचसकापुट से बाहर चनकािना प्रच्छदिन और भीतर ही
रोक
े रहने को चवधारण कहा है। साधक को िाचहए चक उदर में क्तथर्त प्राणवायु
को बिपूविक बाहर चनकािने से चित्त एकाग्र होकर क्तथर्रता को प्राप्त होता है
चजससे चित्त चनमिि होता है।
• 2. दिषयिती िा प्रिृदत्तरूत्पिन्ना मनस: स्थिदत दनबन्धनी: (योगसूत्र
1/35)
• अर्ाित पृथ्वी जि, तेज, वायु, आकाश ये पंि महाभूत है। गंध, रस, रूप, स्पशि
तर्ा शब्द इसक
े चवषय है। चदव्य और आचदव्य भेद से ये चवषय दस प्रकार क
े
हो जाते है। उि पााँिों गन्धाचद चवषयों का ध्यान करने से भी चित्त चनमिि होता
है।
• 3. दिशोका िा ज्योदतष्मती (योगसूत्र 1/36)
• चित्त चवषयक साक्षात्कार तर्ा अहंकार चवषयक साक्षात्कार चवशोका ज्योचतष्मती
कहे जाते है। हृदय कमि में अनाहत िक्र पर संयम करने पर जो चित्त का
साक्षात्कार होता है यह चित्त चवषयक ज्योचतष्मती प्रवृचत्त कहिाती है इस प्रवृचत्त द्वारा
भी चित्त प्रसन्न होता है।
• 4. िीतरागदिषयां िा दित्तम् (योगसूत्र 1/37)
• अर्ाित् रागाचद दोषों से रचहत ज्ञानवान वैराग्यवान पुरूष को चवषय करने वािा चित्त
भी क्तथर्रता को प्राप्त हो जाता है। जो राग द्वेष आचद से परे है ऐसे योगी, महापुरुषों
क
े जीवन दशिन का अध्ययन करना, उनक
े िररत्र क
े बारे में श्रवण इत्याचद करने से
भी चित्त चनमिि होता है।
• 5. स्वप्नदनद्राज्ञानालम्बनां िा (यो0सूत्र 1/38)
अर्ाित स्वप्न काि में या चनद्राकाि में ईश्वरीय ज्ञान का आिम्बन करने वािा चित्त भी
क्तथर्रता को प्राप्त करता है।
• और अंत में महचषि पतंजचि कहते है-
• 6. यिादभमतध्यानाद्वा (योगसूत्र 1/39)
• अर्ाित चजसको जैसा अचभमत हो उसको वैसा ध्यान करने से चित्त चनमिि होता है।
चजस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र ही क्तथर्रता
को प्राप्त करता है। अनचभग चवषय में चित्त कचिनता से क्तथर्र होता है। इसचिए
भगवान चशव, शक्ति, गणपचत, श्रीचवष्णु इत्याचद देवताओं, चजसे चजस एक में चवशेष
रूचि है उसका ध्यान करने से चित्त क्तथर्रता को प्राप्त कर िेता है।
दित्त
• चित्त शब्द की व्युत्पचत्त 'चिचत संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूचत क
े
साधन को चित्त कहा जाता है।
• जीवात्मा को सुख दुुःख क
े भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो
भी अच्छा या बुरा कमि चकया जाता है, या सुख दुुःख का भोग चकया जाता है,
वह इस शरीर क
े माध्यम से ही सम्भव है।
• कहा भी गया है 'शरीरमाद्यां खलु धमदसाधनम्' अर्ाित प्रत्येक कायि को
करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कमि करने क
े चिये दो प्रकार
क
े साधन हैं, चजन्हें बाह्यकरण व अन्तुःकरण क
े नाम से जाना जाता है।
• बाह्यकरण व अन्तुःकरण क
े नाम से जाना जाता है।
• बाह्यकरण क
े अन्तगित हमारी 5 ज्ञानेक्तियां एवं 5 कमेक्तियां आती हैं। चजनका
व्यापार बाहर की ओर अर्ाित संसार की ओर होता है। बाह्य चवषयों क
े सार्
इक्तियों क
े सम्पक
ि से अन्तर क्तथर्त आत्मा को चजन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या
सुख - दुुःख की अनुभूचत होती है, उन साधनों को अन्तुःकरण क
े नाम से जाना
जाता है। यही अन्तुःकरण चित्त क
े अर्ि में चिया जाता है।
• योग दशिन में मन, बुक्तद्ध, अहंकार इन तीनों क
े सक्तिचित रूप को चित्त क
े
नाम से प्रदचशित चकया गया है।
• परन्तु वेदान्त दशिन अन्तुःकरण ितुष्टय की बात करता है,
• वेदान्त दशिन में मन, बुस्ि, अहांकार और दित्त इन िारों क
े सक्तिचित रूप को
अन्तुःकरण नाम चदया गया है।
• योग दशिन की ही भांचत मन का कायि संकल्प- चवकल्प करना, बुक्तद्ध का कायि
चनश्चय करना, अहंकार का कायि सत्तात्मक भाव िाना व स्वत्व परत्व जोड़ना
मानता है।
• सार् ही वह चित्त का कायि स्मरण कराना मानता है। व्यवहार में मन, बुक्तद्ध और
चित्त को प्रायुः पयाियवािी क
े रूप में प्रयोग चकया जाता है। सांख्य दशिन भी
बुक्तद्धतत्व को चित्त क
े अर्ि में ही िेता है।
दित्त का स्वरूप
• चित्त का स्वरूप अत्यन्त चविक्षण है। यद्यचप चित्त आत्मा से चभन्न तत्व है चफर
भी आत्मा से पृर्क करक
े इसको देखना अत्यन्त कचिन है। चित्त प्रक
ृ चत का
साक्तत्वक पररणाम है। अतुः प्रक
ृ चत का कायि है। प्रक
ृ चत चत्रगुणात्मक है। अतुः
चित्त भी चत्रगुणात्मक है।
• सत्व की प्रधानता होने क
े कारण इसको प्रक
ृ चत का प्रर्म पररणाम माना
जाता है। सांख्य और योग क
े मत में चित् चिचत, िैतन्य पुरुष और आत्मा ये
सब पयाियवािक शब्द हैं।
• चित्त अपने आप में अपररणामी, क
ू टथर् और चनक्तिय है। इसी चित्त अर्वा
पुरुष तत्व को भोग और मोक्ष देने क
े चिए इसक
े सार् प्रक
ृ चत का संयोग होता
है। प्रक
ृ चत का प्रर्म पररणाम रूप बुक्तद्ध या चित्त तत्व ही भोग और मोक्षरूप
प्रयोजन की चसक्तद्ध करता है।
• चित क
े संयोग से बुक्तद्ध चित्त कहिाती है 'दियुक्तां दित्तम' यही चित्त शब्द की
व्युत्पचत्त है।
• 'चियुिम्' का अर्ि यह है चक पुरुष क
े सम्पक
ि से बुक्तद्ध िेतनवत् हो जाती है।
इसीचिए उसे चित्त कह चदया गया है।
• िेतनवत् होते ही चित्त में कायि करने की क्षमता आ जाती है। चित्त क
े सम्पक
ि
से पुरुष में यह पररवतिन आ जाता है चक वह चित्त क
े चकये गये कायों को
अपना कायि मान बैिता है। जो कतृित्व और भोिृत्व चित्त का धमि र्ा,
अहंकारवश पुरुष स्वयं को कताि और भोिा मान बैिता है।
• यद्यचप चित्त एक है, चकन्तु चत्रगुणी प्रक
ृ चत का पररणाम अनेकचवध होने से यह
अनेक सा प्रतीत होता है।
• चित्त को अन्तुः करण या अन्तररक्तिय कहा जाता है। योगदशिन में अन्तुःकरण
क
े चिए चित्त शब्द का प्रयोग चकया गया है।
• न्यायदशिन में अन्तुः:करण क
े चिए मन शब्द का प्रयोग हुआ है।
• अद्दैत वेदान्त में अन्तुःकरण क
े िार भेद स्वीकार चकये गये हैं. मन, बुक्तद्ध,
अहंकार और चित्त।
दित्तभूदम
• चित्त में प्रक
ृ चत क
े तीनों गुण सत्व, रज और तम चवद्यमान हैं। सबक
े चित्त एक
समान नहीं हैं।
• इन तीनों की चवचभन्न क्तथर्चतयों क
े कारण चित्त भी चवचभन्न क्तथर्चतयों वािा हो
जाता है।
• योगदशिन में चित्त की क्तथर्चतयों को मूढ, चक्षप्त, चवचक्षप्त, एकाग्र और चनरुद्ध
इन पााँि क्तथर्चतयों में बॉटा है। चजन्हें चित्त की अवथर्ायें या चित्तभूचम क
े नाम से
भी जाना जाता है।
• 1. मूढ-
• मूढावथर्ा पूणितया तमोगुणी अवथर्ा है।
• तमोगुण का धमि होता है क्तथर्चत, तमोगुण की प्रधानता होने क
े कारण चित्त की
इस अवथर्ा में चित्त में अज्ञान बना रहता है।
• बुक्तद्ध में जड़ता होती है, चवषयों क
े यर्ार्ि ज्ञान का अभाव होता है। इसी
कारण चवषयों क
े प्रचत इस अवथर्ा में मोह उत्पन्न होता है तर्ा ऐसे चित्त से
युि जीवात्मा संसार में फ
ं सा रहता है।
• 2. दक्षप्त-
• चक्षप्तावथर्ा पूणितया रजोगुणी अवथर्ा है।
• इस अवथर्ा वािा चित्त िंिि बना रहता है। वह चनरन्तर चवषयों की ओर
भागता रहता है। यह रजोगुण की प्रधानता क
े कारण होता है।
• क्ोंचक रजोगुण का धमि है चक्रयाशीिता इसचिए रजोगुण से युि चित्त भी
चनरन्तर चक्रयाशीि बना रहता है। वह चकसी भी चवषय पर क्तथर्र नहीं हो पाता,
एक चवषय प्राप्त होने पर वह तुरन्त दू सरे चवषय की ओर दौड़ने िगता है।
• इसी कारण चित्त में दुुःख की उत्पचत्त होती है।
• 3. दिदक्षप्त-
• चित्त की यह अवथर्ा भी पूणितया रजोगुणी होती है। चकन्तु कभी कभी इस अवथर्ा
में सत्वगुण का प्रभाव भी उत्पन्न हो जाता है।
• इस अवथर्ा में जब चित्त में रजोगुण प्रधान होता तो वह बचहमुिख होकर चवषयों की
ओर भागता रहता है और
• जब कभी सत्वगुण बढ़ जाता है तो चित्त में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है और
क
ु छ समय क
े चिए चित्त अन्तमुिखी हो जाता है। चकन्तु बार- बार गुणों की अवथर्ा
पररवचतित होने क
े कारण चित्त की इस अवथर्ा में भी क्तथर्रता का अभाव होता है।
• इसीचिए इस अवथर्ा को चवचक्षप्तावथर्ा कहा जाता है। यह अवथर्ा मूढावथर्ा तर्ा
चक्षप्तावथर्ा से क
ु छ श्रेष्ठ कही जाती है।
• 4. एकाग्र-
• चित्त की एकाग्र अवथर्ा पूणितया सत्वगुणी होती है। रज व तम दोनों न्यून हो
जाते हैं।
• अब रजोगुण क
े वि साक्तत्वकवृचत्त को चक्रयाशीि बनाये रखने का कायि करता
है तर्ा तमोगुण उस साक्तत्वक वृचत्त को क्तथर्र बनाये रखने का कायि करता है।
• चजससे चवषयों का यर्ार्ि ज्ञान चित्त में उत्पन्न होने िगता है। सार् ही वैराग्य
भाव दृढ़ होने िगता है तर्ा चित्त में सुख की उत्पचत्त होती है। ध्यान की यही
अवथर्ा है। इसी अवथर्ा को सम्प्रज्ञात योग (सम्प्रज्ञात समाचध) भी कहा जाता
है।
• 5.दनरुि-
• चित्त की यह अवथर्ा चत्रगुणातीत अवथर्ा ही है। चनरन्तर अभ्यास से सभी
चवषयों का ज्ञान प्राप्त करने पर समस्त वृचत्तयााँ समाप्त हो जाती हैं।
• इस अवथर्ा में चित्त शान्त हो जाता है। चववेकख्याचत वृचत्त भी परवैराग्य द्वारा
हटाने क
े बाद चनबीज या असम्प्रज्ञात समाचध की क्तथर्चत है। सविवृचत्तचनरोध होने
क
े कारण द्रष्टा की स्वरूपक्तथर्चत इस अवथर्ा क
े पश्चात आ जाती है।
• शास्त्ों में चित्त को स्वच्छ दपिण क
े समान या शुद्ध स्फचटक मचण क
े समान
बताया है।
• जैसे ये दोनों सम्पक
ि में आने वािे चवषयों क
े आकार को ग्रहण कर तदाकार
हो जाते हैं, उन्हीं क
े रूप रंग को धारण कर िेते हैं। उसी प्रकार चित्त भी जब
इक्तियों क
े माध्यम से चवषयों क
े सम्पक
ि में आता है तो वह भी उसी चवषय क
े
आकार को ग्रहण कर िेता है। चजसे चित्त का चवषयाकार होना या चित्त का
पररणाम कहा जाता है।
•
दित्तिृदत्त
• दित्तिृदत्त
• चित्त का रूपान्तरण ही वृचत्त है। चित्त स्फचटक मचण क
े समान चनमिि तत्व है।
उसका अपना कोई आकार नहीं होता। चजस चवषय क
े सम्पक
ि में वह आता है
उसी क
े समान आकार को धारण कर िेता है। यह चवषयाकारता ही वृचत्त
कहिाती है। वृचत्त व्यापार को कहा जाता है। िक्षु आचद इक्तियों का अपने
रूप आचद चवषयों क
े सार् सम्बन्ध होना व्यापार है। बाह्यकरण िक्षुआचद का
जो व्यापार है, वही व्यापार अन्तुःकरण चित्त का रहता है।
• क्लेशों क
े कारण वृचत्तयों क
े दो भेद माने गये हैं। परन्तु वास्तव में ये वृचत्तयां
पााँि है। उन पााँिों वृचत्तयों क
े भी दो दो भेद होते हैं। योगसूत्र में कहा गया है-
• िृत्तयुः पांििृदतयुः स्िष्टाऽस्िप्ाुः। (योगसूत्र 1/5)
• अर्ाित वृचत्तयााँ पााँि प्रकार की हैं, जो क्लेशो को उत्पन और क्लेशो का नाश
करने वािी हैं।
• िेश पााँि प्रकार क
े कहे गये हैं- अदिद्या, अस्िता, राग, द्वेष और
अदभदनिेश।
• अचवद्या आचद क्लेशों क
े सहयोग से इक्तियों की चवषयों में प्रवृचत्त रूप वृचत्तयााँ
दुुःख आचद को उत्पन्न करती हैं। चजन वृचत्तयों क
े हेतु अचवद्या आचद क्लेश नहीं
हैं, प्रत्युत आध्याक्तत्मक भावनाओं से प्रेरणा पाकर इक्तिय वृचत्तयााँ उभरती हैं वे
'अक्तक्लष्ट' हैं,
• दुुःख आचद को उत्पन्न करने क
े बजाय वे उनक
े नाश करने में सहयोगी होती
हैं। ये वृचत्तयााँ अभ्यासी को चववेकख्याचत की ओर अग्रसर करती हैं, एवं उसे
िक्ष्य तक पहुाँिाती है।
• योगसूत्र में महदषद पतांजदल ने दित्त की पाांि िृदत्तयााँ बतायी हैं- 1. प्रमाण 2.
दिपयदय 3. दिकल्प 4. दनद्रा 5. िृदत
“प्रमाणदिपयदयदिकल्पदनद्रािृतय:।” (योगसूत्र- 1/6)
•
• 1. प्रमाण िृदत्त- प्रमा करणं प्रमाणम् अर्ाित प्रमा (ज्ञान) क
े करण (साधन) को
प्रमाण कहते हैं अर्वा प्रमीयतेऽनेनेचत प्रमाणम् अर्ाित चजससे प्रमा ज्ञान होता है।
वह प्रमाण कहिाता है अर्ाित प्रमा क
े साधन का नाम प्रमाण है। कहा गया. है-
'प्रत्यक्षानुमानागमाुः प्रमाणादन (योगसूत्र- 1/7)
अर्ाित प्रमाण वृचत्त तीन प्रकार की है- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
• प्रत्यक्षानुमानागमाुः प्रमाणादन (योगसूत्र- 1/7)
अर्ाित प्रमाण वृचत्त तीन प्रकार की है- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
•
• (क) प्रत्यक्ष प्रमाण- कहा गया है-
• इस्ियप्रणादलकया दित्तस्य बाह्मिस्तूपरागात् तदद्वषया
सामान्यदिशेषात्मनोऽिदस्य दिशेषािधारणप्रधाना िृदत्त: प्रत्यक्ष प्रमाणम्।
• अर्ाित इक्तियों क
े द्वारा चित्त का बाह्य चवषयों से सम्बन्ध होने से, उनको अपना
चवषय करने वािी सामान्य चवशेषरूप पदार्ि क
े चवशेष अंश को प्रधान रूप से
चनश्चय करने वािी वृचत्त प्रत्यक्ष प्रमाण कहिाती है
• अर्वा यह भी कह सकते हैं चक इक्तिय और वस्तु क
े सचन्नकषि से उत्पन्न ज्ञान
को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और उसका साधन हमारी इक्तियां होती हैं। अतुः उस
ज्ञान क
े उत्पन्न होने का कारण हमारी इक्तियााँ होने क
े कारण इक्तियों को
प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाएगा।
• क
ु छ दाशिचनकों का मत है चक सामान्य ही पदार्ि हैं, क
ु छ कहते हैं चक चवशेष
ही पदार्ि है और क
ु छ का मत है चक पदार्ि सामान्य और चवशेष से युि है।
• चकन्तु सांख्य और योग क
े अनुसार पदार्ि न तो सामान्य रूप है,न चवशेष रूप
है और न ही सामान्य चवशेष से युि है अचपतु पदार्ि सामान्यचवशेष रूप है।
• चनष्कषि यह हुआ चक इक्तिय द्वारा घटाचद चवशेष क
े आकार वािी जो चित्तवृचत्त
है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
•
(ख) अनुमान प्रमाण- चकसी अन्य वस्तु क
े अनुसार चकसी वस्तु का ज्ञान करना
अनुमान ज्ञान कहिाता है। कहा गया है-
• “अनुमेयस्य तुल्यजातीयेष्वनुिृत्तो दभन्नजातीयेभ्ो व्यािृत्तुः सम्बन्धोां यस्तदद्वषया
सामान्यािधारणप्रधाना िृदत्तरनुमानम्“।
• अर्ाित अचि आचद अनुमेय साध्य का, पविताचद पक्ष सदृश महानसाचद में रहने वािा
तर्ा चभन्नजातीय तड़ागाचद में नहीं रहने वािा जो व्याक्तप्तरूप सम्बन्ध है, तचद्वषयक
सामान्य अंश का प्रधानरूप से चवषय करने वािी जो बुक्तद्धवृचत्त है, वह अनुमान
प्रमाण कहिाती है। जैसे िि तारागण गचत वािे हैं क्ोंचक वे एक थर्ान से दू सरे
थर्ान पर जाते हैं। जो एक थर्ान से दू सरे थर्ान पर नहीं जाता, वह गचतमान नहीं
होता, जैसे पवित।
• सांख्य और योग दोनों ही शास्त्ों ने कारण कायि भाव संबन्ध को मान्यता प्रदान
की है। अतुः कहने का तात्पयि है, चक कायि क
े अनुसार कारण और कारण क
े
अनुसार कायि का ज्ञान करना अनुमान ज्ञान कहिाता है। यह तीन प्रकार का
होता है
• पूिदित- यह अनुमान प्रमाणवृचत्त का एक ऐसा चसद्धान्त है चजसमें कारण क
े
अनुसार कायि का अनुमान चकया जाता है। जैसे यचद कािे बादि और
आकाशीय चबजिी की िमक तर्ा बादिों की गड़गडाहट सुनाई दे तो भचवष्य
में होने वािी वषाि का अनुमान होता है जो चक वतिमान में इक्तियों क
े द्वारा ग्राह्य
नहीं है। इस प्रकार क
े अनुमान को पूविवत (कारण क
े अनुसार) उत्पन्न होने
वािा ज्ञान कहा आएगा।
•
• शेषित- जब कायि को देखकर कारण का अनुमान चकया जाए तो उसे शेषवत
अनुमान कहा जाता है। शेष कहने का तात्पयि कायि से है। जैसे नदी क
े चमट्टी चमिे
एवं बढ़े हुए जि स्तर को देख कर, उसक
े कारणरूप पवितों पर हुई वषाि का
अनुमान चकया जाता है। वषाि एक या दो चदन पहिे पवितों पर हो िुकी जो चक
इक्तियों क
े द्वारा ग्राह्य नहीं है। परन्तु उसका ज्ञान पररणाम को देख कर आज चकया
जा रहा है। इसी को शेषवत अनुमान कहते हैं।
• सामान्यतुः दृष्ट- एक बार से अचधक बार देखे गए की संज्ञा सामान्यतुः दृष्ट होती है।
कहने का तात्पयि है चक जब चकसी कायि क
े कारण को अनेक बार देख कर उसका
ज्ञान चकया जाता है तो चफर वह सामान्य की अवथर्ा को प्राप्त हो जाता है चफर यचद
उसी जाचत का कायि अन्य थर्ान पर चबना उपादान कारण क
े होगा तो उसक
े
उपादान कारण का ज्ञान अनुमान नामक प्रमाण वृचत्त से कर चिया जाएगा।
• जैसे हम बिपन से ही देखते है चक क
ु म्हार घट का चनमािण कर रहा है और
िोहार िोहे से बने हचर्यारों का ऐसी अवथर्ा को अनेक बार देखना
सामान्यतुः दृष्ट कहा जाता है,
• अब इसक
े बाद यचद चकसी अन्य घट को हम बाजार में देखते हैं तो अनुमान
करेंगे चक इस घट का चनमािता भी क
ु म्हार ही है या िोहे से बने हचर्यारों का
चनमािता िोहार है। इसी क्तथर्चत को सामान्यतुःदृष्ट अनुमान प्रमाण वृचत्त कहा
जाता है।
• (ग) आगम प्रमाण- जब चकसी वस्तु अर्वा तत्व क
े ज्ञान का कारण न तो
इक्तियां होती है और न ही उनका अनुमान चकया जाए तो उस ज्ञान को आगम
प्रमाण से चसद्ध चकया जाता है जैसे स्वगि और नरक आचद।
• आप्तेन दृष्टोऽनुदमतो िाऽिदुः परत्र स्वबोधसांक्ाांतये शब्देनोपदिश्यते
शब्दात् तििददिषयािृदत्तुः श्रोतुरागम:।
• अर्ाित आप्तपुरुष अर्वा आप्तग्रन्ों द्वारा प्रत्यक्ष अर्वा अनुमान से ज्ञात
चवषय को दू सरे में ज्ञान उत्पन्न करने क
े चिये शब्द क
े द्वारा उपदेश चकया
जाता है। वहां शब्द से उस अर्ि को चवषय करने वािी जो श्रोता की वृचत्त है,
वह आगम प्रमाण कहिाती है।
• अर्ाित आप्तपुरुष अर्वा आप्तग्रन्ों द्वारा प्रत्यक्ष अर्वा अनुमान से ज्ञात चवषय को
दू सरे में ज्ञान उत्पन्न करने क
े चिये शब्द क
े द्वारा उपदेश चकया जाता है।
• वहां शब्द से उस अर्ि को चवषय करने वािी जो श्रोता की वृचत्त है, वह आगम प्रमाण
कहिाती है।
• वास्तव में स्वगि को िक्षु आचद इक्तियों से ग्रहण नहीं चकया जा सकता और न ही वह
चकसी क
े द्वारा अनुमाचनत है परन्तु स्वगि की मान्यता है। यहां पर आगम प्रमाण की
मान्यता पुष्ट होती है। क्ोंचक वेदाचद ग्रन्ों में अनेक थर्ानों पर स्वगि और नरक की
कल्पना की गई है। इस चिए उसकी सत्ता को मानना अचनवायि हैं। इस आगम
प्रमाण क
े अन्तगित आप्त पुरुष अर्वा आप्त ग्रन्ों की भी गणना की जाती है।
• 2. दिपयदय- चमथ्या ज्ञान को चवपयिय कहते हैं। वह चमथ्या ज्ञान वस्तुतत्व क
े
रूप में प्रचतचष्ठत नहीं होता योगदशिन में कहा गया है-
• “दिपयदयो दमथ्याज्ञानमतद्रूपप्रदतष्ठम्“ (योगसूत्र 1/8)
• अंधकार आचद दोषों क
े कारण पुरोवती रस्सी को सांप समझना चमथ्याज्ञान है।
• सांपचवषयक चित्तवृचत्त पुरोवती वस्तुतत्व रस्सी क
े रूप में प्रचतचष्ठत नही है।
अतुः यह चित्तवृचत्त योगदशिन में चवपयिय नाम से जानी जाती है।
• इसी प्रकार सीप में िांदी चवषयक वृचत्त, देह तर्ा इक्तिय में आत्मचवषयक
चित्तवृचत्त का नाम चवपयिय है।
•
3. दिकल्प- योगदशिन में कहा गया है-
• “शब्दज्ञानानुपाती िस्तुशून्यो दिकल्पुः“ (योगसूत्र 1/9)
वस्तुशून्य होने पर भी शब्दजन्य ज्ञान क
े प्रभाव से जो व्यवहार देखा जाता है, वह
चवकल्प वृचत्त है।
• दू सरे शब्दों में कहा जा सकता है चक शब्द और शब्दज्ञान क
े अनुसार उभरने वािी
चित्त की वृचत्त यचद चवषयगत वस्तु से शून्य हो तो चवकल्प कहिाती है।
• चकसी शब्द क
े उच्चारण और उससे होने वािे शब्दज्ञान क
े अनुसार उसक
े प्रभाव से
सुननेवािे व्यक्ति क
े चित्त में उभरने वािी वृचत्त को “'चवकल्प' कहते हैं। परन्तु चजस
आधार पर वह शब्द या शब्द समूह कहा गया है, उसका सदा ही वहााँ अभाव होना
आवश्यक है।
•
4. दनद्रा-
• प्रमाण, चवपयिय और चवकल्प क
े समान चनद्रा भी एक वृचत्त है, ऐसा सांख्ययोग
का चसद्धान्त है।
• नैयाचयक चनद्रा को वृचत्त नही मानते हैं। उनक
े मतानुसार चनद्रा ज्ञानाभाव रूप
है।
• चनद्रा का स्वरूप महचषि पतंजचि ने इस प्रकार प्रस्तुत चकया है चक अभाव की
प्रतीचत को चवषय करने वािी चित्तवृचत्त का नाम चनद्रा है
“अभािप्रत्ययालम्बना िृदत्तदनद्राुः“ (योगसूत्र 1/10)
• यहां पर ज्ञान क
े अभाव की प्रतीचत समझनी िाचहए। इक्तियों से होने वािे ज्ञान
का उस अवथर्ा में अभाव रहता है। यह चववरण सुषुक्तप्त अवथर्ा का है। जैसे
जाग्रत और स्वप्न अवथर्ा में इक्तिय ज्ञान होते रहते हैं ऐसा ज्ञान सुषुक्तप्त अवथर्ा
में नहीं होता। तात्पयि यह है चक “चनद्रा' नामक वृचत्त सुषुक्तप्त अवथर्ा है
• इसको िोक में गाढ़ चनद्रा या गहरी नींद कहते हैं। जब व्यक्ति इस चनद्रा से
जाग उिता है तो कहता है “मैं सुखपूविक सोया'। यह ज्ञान चनद्रा की अवथर्ा में
होता है। इसी का नाम चनद्रा वृचत्त है। चनद्रा होने क
े सार् सार् सुख क
े अनुभव
क
े कारण इस अवथर्ा को वृचत्त कहा गया है।
• 5. िृदत- पहिे अनुभव चकये हुए चवषय का चफर उभर आना स्मृचत नामक
चित्तवृचत्त है
“अनुभूतदिषयाऽसम्प्रमोष: िृदत (योगसूत्र 1/11)
• सूत्र क
े 'असम्प्रमोष:' पद में “मुष्' धातु का प्रयोग है, चजसका अर्ि धातुपाि में 'स्तेय'
िोरी करना, चनदेश चकया गया है। अपने अचधकार की चकसी वस्तु का अवैधाचनक
रूप से उिा चिया जाना, अर्वा दू र कर चदया जाना।
• इस पद में 'सम' और "“प्र' दो उपसगि हैं, जो धात्वर्ि की उग्रता को अचभव्यि करते
हैं। एक अचधकार से वस्तु का चनतान्त अनाचधक
ृ त रूप में ििे जाना। “सम्प्रमोष' पद
का नंि क
े सार् समास कर “असम्प्रमोष' पद से पूविि अर्ि क
े पूणि चवपरीत अर्ि
का अचभव्यंजन चकया गया है।
• चकसी व्यक्ति क
े द्वारा अनुभूत चवषय का उसक
े ज्ञान क
े रूप में पूणितया उस
व्यक्ति क
े अचधकार में रहना। चवषय की अनुभूचत क
े अनन्तर अनुभवजन्य
संस्कार आत्मा में चनचहत रहते हैं।
• कािान्तर में अनुक
ू ि चनचमत्त उपक्तथर्त होने पर संस्कार उभर जाते हैं, जो उस
चवषय को याद करा देते हैं। इस प्रकार की चित्तवृचत्त का नाम 'स्मृचत' है।
• अनुभूचत क
े समान संस्कार होते हैं और संस्कारों क
े सदृश ही 'स्मृचत' हुआ
करती है। स्मृचत का चवषय सदा वही होता है जो अनुभव का चवषय रहा है।
चबना अनुभव चकये हुए का स्मरण नहीं होता।
• उपयुिि प्रमाण, चवपयिय, चवकल्प, चनद्रा और स्मृचत ये पांि प्रकार की वृचत्तयां
चनरोध करने योग्य हैं क्ोंचक ये सुख दुुःख और मोहरूप है।
• सुख, दुुःख और मोह तो क्लेशों क
े ही अन्दर आते हैं। किेशरूप होने क
े
कारण इन सभी का चनरोध आवश्यक है।
• इन वृचत्तयों का चनरोध होने पर सम्प्रज्ञात समाचध तर्ा सम्प्रज्ञात समाचध क
े
द्वारा असम्प्रज्ञात समाचध का िाभ योचगयों को होता है।

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  • 1. चित्त प्रसादन क े उपाय मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाां सुखिुुःखपुण्यापुण्यदिषयाणाां भािनातदित्तप्रसािनम्' (योगसूत्र 1/33)
  • 2. • महचषि पतंजचि ने बताया है चक मैत्री, करुणा, मुचदता और उपेक्षा इन िार प्रकार की भावनाओं से भी चित्त शुद्ध होता है। और साधक वृचत्तचनरोध मे समर्ि होता है • सुसम्पन्न/सकारात्मक व्यक्तियों में चमत्रता की भावना करनी िाचहए • दुुःखी जनों पर दया की भावना करनी िाचहए। • पुण्यात्मा पुरुषों में प्रसन्नता की भावना करनी िाचहए • तर्ा पाप कमि करने क े स्वभाव वािे पुरुषों में उदासीनता का भाव रखे। • इन भावनाओं से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त शीघ्र ही एकाग्रता को प्राप्त होता है।
  • 3. • साधक इस प्रकार चवचभन्न व्यक्तियों क े प्रचत अपनी उि भावना को जागृत रखकर चित्त को चनमिि, स्वच्छ और प्रसन्न बनाये रखने में सफि रहता है, जो सम्प्रज्ञात योग की क्तथर्चत को प्राप्त करने क े चिये अत्यन्त उपयोगी है। • उपरोि िार साधनों से चित्त चनमिि होता है पर चित्त को एकाग्र करना भी आवश्ययक है। महचषि पतंजचि ने चनम्न॑चिक्तखत उपाय चित्त को एकाग्र तर्ा शुद्ध करने क े चिये बताये है। महचषि पतंजचि ने समाचध पाद में कहा है • 1. प्रच्छिदन नदिधारणाभ्ाां िा प्राणस्य (योग सूत्र 1/34)
  • 4. • अर्ाित उदथर् वायु को नाचसकापुट से बाहर चनकािना प्रच्छदिन और भीतर ही रोक े रहने को चवधारण कहा है। साधक को िाचहए चक उदर में क्तथर्त प्राणवायु को बिपूविक बाहर चनकािने से चित्त एकाग्र होकर क्तथर्रता को प्राप्त होता है चजससे चित्त चनमिि होता है। • 2. दिषयिती िा प्रिृदत्तरूत्पिन्ना मनस: स्थिदत दनबन्धनी: (योगसूत्र 1/35) • अर्ाित पृथ्वी जि, तेज, वायु, आकाश ये पंि महाभूत है। गंध, रस, रूप, स्पशि तर्ा शब्द इसक े चवषय है। चदव्य और आचदव्य भेद से ये चवषय दस प्रकार क े हो जाते है। उि पााँिों गन्धाचद चवषयों का ध्यान करने से भी चित्त चनमिि होता है।
  • 5. • 3. दिशोका िा ज्योदतष्मती (योगसूत्र 1/36) • चित्त चवषयक साक्षात्कार तर्ा अहंकार चवषयक साक्षात्कार चवशोका ज्योचतष्मती कहे जाते है। हृदय कमि में अनाहत िक्र पर संयम करने पर जो चित्त का साक्षात्कार होता है यह चित्त चवषयक ज्योचतष्मती प्रवृचत्त कहिाती है इस प्रवृचत्त द्वारा भी चित्त प्रसन्न होता है। • 4. िीतरागदिषयां िा दित्तम् (योगसूत्र 1/37) • अर्ाित् रागाचद दोषों से रचहत ज्ञानवान वैराग्यवान पुरूष को चवषय करने वािा चित्त भी क्तथर्रता को प्राप्त हो जाता है। जो राग द्वेष आचद से परे है ऐसे योगी, महापुरुषों क े जीवन दशिन का अध्ययन करना, उनक े िररत्र क े बारे में श्रवण इत्याचद करने से भी चित्त चनमिि होता है।
  • 6. • 5. स्वप्नदनद्राज्ञानालम्बनां िा (यो0सूत्र 1/38) अर्ाित स्वप्न काि में या चनद्राकाि में ईश्वरीय ज्ञान का आिम्बन करने वािा चित्त भी क्तथर्रता को प्राप्त करता है। • और अंत में महचषि पतंजचि कहते है- • 6. यिादभमतध्यानाद्वा (योगसूत्र 1/39) • अर्ाित चजसको जैसा अचभमत हो उसको वैसा ध्यान करने से चित्त चनमिि होता है। चजस साधक को जो स्वरूप अभीष्ट हो उसमें ध्यान करने से चित्त शीघ्र ही क्तथर्रता को प्राप्त करता है। अनचभग चवषय में चित्त कचिनता से क्तथर्र होता है। इसचिए भगवान चशव, शक्ति, गणपचत, श्रीचवष्णु इत्याचद देवताओं, चजसे चजस एक में चवशेष रूचि है उसका ध्यान करने से चित्त क्तथर्रता को प्राप्त कर िेता है।
  • 7. दित्त • चित्त शब्द की व्युत्पचत्त 'चिचत संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूचत क े साधन को चित्त कहा जाता है। • जीवात्मा को सुख दुुःख क े भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कमि चकया जाता है, या सुख दुुःख का भोग चकया जाता है, वह इस शरीर क े माध्यम से ही सम्भव है। • कहा भी गया है 'शरीरमाद्यां खलु धमदसाधनम्' अर्ाित प्रत्येक कायि को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कमि करने क े चिये दो प्रकार क े साधन हैं, चजन्हें बाह्यकरण व अन्तुःकरण क े नाम से जाना जाता है।
  • 8. • बाह्यकरण व अन्तुःकरण क े नाम से जाना जाता है। • बाह्यकरण क े अन्तगित हमारी 5 ज्ञानेक्तियां एवं 5 कमेक्तियां आती हैं। चजनका व्यापार बाहर की ओर अर्ाित संसार की ओर होता है। बाह्य चवषयों क े सार् इक्तियों क े सम्पक ि से अन्तर क्तथर्त आत्मा को चजन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुुःख की अनुभूचत होती है, उन साधनों को अन्तुःकरण क े नाम से जाना जाता है। यही अन्तुःकरण चित्त क े अर्ि में चिया जाता है। • योग दशिन में मन, बुक्तद्ध, अहंकार इन तीनों क े सक्तिचित रूप को चित्त क े नाम से प्रदचशित चकया गया है।
  • 9. • परन्तु वेदान्त दशिन अन्तुःकरण ितुष्टय की बात करता है, • वेदान्त दशिन में मन, बुस्ि, अहांकार और दित्त इन िारों क े सक्तिचित रूप को अन्तुःकरण नाम चदया गया है। • योग दशिन की ही भांचत मन का कायि संकल्प- चवकल्प करना, बुक्तद्ध का कायि चनश्चय करना, अहंकार का कायि सत्तात्मक भाव िाना व स्वत्व परत्व जोड़ना मानता है। • सार् ही वह चित्त का कायि स्मरण कराना मानता है। व्यवहार में मन, बुक्तद्ध और चित्त को प्रायुः पयाियवािी क े रूप में प्रयोग चकया जाता है। सांख्य दशिन भी बुक्तद्धतत्व को चित्त क े अर्ि में ही िेता है।
  • 10. दित्त का स्वरूप • चित्त का स्वरूप अत्यन्त चविक्षण है। यद्यचप चित्त आत्मा से चभन्न तत्व है चफर भी आत्मा से पृर्क करक े इसको देखना अत्यन्त कचिन है। चित्त प्रक ृ चत का साक्तत्वक पररणाम है। अतुः प्रक ृ चत का कायि है। प्रक ृ चत चत्रगुणात्मक है। अतुः चित्त भी चत्रगुणात्मक है। • सत्व की प्रधानता होने क े कारण इसको प्रक ृ चत का प्रर्म पररणाम माना जाता है। सांख्य और योग क े मत में चित् चिचत, िैतन्य पुरुष और आत्मा ये सब पयाियवािक शब्द हैं। • चित्त अपने आप में अपररणामी, क ू टथर् और चनक्तिय है। इसी चित्त अर्वा पुरुष तत्व को भोग और मोक्ष देने क े चिए इसक े सार् प्रक ृ चत का संयोग होता है। प्रक ृ चत का प्रर्म पररणाम रूप बुक्तद्ध या चित्त तत्व ही भोग और मोक्षरूप प्रयोजन की चसक्तद्ध करता है।
  • 11. • चित क े संयोग से बुक्तद्ध चित्त कहिाती है 'दियुक्तां दित्तम' यही चित्त शब्द की व्युत्पचत्त है। • 'चियुिम्' का अर्ि यह है चक पुरुष क े सम्पक ि से बुक्तद्ध िेतनवत् हो जाती है। इसीचिए उसे चित्त कह चदया गया है। • िेतनवत् होते ही चित्त में कायि करने की क्षमता आ जाती है। चित्त क े सम्पक ि से पुरुष में यह पररवतिन आ जाता है चक वह चित्त क े चकये गये कायों को अपना कायि मान बैिता है। जो कतृित्व और भोिृत्व चित्त का धमि र्ा, अहंकारवश पुरुष स्वयं को कताि और भोिा मान बैिता है।
  • 12. • यद्यचप चित्त एक है, चकन्तु चत्रगुणी प्रक ृ चत का पररणाम अनेकचवध होने से यह अनेक सा प्रतीत होता है। • चित्त को अन्तुः करण या अन्तररक्तिय कहा जाता है। योगदशिन में अन्तुःकरण क े चिए चित्त शब्द का प्रयोग चकया गया है। • न्यायदशिन में अन्तुः:करण क े चिए मन शब्द का प्रयोग हुआ है। • अद्दैत वेदान्त में अन्तुःकरण क े िार भेद स्वीकार चकये गये हैं. मन, बुक्तद्ध, अहंकार और चित्त।
  • 13. दित्तभूदम • चित्त में प्रक ृ चत क े तीनों गुण सत्व, रज और तम चवद्यमान हैं। सबक े चित्त एक समान नहीं हैं। • इन तीनों की चवचभन्न क्तथर्चतयों क े कारण चित्त भी चवचभन्न क्तथर्चतयों वािा हो जाता है। • योगदशिन में चित्त की क्तथर्चतयों को मूढ, चक्षप्त, चवचक्षप्त, एकाग्र और चनरुद्ध इन पााँि क्तथर्चतयों में बॉटा है। चजन्हें चित्त की अवथर्ायें या चित्तभूचम क े नाम से भी जाना जाता है।
  • 14. • 1. मूढ- • मूढावथर्ा पूणितया तमोगुणी अवथर्ा है। • तमोगुण का धमि होता है क्तथर्चत, तमोगुण की प्रधानता होने क े कारण चित्त की इस अवथर्ा में चित्त में अज्ञान बना रहता है। • बुक्तद्ध में जड़ता होती है, चवषयों क े यर्ार्ि ज्ञान का अभाव होता है। इसी कारण चवषयों क े प्रचत इस अवथर्ा में मोह उत्पन्न होता है तर्ा ऐसे चित्त से युि जीवात्मा संसार में फ ं सा रहता है।
  • 15. • 2. दक्षप्त- • चक्षप्तावथर्ा पूणितया रजोगुणी अवथर्ा है। • इस अवथर्ा वािा चित्त िंिि बना रहता है। वह चनरन्तर चवषयों की ओर भागता रहता है। यह रजोगुण की प्रधानता क े कारण होता है। • क्ोंचक रजोगुण का धमि है चक्रयाशीिता इसचिए रजोगुण से युि चित्त भी चनरन्तर चक्रयाशीि बना रहता है। वह चकसी भी चवषय पर क्तथर्र नहीं हो पाता, एक चवषय प्राप्त होने पर वह तुरन्त दू सरे चवषय की ओर दौड़ने िगता है। • इसी कारण चित्त में दुुःख की उत्पचत्त होती है।
  • 16. • 3. दिदक्षप्त- • चित्त की यह अवथर्ा भी पूणितया रजोगुणी होती है। चकन्तु कभी कभी इस अवथर्ा में सत्वगुण का प्रभाव भी उत्पन्न हो जाता है। • इस अवथर्ा में जब चित्त में रजोगुण प्रधान होता तो वह बचहमुिख होकर चवषयों की ओर भागता रहता है और • जब कभी सत्वगुण बढ़ जाता है तो चित्त में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है और क ु छ समय क े चिए चित्त अन्तमुिखी हो जाता है। चकन्तु बार- बार गुणों की अवथर्ा पररवचतित होने क े कारण चित्त की इस अवथर्ा में भी क्तथर्रता का अभाव होता है। • इसीचिए इस अवथर्ा को चवचक्षप्तावथर्ा कहा जाता है। यह अवथर्ा मूढावथर्ा तर्ा चक्षप्तावथर्ा से क ु छ श्रेष्ठ कही जाती है।
  • 17. • 4. एकाग्र- • चित्त की एकाग्र अवथर्ा पूणितया सत्वगुणी होती है। रज व तम दोनों न्यून हो जाते हैं। • अब रजोगुण क े वि साक्तत्वकवृचत्त को चक्रयाशीि बनाये रखने का कायि करता है तर्ा तमोगुण उस साक्तत्वक वृचत्त को क्तथर्र बनाये रखने का कायि करता है। • चजससे चवषयों का यर्ार्ि ज्ञान चित्त में उत्पन्न होने िगता है। सार् ही वैराग्य भाव दृढ़ होने िगता है तर्ा चित्त में सुख की उत्पचत्त होती है। ध्यान की यही अवथर्ा है। इसी अवथर्ा को सम्प्रज्ञात योग (सम्प्रज्ञात समाचध) भी कहा जाता है।
  • 18. • 5.दनरुि- • चित्त की यह अवथर्ा चत्रगुणातीत अवथर्ा ही है। चनरन्तर अभ्यास से सभी चवषयों का ज्ञान प्राप्त करने पर समस्त वृचत्तयााँ समाप्त हो जाती हैं। • इस अवथर्ा में चित्त शान्त हो जाता है। चववेकख्याचत वृचत्त भी परवैराग्य द्वारा हटाने क े बाद चनबीज या असम्प्रज्ञात समाचध की क्तथर्चत है। सविवृचत्तचनरोध होने क े कारण द्रष्टा की स्वरूपक्तथर्चत इस अवथर्ा क े पश्चात आ जाती है।
  • 19. • शास्त्ों में चित्त को स्वच्छ दपिण क े समान या शुद्ध स्फचटक मचण क े समान बताया है। • जैसे ये दोनों सम्पक ि में आने वािे चवषयों क े आकार को ग्रहण कर तदाकार हो जाते हैं, उन्हीं क े रूप रंग को धारण कर िेते हैं। उसी प्रकार चित्त भी जब इक्तियों क े माध्यम से चवषयों क े सम्पक ि में आता है तो वह भी उसी चवषय क े आकार को ग्रहण कर िेता है। चजसे चित्त का चवषयाकार होना या चित्त का पररणाम कहा जाता है। •
  • 20. दित्तिृदत्त • दित्तिृदत्त • चित्त का रूपान्तरण ही वृचत्त है। चित्त स्फचटक मचण क े समान चनमिि तत्व है। उसका अपना कोई आकार नहीं होता। चजस चवषय क े सम्पक ि में वह आता है उसी क े समान आकार को धारण कर िेता है। यह चवषयाकारता ही वृचत्त कहिाती है। वृचत्त व्यापार को कहा जाता है। िक्षु आचद इक्तियों का अपने रूप आचद चवषयों क े सार् सम्बन्ध होना व्यापार है। बाह्यकरण िक्षुआचद का जो व्यापार है, वही व्यापार अन्तुःकरण चित्त का रहता है।
  • 21. • क्लेशों क े कारण वृचत्तयों क े दो भेद माने गये हैं। परन्तु वास्तव में ये वृचत्तयां पााँि है। उन पााँिों वृचत्तयों क े भी दो दो भेद होते हैं। योगसूत्र में कहा गया है- • िृत्तयुः पांििृदतयुः स्िष्टाऽस्िप्ाुः। (योगसूत्र 1/5) • अर्ाित वृचत्तयााँ पााँि प्रकार की हैं, जो क्लेशो को उत्पन और क्लेशो का नाश करने वािी हैं। • िेश पााँि प्रकार क े कहे गये हैं- अदिद्या, अस्िता, राग, द्वेष और अदभदनिेश।
  • 22. • अचवद्या आचद क्लेशों क े सहयोग से इक्तियों की चवषयों में प्रवृचत्त रूप वृचत्तयााँ दुुःख आचद को उत्पन्न करती हैं। चजन वृचत्तयों क े हेतु अचवद्या आचद क्लेश नहीं हैं, प्रत्युत आध्याक्तत्मक भावनाओं से प्रेरणा पाकर इक्तिय वृचत्तयााँ उभरती हैं वे 'अक्तक्लष्ट' हैं, • दुुःख आचद को उत्पन्न करने क े बजाय वे उनक े नाश करने में सहयोगी होती हैं। ये वृचत्तयााँ अभ्यासी को चववेकख्याचत की ओर अग्रसर करती हैं, एवं उसे िक्ष्य तक पहुाँिाती है।
  • 23. • योगसूत्र में महदषद पतांजदल ने दित्त की पाांि िृदत्तयााँ बतायी हैं- 1. प्रमाण 2. दिपयदय 3. दिकल्प 4. दनद्रा 5. िृदत “प्रमाणदिपयदयदिकल्पदनद्रािृतय:।” (योगसूत्र- 1/6) • • 1. प्रमाण िृदत्त- प्रमा करणं प्रमाणम् अर्ाित प्रमा (ज्ञान) क े करण (साधन) को प्रमाण कहते हैं अर्वा प्रमीयतेऽनेनेचत प्रमाणम् अर्ाित चजससे प्रमा ज्ञान होता है। वह प्रमाण कहिाता है अर्ाित प्रमा क े साधन का नाम प्रमाण है। कहा गया. है- 'प्रत्यक्षानुमानागमाुः प्रमाणादन (योगसूत्र- 1/7) अर्ाित प्रमाण वृचत्त तीन प्रकार की है- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम।
  • 24. • प्रत्यक्षानुमानागमाुः प्रमाणादन (योगसूत्र- 1/7) अर्ाित प्रमाण वृचत्त तीन प्रकार की है- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। • • (क) प्रत्यक्ष प्रमाण- कहा गया है- • इस्ियप्रणादलकया दित्तस्य बाह्मिस्तूपरागात् तदद्वषया सामान्यदिशेषात्मनोऽिदस्य दिशेषािधारणप्रधाना िृदत्त: प्रत्यक्ष प्रमाणम्।
  • 25. • अर्ाित इक्तियों क े द्वारा चित्त का बाह्य चवषयों से सम्बन्ध होने से, उनको अपना चवषय करने वािी सामान्य चवशेषरूप पदार्ि क े चवशेष अंश को प्रधान रूप से चनश्चय करने वािी वृचत्त प्रत्यक्ष प्रमाण कहिाती है • अर्वा यह भी कह सकते हैं चक इक्तिय और वस्तु क े सचन्नकषि से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और उसका साधन हमारी इक्तियां होती हैं। अतुः उस ज्ञान क े उत्पन्न होने का कारण हमारी इक्तियााँ होने क े कारण इक्तियों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाएगा।
  • 26. • क ु छ दाशिचनकों का मत है चक सामान्य ही पदार्ि हैं, क ु छ कहते हैं चक चवशेष ही पदार्ि है और क ु छ का मत है चक पदार्ि सामान्य और चवशेष से युि है। • चकन्तु सांख्य और योग क े अनुसार पदार्ि न तो सामान्य रूप है,न चवशेष रूप है और न ही सामान्य चवशेष से युि है अचपतु पदार्ि सामान्यचवशेष रूप है। • चनष्कषि यह हुआ चक इक्तिय द्वारा घटाचद चवशेष क े आकार वािी जो चित्तवृचत्त है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
  • 27. • (ख) अनुमान प्रमाण- चकसी अन्य वस्तु क े अनुसार चकसी वस्तु का ज्ञान करना अनुमान ज्ञान कहिाता है। कहा गया है- • “अनुमेयस्य तुल्यजातीयेष्वनुिृत्तो दभन्नजातीयेभ्ो व्यािृत्तुः सम्बन्धोां यस्तदद्वषया सामान्यािधारणप्रधाना िृदत्तरनुमानम्“। • अर्ाित अचि आचद अनुमेय साध्य का, पविताचद पक्ष सदृश महानसाचद में रहने वािा तर्ा चभन्नजातीय तड़ागाचद में नहीं रहने वािा जो व्याक्तप्तरूप सम्बन्ध है, तचद्वषयक सामान्य अंश का प्रधानरूप से चवषय करने वािी जो बुक्तद्धवृचत्त है, वह अनुमान प्रमाण कहिाती है। जैसे िि तारागण गचत वािे हैं क्ोंचक वे एक थर्ान से दू सरे थर्ान पर जाते हैं। जो एक थर्ान से दू सरे थर्ान पर नहीं जाता, वह गचतमान नहीं होता, जैसे पवित।
  • 28. • सांख्य और योग दोनों ही शास्त्ों ने कारण कायि भाव संबन्ध को मान्यता प्रदान की है। अतुः कहने का तात्पयि है, चक कायि क े अनुसार कारण और कारण क े अनुसार कायि का ज्ञान करना अनुमान ज्ञान कहिाता है। यह तीन प्रकार का होता है • पूिदित- यह अनुमान प्रमाणवृचत्त का एक ऐसा चसद्धान्त है चजसमें कारण क े अनुसार कायि का अनुमान चकया जाता है। जैसे यचद कािे बादि और आकाशीय चबजिी की िमक तर्ा बादिों की गड़गडाहट सुनाई दे तो भचवष्य में होने वािी वषाि का अनुमान होता है जो चक वतिमान में इक्तियों क े द्वारा ग्राह्य नहीं है। इस प्रकार क े अनुमान को पूविवत (कारण क े अनुसार) उत्पन्न होने वािा ज्ञान कहा आएगा। •
  • 29. • शेषित- जब कायि को देखकर कारण का अनुमान चकया जाए तो उसे शेषवत अनुमान कहा जाता है। शेष कहने का तात्पयि कायि से है। जैसे नदी क े चमट्टी चमिे एवं बढ़े हुए जि स्तर को देख कर, उसक े कारणरूप पवितों पर हुई वषाि का अनुमान चकया जाता है। वषाि एक या दो चदन पहिे पवितों पर हो िुकी जो चक इक्तियों क े द्वारा ग्राह्य नहीं है। परन्तु उसका ज्ञान पररणाम को देख कर आज चकया जा रहा है। इसी को शेषवत अनुमान कहते हैं। • सामान्यतुः दृष्ट- एक बार से अचधक बार देखे गए की संज्ञा सामान्यतुः दृष्ट होती है। कहने का तात्पयि है चक जब चकसी कायि क े कारण को अनेक बार देख कर उसका ज्ञान चकया जाता है तो चफर वह सामान्य की अवथर्ा को प्राप्त हो जाता है चफर यचद उसी जाचत का कायि अन्य थर्ान पर चबना उपादान कारण क े होगा तो उसक े उपादान कारण का ज्ञान अनुमान नामक प्रमाण वृचत्त से कर चिया जाएगा।
  • 30. • जैसे हम बिपन से ही देखते है चक क ु म्हार घट का चनमािण कर रहा है और िोहार िोहे से बने हचर्यारों का ऐसी अवथर्ा को अनेक बार देखना सामान्यतुः दृष्ट कहा जाता है, • अब इसक े बाद यचद चकसी अन्य घट को हम बाजार में देखते हैं तो अनुमान करेंगे चक इस घट का चनमािता भी क ु म्हार ही है या िोहे से बने हचर्यारों का चनमािता िोहार है। इसी क्तथर्चत को सामान्यतुःदृष्ट अनुमान प्रमाण वृचत्त कहा जाता है।
  • 31. • (ग) आगम प्रमाण- जब चकसी वस्तु अर्वा तत्व क े ज्ञान का कारण न तो इक्तियां होती है और न ही उनका अनुमान चकया जाए तो उस ज्ञान को आगम प्रमाण से चसद्ध चकया जाता है जैसे स्वगि और नरक आचद। • आप्तेन दृष्टोऽनुदमतो िाऽिदुः परत्र स्वबोधसांक्ाांतये शब्देनोपदिश्यते शब्दात् तििददिषयािृदत्तुः श्रोतुरागम:। • अर्ाित आप्तपुरुष अर्वा आप्तग्रन्ों द्वारा प्रत्यक्ष अर्वा अनुमान से ज्ञात चवषय को दू सरे में ज्ञान उत्पन्न करने क े चिये शब्द क े द्वारा उपदेश चकया जाता है। वहां शब्द से उस अर्ि को चवषय करने वािी जो श्रोता की वृचत्त है, वह आगम प्रमाण कहिाती है।
  • 32. • अर्ाित आप्तपुरुष अर्वा आप्तग्रन्ों द्वारा प्रत्यक्ष अर्वा अनुमान से ज्ञात चवषय को दू सरे में ज्ञान उत्पन्न करने क े चिये शब्द क े द्वारा उपदेश चकया जाता है। • वहां शब्द से उस अर्ि को चवषय करने वािी जो श्रोता की वृचत्त है, वह आगम प्रमाण कहिाती है। • वास्तव में स्वगि को िक्षु आचद इक्तियों से ग्रहण नहीं चकया जा सकता और न ही वह चकसी क े द्वारा अनुमाचनत है परन्तु स्वगि की मान्यता है। यहां पर आगम प्रमाण की मान्यता पुष्ट होती है। क्ोंचक वेदाचद ग्रन्ों में अनेक थर्ानों पर स्वगि और नरक की कल्पना की गई है। इस चिए उसकी सत्ता को मानना अचनवायि हैं। इस आगम प्रमाण क े अन्तगित आप्त पुरुष अर्वा आप्त ग्रन्ों की भी गणना की जाती है।
  • 33. • 2. दिपयदय- चमथ्या ज्ञान को चवपयिय कहते हैं। वह चमथ्या ज्ञान वस्तुतत्व क े रूप में प्रचतचष्ठत नहीं होता योगदशिन में कहा गया है- • “दिपयदयो दमथ्याज्ञानमतद्रूपप्रदतष्ठम्“ (योगसूत्र 1/8) • अंधकार आचद दोषों क े कारण पुरोवती रस्सी को सांप समझना चमथ्याज्ञान है। • सांपचवषयक चित्तवृचत्त पुरोवती वस्तुतत्व रस्सी क े रूप में प्रचतचष्ठत नही है। अतुः यह चित्तवृचत्त योगदशिन में चवपयिय नाम से जानी जाती है। • इसी प्रकार सीप में िांदी चवषयक वृचत्त, देह तर्ा इक्तिय में आत्मचवषयक चित्तवृचत्त का नाम चवपयिय है।
  • 34. • 3. दिकल्प- योगदशिन में कहा गया है- • “शब्दज्ञानानुपाती िस्तुशून्यो दिकल्पुः“ (योगसूत्र 1/9) वस्तुशून्य होने पर भी शब्दजन्य ज्ञान क े प्रभाव से जो व्यवहार देखा जाता है, वह चवकल्प वृचत्त है। • दू सरे शब्दों में कहा जा सकता है चक शब्द और शब्दज्ञान क े अनुसार उभरने वािी चित्त की वृचत्त यचद चवषयगत वस्तु से शून्य हो तो चवकल्प कहिाती है। • चकसी शब्द क े उच्चारण और उससे होने वािे शब्दज्ञान क े अनुसार उसक े प्रभाव से सुननेवािे व्यक्ति क े चित्त में उभरने वािी वृचत्त को “'चवकल्प' कहते हैं। परन्तु चजस आधार पर वह शब्द या शब्द समूह कहा गया है, उसका सदा ही वहााँ अभाव होना आवश्यक है।
  • 35. • 4. दनद्रा- • प्रमाण, चवपयिय और चवकल्प क े समान चनद्रा भी एक वृचत्त है, ऐसा सांख्ययोग का चसद्धान्त है। • नैयाचयक चनद्रा को वृचत्त नही मानते हैं। उनक े मतानुसार चनद्रा ज्ञानाभाव रूप है। • चनद्रा का स्वरूप महचषि पतंजचि ने इस प्रकार प्रस्तुत चकया है चक अभाव की प्रतीचत को चवषय करने वािी चित्तवृचत्त का नाम चनद्रा है “अभािप्रत्ययालम्बना िृदत्तदनद्राुः“ (योगसूत्र 1/10)
  • 36. • यहां पर ज्ञान क े अभाव की प्रतीचत समझनी िाचहए। इक्तियों से होने वािे ज्ञान का उस अवथर्ा में अभाव रहता है। यह चववरण सुषुक्तप्त अवथर्ा का है। जैसे जाग्रत और स्वप्न अवथर्ा में इक्तिय ज्ञान होते रहते हैं ऐसा ज्ञान सुषुक्तप्त अवथर्ा में नहीं होता। तात्पयि यह है चक “चनद्रा' नामक वृचत्त सुषुक्तप्त अवथर्ा है • इसको िोक में गाढ़ चनद्रा या गहरी नींद कहते हैं। जब व्यक्ति इस चनद्रा से जाग उिता है तो कहता है “मैं सुखपूविक सोया'। यह ज्ञान चनद्रा की अवथर्ा में होता है। इसी का नाम चनद्रा वृचत्त है। चनद्रा होने क े सार् सार् सुख क े अनुभव क े कारण इस अवथर्ा को वृचत्त कहा गया है।
  • 37. • 5. िृदत- पहिे अनुभव चकये हुए चवषय का चफर उभर आना स्मृचत नामक चित्तवृचत्त है “अनुभूतदिषयाऽसम्प्रमोष: िृदत (योगसूत्र 1/11) • सूत्र क े 'असम्प्रमोष:' पद में “मुष्' धातु का प्रयोग है, चजसका अर्ि धातुपाि में 'स्तेय' िोरी करना, चनदेश चकया गया है। अपने अचधकार की चकसी वस्तु का अवैधाचनक रूप से उिा चिया जाना, अर्वा दू र कर चदया जाना। • इस पद में 'सम' और "“प्र' दो उपसगि हैं, जो धात्वर्ि की उग्रता को अचभव्यि करते हैं। एक अचधकार से वस्तु का चनतान्त अनाचधक ृ त रूप में ििे जाना। “सम्प्रमोष' पद का नंि क े सार् समास कर “असम्प्रमोष' पद से पूविि अर्ि क े पूणि चवपरीत अर्ि का अचभव्यंजन चकया गया है।
  • 38. • चकसी व्यक्ति क े द्वारा अनुभूत चवषय का उसक े ज्ञान क े रूप में पूणितया उस व्यक्ति क े अचधकार में रहना। चवषय की अनुभूचत क े अनन्तर अनुभवजन्य संस्कार आत्मा में चनचहत रहते हैं। • कािान्तर में अनुक ू ि चनचमत्त उपक्तथर्त होने पर संस्कार उभर जाते हैं, जो उस चवषय को याद करा देते हैं। इस प्रकार की चित्तवृचत्त का नाम 'स्मृचत' है। • अनुभूचत क े समान संस्कार होते हैं और संस्कारों क े सदृश ही 'स्मृचत' हुआ करती है। स्मृचत का चवषय सदा वही होता है जो अनुभव का चवषय रहा है। चबना अनुभव चकये हुए का स्मरण नहीं होता।
  • 39. • उपयुिि प्रमाण, चवपयिय, चवकल्प, चनद्रा और स्मृचत ये पांि प्रकार की वृचत्तयां चनरोध करने योग्य हैं क्ोंचक ये सुख दुुःख और मोहरूप है। • सुख, दुुःख और मोह तो क्लेशों क े ही अन्दर आते हैं। किेशरूप होने क े कारण इन सभी का चनरोध आवश्यक है। • इन वृचत्तयों का चनरोध होने पर सम्प्रज्ञात समाचध तर्ा सम्प्रज्ञात समाचध क े द्वारा असम्प्रज्ञात समाचध का िाभ योचगयों को होता है।