1. Quotations
"Knowledge leads to unity. Ignorance, to disunity."
"As a man thinks, so he becomes."
"The number of Opinions, the equal number of Ways"(Jata mat tata path)
रामकृ ष्ण परमहंस
रामकृ ष्ण परमहंस / Ramkrishna Paramhans
रामकृ ष्ण परमहंस
Ramkrishna Paramhans
रामकृ ष्ण परमहंस (जन्म- 18 फ़रवरी, 1836 - मृत्यु- 15 अगस्त 1886) भारत के एक महान संत एवं ववचारक थे। इन्होंने
सभी धमों की एकता पर जोर दिया था। उन्हें बचपन से ही ववश्वास था कक ईश्वर के िर्शन हो सकते हैं। अतः ईश्वर की
प्राप्तत के लिए उन्होंने कठोर साधना और भप्तत का जीवन बबताया। रामकृ ष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के
फिस्वरूप वह इस ननष्कर्श पर पहुुँचे कक संसार के सभी धमश सच्चे हैं और उनमें कोई लभन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुुँचने
के लभन्न-लभन्न साधन मात्र हैं।
जीवन पररचय
2. बंगाि के हुगिी प़्ििे में एक ग्राम है कामारपुकुर। यहीं 18 फ़रवरी सन 1836 को बािक गिाधर का जन्म हुआ।
गिाधर के वपता खुिीराम चट्टोपाध्याय ननष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे।
गिाधर की लर्क्षा तो साधारण ही हुई, ककं तु वपता की सािगी और धमशननष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पडा। सात वर्श की
अवस्था में ही वपता परिोक वासी हुए।
सत्रह वर्श की अवस्था में बडे भाई रामकुमार के बुिाने पर गिाधर किकत्ता आये और कुछ दिनों बाि भाई के स्थान
पर रानी रासमणण के िक्षक्षणेश्वर-मप्न्िर में पूजा के लिये ननयुतत हुए। यहीं उन्होंने माुँ महाकािी के चरणों में अपने
को उत्सगश कर दिया। वे भाव में इतने तन्मय रहने िगे कक िोग उन्हें पागि समझते। वे घंटों ध्यान करते और माुँ
के िर्शनों के लिये तडपते। एक दिन अधशराबत्र को जब व्याकुिता सीमा पर पहुुँची, उन जगिम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृ ताथश
कर दिया। गिाधर अब परमहंस रामकृ ष्ण ठाकुर हो गये।
बंगाि में बाि-वववाह की प्रथा है। गिाधर का भी वववाह बाल्यकाि में हो गया था; उनकी बालिका पत्नी जब
िक्षक्षणेश्वर आयी, गिाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माुँ र्ारिामणण का कहना है- 'ठाकुर के िर्शन एक बार पा जाती
हूुँ, यही तया मेरा कम सौभाग्य है?' परमहंस जी कहा करते थे- 'जो माुँ जगत का पािन करती हैं, जो मप्न्िर में पीठ
पर प्रनतप्ष्ठत हैं, वही तो यह हैं।' ये उद्गार थे उनके अपनी पत्नी, माुँ र्ारिामणण के प्रनत।
अधधकारी के पास मागश ननिेर्क स्वयं चिे आते हैं। उसे लर्क्षा-िाता की खोज में भटकना नहीं पडता। एक दिन
सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यालसनी स्वयं िक्षक्षणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृ ष्ण को पुत्र की भाुँनत उनका स्नेह
प्रातत हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक ताप्न्त्रक साधनाएुँ करायीं।
उनके अनतररतत तोतापुरी नामक एक वेिान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधधक प्रभाव पडा। उनसे परमहंस
जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्रातत करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष ककया।
परमहंस जी का जीवन ववलभन्न साधनाओं तथा लसद्धधयों के चमत्कारों से पूणश है; ककं तु चमत्कार महापुरुर् की महत्ता
नहीं बढाते।
परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभप्तत और उस अमृतोपिेर् में है, प्जससे सहस्त्रों प्राणी कृ ताथश हुए,
प्जसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष के र्वचन्र सेन जैसे ववद्वान भी प्रभाववत थे, प्जस प्रभाव एवं आध्याप्त्मक
र्प्तत ने नरेन्र -जैसे नाप्स्तक, तकश र्ीि युवक को परम आप्स्तक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी वववेकानन्ि बना
दिया।
स्वामी रामकृ ष्ण परमहंस जी का अधधकांर् जीवन प्राय: समाधध की प्स्थनत में ही व्यतीत हुआ।
जीवन के अप्न्तम तीस वर्ों में उन्होंने कार्ी, वृन्िावन, प्रयाग आदि तीथों की यात्रा की।
उनकी उपिेर्-र्ैिी बडी सरि और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, िया और सेवा
के द्वारा ही उन्होंने िोक सुधार की सिा लर्क्षा िी।
15 अगस्त सन 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान ककया।
3. सेवाग्राम के संत के र्ब्िों में 'उनका जीवन धमश को व्यवहार क्षेत्र में उतारकर मूतशस्वरूप िेने के प्रयास की एक
अमरगाथा है।'
श्री रामकृ ष्ण परमहंस जयंती पर विशेष.....(एक ज्ञानिर्धक प्रसंग)
श्री रामकृ ष्ण परमहंस से लमिने ननत्य बहुत सारे िोग आते थे,वे उनसे
तरह तरह के तकश करते रहते थे,रामकृ ष्ण सभी के तको का जवाब खुर्ी
खुर्ी िेते थे।एकबार के र्वचन्र नामक बहुत बडे ववद्वान ताककश क उनके
पास तकश करने पहुुँचे,के र्वचन्र रामकृ ष्ण को अपने तको से हराना
चाहते थे।रामकृ ष्ण तो पढे लिखे नहीं थे,परन्तु वे लसद्ध पुरुर् थे,परन्तु
के र्वचन्र के नजर में वे गंवार थे।उस दिन काफी चचाश से बहुत भीड
जुट गई,सबिोग सोच रहे थे कक रामकृ ष्ण अवश्य हार जायेंगे कारण
उस सिी के सबसे बडे ववद्वान,ताककश क जो पधारे थे।के र्वचन्र ईश्वर के
णखिाफ तकश िेने िगे,रामकृ ष्ण ववरोध नहीं करके उनकी प्रर्ंसा करने
िगे,तया ििीि िी आपने।के र्वचन्र सोच रहा था कक रामकृ ष्ण मेरे
तको को गित कहेगा तभी तो तकश वववाि बढेगा,परन्तु रामकृ ष्ण तो
सारे तको को गुणगान ककया।
4. जब रामकृ ष्ण ने ककसी भी तकश को गित नहीं कहा तो के र्वचन्र को
अन्िर से बेचैनी होने िगी।रामकृ ष्ण,के र्वचन्र की हर बात पर उन्हें
जोर् दििाते और कहते,आपकी हर बात बहुत जुँचती है,आणखर में जब
सारे तकश चूक गये तो के र्वचन्र ने रामकृ ष्ण से कहा कक,तुम मेरे बात
मानते हो कक ईश्वर नहीं है,रामकृ ष्ण ने कहा "तुम्हें न देखा होता तो मै
यह बात मान लेता पर तुम्हारे जैसी प्रततभा पैदा होती है तो यह बबना
ईश्िर के हो ही नहीं सकती।तुम्हें देखकर यह प्रमाण ममल गया कक
ईश्िर है",सत्य अपने आप में सबसे बडा प्रमाण है,के र्वचन्र उस दिन
वहाुँ से चिे गये,राबत्र में रामकृ ष्ण के पास पुनः आए और उनसे
बोिे,प्जस भाुँनत तुम हो गये हो,मेरे लिए ऐसा होने का कोई उपाय
है।रामकृ ष्ण ने अगर वववाि ककया होता तो के र्वचन्र िौटकर नहीं
आते।इसलिए तकश से धमश प्रातत नहीं हो सकता।
6. [छु पाएुँ]
१ जन्म
२ पररिार
३ जीिन िृत
४ शीषधक
५ शीषधक
६ मृत्यु
जन्म
मानिीय मूल्यों के पोषक संत रामकृ ष्ण परमहंस का जन्म १८ फरिरी, १८३६ को बंगाल प्रांत प्स्थत ग्राम
कामारपुकु र में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदार्र था। इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्र्
मुस्कान से हर कोई सम्मोदहत हो जाता था।
पररिार
सात िषध की अल्पायु में ही गदार्र के मसर से वपता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत पररप्स्थतत में पूरे
पररिार का भरण-पोषण कदठन होता चला गया। आर्थधक कदठनाइयां आईं। बालक गदार्र का साहस कम
नहीं हुआ। इनके बडे भाई रामकु मार चट्टोपाध्याय कलकत्ता(कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। िे
गदार्र को अपने साथ कोलकाता ले गए। रामकृ ष्ण का अन्तमधन अत्यंत तनश्छल, सहज और विनयशील
था। संकीणधताओं से िह बहुत दूर थे। अपने कायो में लगे रहते थे।
जीिन िृत
सतत प्रयासों के बाद भी रामकृ ष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। कलकत्ता के पास
दक्षिणेश्िर प्स्थत काली माता के मप्न्दर में अग्रज रामकु मार ने पुरोदहत का दातयत्ि साुँपा, रामकृ ष्ण इसमें
नहीं रम पाए। कालान्तर में बडे भाई भी चल बसे। अन्दर से मन ना करते हुए भी रामकृ ष्ण मंददर की
पूजा एिं अचधना करने लगे। रामकृ ष्ण मां काली के आरार्क हो गए। बीस िषध की अिस्था में अनिरत
सार्ना करते-करते माता की कृ पा से इन्हें परम ददव्य ज्ञान प्रातत हुआ। इनके वप्रय मशष्यवििेकानन्द ने एक
बार इनसे पूछा-महाशय! तया आपने ईश्िर को देखा है? महान सार्क रामकृ ष्ण ने उत्तर ददया-हां देखा है,
प्जस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बप्ल्क उससे कहीं अर्र्क स्पष्टता से। िे स्ियं की अनुभूतत
से ईश्िर के अप्स्तत्ि का विश्िास ददलाते थे। आध्याप्त्मक सत्य, ज्ञान के प्रखर तेज से भप्तत ज्ञान के
रामकृ ष्ण पथ-प्रदशधक थे। काली माता की भप्तत में अिगाहन करके िे भततों को मानिता का पाठ पढाते
थे।
7. रामकृ ष्ण के मशष्य नाग महाशय ने गंगातट पर जब दो लोगों को रामकृ ष्ण को गाली देते सुना तो क्रोर्र्त
हुए ककं तु प्रभु से प्राथधना की कक उनके मन में श्रद्र्ा जगाकर रामकृ ष्ण का भतत बना दें। सच्ची भप्तत के
कारण दोनों शाम को रामकृ ष्ण के चरणों में र्गरकर िमा मांगने लगे। रामकृ ष्ण ने उन्हें िमा कर ददया।
एक ददन परमहंस ने आंिला मांगा। आंिले का मौसम नहीं था। नाग महाशय ढूंढते-ढूंढते िन में एक िृि
के नीचे ताजा आंिला रखा पा गये, रामकृ ष्ण को ददया। रामकृ ष्ण बोले-मुझे पता था-तू ही लेकर आएगा।
तेरा विश्िास सच्चा है।
रामकृ ष्ण परमहंस जीिन के अंततम ददनों में समार्र् की प्स्थतत में रहने लगे। अत: तन से मशर्थल होने
लगे। मशष्यों द्िारा स्िास््य पर ध्यान देने की प्राथधना पर अज्ञानता जानकर हंस देते थे। इनके मशष्य इन्हें
ठाकु र नाम से पुकारते थे। रामकृ ष्ण के परमवप्रय मशष्य वििेकानन्द कु छ समय दहमालय के ककसी एकान्त
स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब िे गुरु के पास गये तो रामकृ ष्ण ने कहा-ित्स
हमारे आसपास के िेत्र के लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंर्ेरा छाया है। यहां लोग रोते-
र्चल्लाते रहें और तुम दहमालय की ककसी गुफा में समार्र् के आनन्द में तनमग्न रहो तया तुम्हारी आत्मा
स्िीकारेगी। इससे वििेकानन्द दररद्र नारायण की सेिा में लग गये। रामकृ ष्ण महान योगी, उच्चकोदट के
सार्क ि विचारक थे। सेिा पथ को ईश्िरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दशधन करते थे। सेिा से
समाज की सुरिा चाहते थे। गले में सूजन को जब डातटरों ने कैं सर बताकर समार्र् लेने और िाताधलाप से
मना ककया तब भी िे मुस्कराये। र्चककत्सा कराने से रोकने पर भी वििेकानन्द इलाज कराते रहे।
वििेकानन्द ने कहा काली मां से रोग मुप्तत के मलए आप कह दें। परमहंस ने कहा इस तन पर मां का
अर्र्कार है, मैं तया कहूं, जो िह करेगी मेरे मलए अच्छा ही करेगी। मानिता का उन्होंने मंत्र लुटाया।
8. महापुरुष और दूरदशी संत श्री रामकृ ष्ण परमहंस
सपनों और हकीकत की िुननया के बीच के संसार को सबके सामने उजागर करने के साथ सभी
धमों को एक मान कर ववश्व एकता पर बि िेने का मंत्र हमारे सामने सबसे ज्यािा प्रभावी रुप
से रामकृ ष्ण परमहंस जी ने रखा.
रामकृ ष्ण परमहंस का जन्म बंगाि के हुगिी प़्ििे के एक ग्राम कामारपुकु र में हुआ था.
रामकृ ष्ण परमहंस के बचपन का नाम गिाधर था. 18 फ़रवरी सन 1836 को रामकृ ष्ण परमहंस
का जन्म हुआ था.
गिाधर की लर्क्षा तो साधारण ही हुई, ककं तु वपता की सािगी और धमशननष्ठा का उन पर पूरा
प्रभाव पडा. सात वर्श की अवस्था में ही वपता परिोक वासी हुए. सत्रह वर्श की अवस्था में बडे
9. भाई रामकु मार के बुिाने पर गिाधर किकत्ता आए और कु छ दिनों बाि भाई के स्थान पर रानी
रासमणण के िक्षक्षणेश्वर-मप्न्िर में पूजा के लिये ननयुतत हुए. यहीं उन्होंने माुँ महाकािी के
चरणों में अपने को उत्सगश कर दिया. वे भाव में इतने तन्मय रहने िगे कक िोग उन्हें पागि
समझते. वे घंटों ध्यान करते और माुँ के िर्शनों के लिये तडपते. एक दिन अधशराबत्र को जब
व्याकु िता सीमा पर पहुंची, उन जगिम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृ ताथश कर दिया. गिाधर अब
परमहंस रामकृ ष्ण ठाकु र हो गये.
अधधकारी के पास मागश ननिेर्क स्वयं चिे आते हैं. उसे लर्क्षा-िाता की खोज में भटकना नहीं
पडता. एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यालसनी स्वयं िक्षक्षणेश्वर पधारीं. परमहंस
रामकृ ष्ण को पुत्र की भाुँनत उनका स्नेह प्रातत हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक ताप्न्त्रक
साधनाएं करायीं.
परमहंस जी का जीवन ववलभन्न साधनाओं तथा लसद्धधयों के चमत्कारों से पूणश है, ककं तु
चमत्कार महापुरुर् की महत्ता नहीं बढाते. परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभप्तत
और उस अमृतोपिेर् में है, प्जससे सहस्त्रों प्राणी कृ ताथश हुए, प्जसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के
अध्यक्ष के र्वचन्र सेन जैसे ववद्वान भी प्रभाववत थे, प्जस प्रभाव एवं आध्याप्त्मक र्प्तत ने
नरेन्र -जैसे नाप्स्तक, तकश र्ीि युवक को परम आप्स्तक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी
वववेकानन्ि बना दिया.
रामकृ ष्ण परमहंस जीवन के अंनतम दिनों में समाधध की प्स्थनत में रहने िगे इसलिए तन से
लर्धथि होने िगे. लर्ष्यों द्वारा स्वास््य पर ध्यान िेने की प्राथशना पर अज्ञानता जानकर हंस
िेते थे. रामकृ ष्ण के परमवप्रय लर्ष्य वववेकानन्ि कु छ समय दहमािय के ककसी एकान्त स्थान
पर तपस्या करना चाहते थे. यही आज्ञा िेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृ ष्ण ने कहा-वत्स
हमारे आसपास के क्षेत्र के िोग भूख से तडप रहे हैं. चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है. यहां
िोग रोते-धचल्िाते रहें और तुम दहमािय की ककसी गुफामें समाधध के आनन्ि में ननमग्न रहो
तया तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी. इससे वववेकानन्ि िररर नारायण की सेवा में िग गये.
रामकृ ष्ण महान योगी, उच्चकोदट के साधक व ववचारक थे. सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रर्स्त
मानकर अनेकता में एकता का िर्शन करते थे.
जीवन के अप्न्तम तीस वर्ों में उन्होंने कार्ी, वृन्िावन, प्रयाग आदि तीथों की यात्रा की. उनकी
उपिेर्-र्ैिी बडी सरि और भावग्राही थी. वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे. स्नेह,
िया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने िोक सुधार की सिा लर्क्षा िी. रामकृ ष्ण परमहंस की 15
अगस्त सन 1886 मृत्यु हो गई थी.
10. आज श्री रामकृ ष्ण परमहंस जी आज हमारे बीच नहीं है िेककन उनके र्ब्ि और लर्क्षा हमारे
बीच ही हैं. उनके मूल्यों को आगे बढाया उनके परम लर्ष्य वववेकानंि जी ने.
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