1. प्रथम अध्याय
जनक की उत्सुकता और अष्टावक्र का आश्वासन
जनक पूछते हैं :
ज्ञान कै से प्राप्त होता है
मेरी मुक्तत कै से होगी
राग से छु टकारा कै से ममलता है
प्रभु यह सब मुझे बताइये ! १। १
अष्टावक्र बताते हैं :
प्रप्रय यदि मुक्तत चाहते हो तो
सभी प्रवषय प्रवचारों की ज़हर की तरह उपेक्षा करो !
क्षमा सािगी िया संतोष और सच्चाई का
अमृत की तरह प्रयोग करो !! १। २
तुम न पृथ्वी हो न जल न अक्नन न हवा न आकाश हो
और न ही तुम इन सबसे बनी कोई वस्तु हो !
मुक्तत के मलए अपने को इन सबका साक्षी बोध रूप जानो !! १। ३
यदि तुम अपने शरीर को अलग जानकर
अपने अंिर शांत हो कर ठहर जाओगे
तो तुम अभी सुखी शांत और बंधन मुतत हो जाओगे !! १। ४
न तुम ब्राहम्ण आदि ककसी जातत के हो
न तुम गृहस्थ आदि आश्रम वाले हो
न तुम आँख आदि से दिखाई िेने वाले हो !
तुम संग-रदहत, आक़ार-रदहत हो
तुम के वल संसार के साक्षी हो
इसमलए खुश रहो !! १। ५
2. सुख िुुःख, धमम अधमम सब
मन के हैं , तुझ व्यापक के नहीं !
न तुम कमम करने वाले हो
न तुम फल भोगने वाले हो
तुम सिा ही मुतत हो !! १। ६
तुम एक ही सबकु छ िेखने वाले हो
तुम सिा से मुतत ही हो !
तुम्हारा बंधन यही है कक
तुम िेखने वाले साक्षी को
कहीं और ढूंढते हो !! १। ७
तुम " मैं कताम हूँ " के अहंकार रूपी
भयंकर काले साँप से डसे हुए हो !
" मैं कताम नहीं हूँ " के प्रवश्वास रूपी
अमृत को पीकर सुखी रहो !! १। ८
मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, बोध हूँ
इस तनश्चय रूपी अक्नन से
अपने अज्ञान रूपी जंगल को जलाकर
शोक-रदहत सुखी रहो !! १। ९
क्जसमें या क्जसको यह संसार
रस्सी में साँप जैसा नज़र आता है
वह आनंि परम-आनंि बोध तुम ही हो
इसमलए ख़ुशी से क्जयो !!१। १०
अपने को मुतत समझने वाला मुतत ही है
अपने को बंधा मानने वाला बंधा ही है !
यह कहावत सच ही है कक
जैसी ककसी कक सोच हो
वैसी ही उसकी गतत (अंत) होती है !! १। ११
3. आत्मा साक्षी है व्यापक है पूणम है
एक है मन से मुतत है अकताम है कमम-रदहत है
संग-रदहत है इच्छा-रदहत है शान्त है
यह के वल भ्रम अज्ञानता के कारण
संसार के लोगों जैसी लगती है !! १। १२
अपने अंिर बाहर के भावों और
अपने अहंकार के भ्रम से मुतत होकर
सिा क्स्थर एक बोध रूप आत्मा को
हर जगह महसूस करो !! १। १३
बेटा,तुम इस शरीर रूपी बंधन से
बहुत िेर से बंधे हुए हो !
"मैं बोध हूँ" इस ज्ञान रूपी तलवार से
उसे काटकर सुखी रहो !! १। १४
तुम संग-रदहत हो कमम-रदहत हो िोष-रदहत हो
तुम अपने आप से ही प्रकामशत हो !
तुम्हारा बंधन यही है कक तुम
समाधध के मलए कोमशश करते हो !! १। १५
यह संसार तुमसे ही व्याप्त है
संसार कक वास्तप्रवकता तुम में ही प्रपरोई हुई है !
तुम शुद्ध हो तुम्हारा असली रूप बोध है
इसमलए तुच्छ मन के पीछे मत जाओ !! १। १६
तुम अपेक्षा-रदहत हो उलझनों से परे हो
भार-रदहत हो शीतलता के स्थान हो
अनंत बुद्धध और होश में रहने वाले हो
इसमलए परेशान न हो !! १। १७
4. हर रूप आकार वाली वस्तु को अस्थायी जानो
हर अरूप तनर-आकार वस्तु को स्थायी जानो !
इतना समझ लेने से भी संसार में कफर मोह नहीं रहता !! १। १८
जैसे िपमण में दिखने वाली तस्वीर
उसके अंिर भी और बाहर भी होती है
वैसे ही हमारे शरीर के अंिर और बाहर
िोनों में परम-आत्मा है !! १। १९
जैसे घड़े के अंिर और बाहर
एक ही आकाश सब जगह मौजूि है
वैसे ही सब जगह सिा रहने वाला परमात्मा
सभी लोगों में मौजूि है !! १। २०
पहला अध्याय समाप्त